*
घुट कर रह जाते शब्द, ,
व्यक्त नहीं होते मनोभाव -
मैं तुम्हें श्रद्धाञ्जलि कैसे दूँ ?
*
पल-पल मनाया था -
जीत जाओ काल से ,
तुम - जिसने हाड़ गलाते हिम झंझाओँ में
झोंक दिया था जीवन -
तन, यौवन सारे सपन ,
परिणीता का सुहाग , पुत्री का वत्सल-प्रेम ,
जननी-जनक का आसरा .
*
सिर पर कफ़न बाँध
कैसे जिये होगे उन मरणान्तक दुर्गमों में,
कि दुश्मन के पाँव छू न सके हमारी मातृ-भू .
*
स्तब्ध रह जाती हूँ सोच कर -
आज को तुम होते.....
कैसे झेल पाते ,
यहाँ चल रही घातें
धूर्तों की करतूतें,
देश-द्रोहियों की जमातें ?
*
जूझे तुम जिन दुश्मनों से
उन्ही के पिट्ठू और उन के आका,
यहीं बैठे हैं ठाठ से नमक हरामी,
तुम्हारे किये धरे पर पानी फेरते
षड्यंत्र रचते ,इस धऱती की बर्बादी के.
दूध पी-पी कर ये जहरीले साँप
विष-वमन करते अबाध घूम रहे चारों ओर !,
और यहाँ बसे कायर ?
हाथ पर हाथ धरे देखे जा रहे जैसे कोई तमाशा !
क्या-क्या बताऊँ तुम्हें ,और कैसे ?
*
नहीं अभी नहीं ,
तुम्हारी निष्ठा को नमन करते शब्द जागे नहीं अभी.
लोक में भावों का बड़ा अभाव है .
चेत जाये मन ,
एक झटके से आँख खुल गई हो ज्यों ,
तन्द्रा से जाग
अँगड़ाई ले अलस पड़ा तन
ऊर्जस्वित हो उठे देश का यौवन.
कुछ कर डालने को तत्पर .
*
रुकी हूँ कि ये विष- बेलें कट जायें ,
इस धरती के कलंक मिट जायें
वातावरण स्वच्छ , दृष्टियाँ स्वस्थ ,
और मन निस्वार्थ निश्छल.
तब हे परमवीर ,(शायद किसी दूसरे जनम मे),
अर्पण करने आऊँगी
तुम्हारी प्रतिष्ठा में
अंतःस्रजित भावाञ्जलियाँ सजल !
*
- प्रतिभा सक्सेना.
घुट कर रह जाते शब्द, ,
व्यक्त नहीं होते मनोभाव -
मैं तुम्हें श्रद्धाञ्जलि कैसे दूँ ?
*
पल-पल मनाया था -
जीत जाओ काल से ,
तुम - जिसने हाड़ गलाते हिम झंझाओँ में
झोंक दिया था जीवन -
तन, यौवन सारे सपन ,
परिणीता का सुहाग , पुत्री का वत्सल-प्रेम ,
जननी-जनक का आसरा .
*
सिर पर कफ़न बाँध
कैसे जिये होगे उन मरणान्तक दुर्गमों में,
कि दुश्मन के पाँव छू न सके हमारी मातृ-भू .
*
स्तब्ध रह जाती हूँ सोच कर -
आज को तुम होते.....
कैसे झेल पाते ,
यहाँ चल रही घातें
धूर्तों की करतूतें,
देश-द्रोहियों की जमातें ?
*
जूझे तुम जिन दुश्मनों से
उन्ही के पिट्ठू और उन के आका,
यहीं बैठे हैं ठाठ से नमक हरामी,
तुम्हारे किये धरे पर पानी फेरते
षड्यंत्र रचते ,इस धऱती की बर्बादी के.
दूध पी-पी कर ये जहरीले साँप
विष-वमन करते अबाध घूम रहे चारों ओर !,
और यहाँ बसे कायर ?
हाथ पर हाथ धरे देखे जा रहे जैसे कोई तमाशा !
क्या-क्या बताऊँ तुम्हें ,और कैसे ?
*
नहीं अभी नहीं ,
तुम्हारी निष्ठा को नमन करते शब्द जागे नहीं अभी.
लोक में भावों का बड़ा अभाव है .
चेत जाये मन ,
एक झटके से आँख खुल गई हो ज्यों ,
तन्द्रा से जाग
अँगड़ाई ले अलस पड़ा तन
ऊर्जस्वित हो उठे देश का यौवन.
कुछ कर डालने को तत्पर .
*
रुकी हूँ कि ये विष- बेलें कट जायें ,
इस धरती के कलंक मिट जायें
वातावरण स्वच्छ , दृष्टियाँ स्वस्थ ,
और मन निस्वार्थ निश्छल.
तब हे परमवीर ,(शायद किसी दूसरे जनम मे),
अर्पण करने आऊँगी
तुम्हारी प्रतिष्ठा में
अंतःस्रजित भावाञ्जलियाँ सजल !
*
- प्रतिभा सक्सेना.
बहुत गहरी .. अंतर्मन से निकले भाव ...
जवाब देंहटाएंसच में आज का वातावरण देख कर मन में वितृष्णा सी उठ रही है ... क्या हो गया है इस देश, समाज और उनके नेताओं को ... जिन्होंने संचालन करना है उनकी ऐसी मनोवृति ... घातक स्थिति है देश के लिए ... आने वाला हर पल भय बढ़ा जाता है ...
sundar bhav abhivyakti hardik badhai
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 17 फरवरी 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआभार दिग्विजय जी !
हटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंदेश के सपूतों को तो जान देकर अपना फर्ज पूरा करना है, पर सदन में बैठे कायर व धोखेबाजों से मुक्ति कब मिलेगी ? माँ की पुकार तो जनम-जनम तक आशीर्वाद में गूंजती रहती है। . बेहद शानदार लिखा है आपने
जवाब देंहटाएंदेश पर मर मिटने वाले देश की दुर्गत देख कर जरूर रट होंगे
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
देश पर मर मिटने वाले देश की दुर्गत देख कर जरूर रट होंगे
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना