*
रचनात्मकता का पर्याय है नारी ,
प्रकृति ने दिया सृजन का वरदान -
नेहामृत से सींच ,भावनाओं से पाग
नेह-मोह के सूत्रो से संचार
नित नये स्वरूप सजा रंगभूमि पूरे
कि अभिनय क्रम टूटे नहीं ,
लीला अविराम चले !
*
सब कुछ अनायास ,
सरल-सहज-संगत,
कोई शिकायत नहीं,
मन में प्रतीति लिये
निर्द्वंद्व सहचर भाव.
नैसर्गिक जीवन.
शान्ति, सहयोग ,अपनत्व आश्वस्ति भरा .
*
होने लगा पौरुष का भान ,
सर्वश्रेष्ठ मैं समर्थ .जागा अभिमान
स्वामी हूँ, कर्ता हूँ ,धरता हूँ भार
सेवा-सुविधा का अधिकारी विशेष. .
नियमन-नियंत्रण के रहें प्रतिमान
सारी व्यवस्था हो मेरेअधीन
रीति-नीति मान-मर्यादा, व्यवहार
*
शान्ति रहे ,
संसृति न बाधित हो
तुष्टि रहे ,पुष्टि रहे
सुख से समष्टि रहे
चलता रहे गति का सम .
समझौता करने में
कौन फ़रक पड़ता है
बात एक ही है
तुम और मैं मिल हो गये एक - हम ,
*
लेकिन
बात एक कहाँ ?
श्रेय सिर्फ़ स्वामी को मिलता है !
अनुसारी आज्ञा पर चलता है.
भार मैं लिये हूँ, तुम आश्रय पाती हो
गाती रहो माँडने सजाती रहो
रहो अनुकूल ,सदा यों ही निभाती रहो,
हो कर समर्पित ,चैन की धुन बजाती रहो .
*
कभी मन मचलता है ,
कुछ कहने देने को अंतस् उबलता है
मौन नहीं रहता आवेग मुखर होता जब
बिखर-बिखर जाता
कभी चक्की के पाटों सँग ,थकी हुई रातों में ,
करुण-मधुर, सुख-दुख के गीत बना
कुछ भी न कह भी बहुत कुछ जताती रही!
हृदय भर आये तो रोती और गाती रही.
हँसा - तभी तो दुर्बलता नाम नारी है .
औरत है ,रोने की आदत है ,
सोच-समझ कहाँ ,अक्ल से तो अदावत है.
*
एक प्रश्न पूछूँ नर -
कल्पना-कथायें गढ़ लेना है और बात,
सचमुच संवेदना के साथ निभा पाये क्या ?
घेर कर दिवारें कभी बना तुम पाये घर ?
शिशु के भिगोये में सोये हो रात भर ?
कन-कन बटोर कभी राँध कर खिलाया,
भूखे बालक को कभी नेह भऱ हँसाया ?
लगातार कमियों से जूझे चुपचाप कभी
या कि सब झमेला छोड़ कर गये पलायन
खोल लिये नये द्वार, नये वातायन?
*
रोशनी में लाये कौन,
देखे बिना माने कौन
सुविधा,और साधन सभी तो तुम्हारे
ये फैली हुई धरती और खुला हुआ आसमान.
किन्तु हर ओर घात ,देखो रे खोल आँख
सूचना उसी के लिये -
- 'सावधान , सावधान !'
सच-सच बताओ, अपने समान माना कभी?
व्यक्ति और व्यक्ति का संबंध - पहचाना कभी?
*
कैसा प्रकाशन, हर ओर गिद्ध और बाज़,
केवल अँधेरा पाख ,कहाँ नहीं सौदेबाज़,
भाँप रहे - कौन चाल चलें, हो जायें निहाल.
शर्तें हज़ार , रपटीली है सारी डगर,
नारी के लेखन पर ,लगे बड़े मगर-अगर !
*
- प्रतिभा सक्सेना.
( यह पोस्ट पहले प्रकाशित हुई थी किन्तु किसी त्रुटि के कारण ग़ायब हो गई अतः पुनः डाल रही हूँ - जो बहुमूल्य टिप्पणियाँ इस पर अंकित थीं , मुझे दुख अहै कि यहाँ अप्राप्य हैंं .
मैं उनके लिये क्षमा प्रार्थी हूँ .- प्रतिभा. .)
रचनात्मकता का पर्याय है नारी ,
प्रकृति ने दिया सृजन का वरदान -
नेहामृत से सींच ,भावनाओं से पाग
नेह-मोह के सूत्रो से संचार
नित नये स्वरूप सजा रंगभूमि पूरे
कि अभिनय क्रम टूटे नहीं ,
लीला अविराम चले !
*
सब कुछ अनायास ,
सरल-सहज-संगत,
कोई शिकायत नहीं,
मन में प्रतीति लिये
निर्द्वंद्व सहचर भाव.
नैसर्गिक जीवन.
शान्ति, सहयोग ,अपनत्व आश्वस्ति भरा .
*
होने लगा पौरुष का भान ,
सर्वश्रेष्ठ मैं समर्थ .जागा अभिमान
स्वामी हूँ, कर्ता हूँ ,धरता हूँ भार
सेवा-सुविधा का अधिकारी विशेष. .
नियमन-नियंत्रण के रहें प्रतिमान
सारी व्यवस्था हो मेरेअधीन
रीति-नीति मान-मर्यादा, व्यवहार
*
शान्ति रहे ,
संसृति न बाधित हो
तुष्टि रहे ,पुष्टि रहे
सुख से समष्टि रहे
चलता रहे गति का सम .
समझौता करने में
कौन फ़रक पड़ता है
बात एक ही है
तुम और मैं मिल हो गये एक - हम ,
*
लेकिन
बात एक कहाँ ?
श्रेय सिर्फ़ स्वामी को मिलता है !
अनुसारी आज्ञा पर चलता है.
भार मैं लिये हूँ, तुम आश्रय पाती हो
गाती रहो माँडने सजाती रहो
रहो अनुकूल ,सदा यों ही निभाती रहो,
हो कर समर्पित ,चैन की धुन बजाती रहो .
*
कभी मन मचलता है ,
कुछ कहने देने को अंतस् उबलता है
मौन नहीं रहता आवेग मुखर होता जब
बिखर-बिखर जाता
कभी चक्की के पाटों सँग ,थकी हुई रातों में ,
करुण-मधुर, सुख-दुख के गीत बना
कुछ भी न कह भी बहुत कुछ जताती रही!
हृदय भर आये तो रोती और गाती रही.
हँसा - तभी तो दुर्बलता नाम नारी है .
औरत है ,रोने की आदत है ,
सोच-समझ कहाँ ,अक्ल से तो अदावत है.
*
एक प्रश्न पूछूँ नर -
कल्पना-कथायें गढ़ लेना है और बात,
सचमुच संवेदना के साथ निभा पाये क्या ?
घेर कर दिवारें कभी बना तुम पाये घर ?
शिशु के भिगोये में सोये हो रात भर ?
कन-कन बटोर कभी राँध कर खिलाया,
भूखे बालक को कभी नेह भऱ हँसाया ?
लगातार कमियों से जूझे चुपचाप कभी
या कि सब झमेला छोड़ कर गये पलायन
खोल लिये नये द्वार, नये वातायन?
*
रोशनी में लाये कौन,
देखे बिना माने कौन
सुविधा,और साधन सभी तो तुम्हारे
ये फैली हुई धरती और खुला हुआ आसमान.
किन्तु हर ओर घात ,देखो रे खोल आँख
सूचना उसी के लिये -
- 'सावधान , सावधान !'
सच-सच बताओ, अपने समान माना कभी?
व्यक्ति और व्यक्ति का संबंध - पहचाना कभी?
*
कैसा प्रकाशन, हर ओर गिद्ध और बाज़,
केवल अँधेरा पाख ,कहाँ नहीं सौदेबाज़,
भाँप रहे - कौन चाल चलें, हो जायें निहाल.
शर्तें हज़ार , रपटीली है सारी डगर,
नारी के लेखन पर ,लगे बड़े मगर-अगर !
*
- प्रतिभा सक्सेना.
( यह पोस्ट पहले प्रकाशित हुई थी किन्तु किसी त्रुटि के कारण ग़ायब हो गई अतः पुनः डाल रही हूँ - जो बहुमूल्य टिप्पणियाँ इस पर अंकित थीं , मुझे दुख अहै कि यहाँ अप्राप्य हैंं .
मैं उनके लिये क्षमा प्रार्थी हूँ .- प्रतिभा. .)
कई अनसुलझे प्रश्न उठाती नारी मन की विशेषताओं को उजागर करती सुंदर रचना..
जवाब देंहटाएंसमय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर आने का आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर वाह ।
जवाब देंहटाएंनारी मन और नारी जीवन के अनेक पहलुओं को छूते हुए उनको जीते हुए जीवन के अनेक काल खण्डों से गुज़रती है आपकी रचना ... हर खंड किसी सत्य का प्रतिवादन ही लगता है ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंजय मां हाटेशवरी...
जवाब देंहटाएंअनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 10/06/2016 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।
आभारी हूँ,कुलदीप जी !
हटाएंपितृमूलक समाज में अपने त्याग, समर्पण एवं कर्त्तव्यनिष्ठा के बावजूद भी नारी अपने जीवनसाथी की सहचरी नहीं अनुचरी ही रह जाती है । उस कुंठा और विक्षुब्धता को प्रतिभा जी ने सशक्त एवं प्रभावी अभिव्यक्ति दी है , जो अत्यन्त मार्मिक है ।
हटाएंaapne bahut hi sundar jankari di he. aapka blog bhi mujhe bahut pasand he
जवाब देंहटाएंवाह ! मंगलकामनाएं आपको.....
जवाब देंहटाएंदिल को छूती बहुत सुन्दर और गहन अभिव्यक्ति...लाज़वाब
जवाब देंहटाएंमैंने तीन बार टिप्पणी लिखी । लिख कर आया " प्रकाशन जारी है ।"
जवाब देंहटाएंकिन्तु आई नहीं । इस बार लिखा " आपकी टिप्पणी प्रकाशित कर दी गई थी । " लेकिन फिर भी दिखाई नहीं देती है । पता नहीं कहाँ गई ? अब नहीं लिखूँगी ।