बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

ओ मेरे चिर अंतर्यामी !


तप-तप कर हो गई  अपर्णा, जिनके हित नगराज कुमारी ,
कहाँ तुम्हारे पुण्य-चरण ,मैं कहाँ ,जनम की भटकी-हारी!
*
कहीं शान्त तरु की छाया में बैठे होगे आसन मारे,
मूँदे नयन शान्त औ'निश्छल , गरल कंठ शशि माथे धारे ,
और जटाओं से हर-हर कर झरती हो गंगा की धारा ,
मलय-पवन-कण इन्द्रधनुष बन करते हों अभिषेक तुम्हारा!
ऐसा रूप तुम्हारा पावन , ओ मेरे चिर अंतर्यामी,
कुछ सार्थकता पा ले जीवन छू कर  शीतल छाँह तुम्हारी !
*
हिमगिरि के अभिषिक्त अरण्यों की हरीतिमा के उपभोगी,
हिमकन्या को अर्ध-अंग में धरे परम भोगी औ'योगी,
जीत मनोभव ,मनो-भावनाओं के आशुतोष तुम दाता,
परम-प्रिया दाक्षायनि के सुध -बुध खोये तुम  प्रेम वियोगी !
बन नटराज समाये निज में  अमिय-कोश भी, कालकूट भी
चरम ध्रुवों के धारक, परम निरामय, निस्पृह, निरहंकारी !
*
तापों में तप-तप कर कब से अंतर का आकुल स्वर टेरे
शीतल -शिखरों की छाया में धन्य हो उठें साँझ-सवेरे.
रति-रोदन से विगलित  पूर्णकाम करने की कथा पुरानी,
आशुतोष बन कितनों को  वरदान दे चुके औघड़दानी,
सभी यहाँ का छोड़  यहीं पर ,आसक्तियाँ तुम्हें अर्पित कर
मुक्ति विभ्रमों से पा ले  मति मेरी ऐहिकता की मारी
*
तपःपूत वनखंड कि जिस पर  जगदंबा के सँग विचरे हो ,
गहन- नील नभ तले  पावनी गंगा के आंचल लहरे हों ,
उन्हीं तटों पर कर दूँ अपना सारा आगत  तुम्हें समर्पित ,
भूत भस्म  हो , विद्यमान पर तव शुभ-ऐक्षण के पहरे हों,
अब मत वंचित करो  प्रवाहित होने दो करुणा कल्याणी ,
*
अवश कामना मेरी पर  ,अतुलित शुभकर सामर्थ्य तुम्हारी !
कहाँ तुम्हारे पुण्य-चरण ,मैं जनम-जनम की भटकी-हारी!
*

10 टिप्‍पणियां:

  1. भक्ति भाव से परिपूर्ण सुंदर रचना..जिसने सब कुछ अर्पित कर दिया फिर हार कैसी और जीत कैसी..जिसे अन्तर्यामी जान लिया उससे दूरी कैसी..हृदय की यही तो विडम्बना है वह पाकर भी अतृप्त ही रह जाता है

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  2. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (14-10-2016) के चर्चा मंच "रावण कभी नहीं मरता" {चर्चा अंक- 2495} पर भी होगी!
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. महादेव के व्यक्तित्व का कोई भी फलक अछूता नहीं रहा मम्मी! मुग्ध हूँ मैं!

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  4. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’आँखों ही आँखों में इशारा हो गया - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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  5. आस्था और भक्ति के इस गीत पर काव्य के माधुर्य के साथ ही भावसौष्ठव
    तथा तदनुरूप शब्दसौष्ठव भी समग्र रूप से छाया हुआ है। किस किस को उद्धृत करूँ ? शिवशंकर से सम्बद्ध सभी सन्दर्भों की प्रस्तुति ने इस गीत को मनोमुग्धकारी बना दिया है।आनन्द के इन क्षणों के लिए आभार, प्रतिभाजी

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  6. महादेव के अनूठे साक्षात दर्शन हों जैसे ... आपने तो शब्दों में जकड़ लिया शिव के अस्तित्व को ... रूप को ... फिर चरण वंदन की अभिलाषा तो होनी ही है .... बहुत ही भावपूर्ण वंदना ...

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