देह उपल .
*
धार में हम बह नहीं सकते !
उपलमय यह देह,
अटकाती रही हर बार !
तरलता अंतर सिमट कर रह गई -
बरबस बिखर कर
ढह नहीं सकते .
*
हवाओं के साथ ,
कुछ संदेश लहरें दे गईँ ,
लिख छोड़तीं गीली लकीरें .
लौट कर फिर बह गईं .
जमे तट पर ,
फेन औ' स्फार भरते
माटियों के जटिल रूपाकार .
बुद्बुदों में छोडते निश्वास
थिर हो रह नहीं सकते !
*
तलों की रेत मथती है ,
उमड़ते वेग की
असमान गतियों में .
सिहरते,कसकसाते कण उमड़ते ,
फिर समा जाते वहीं चुपचाप .
खुल कर बह नहीं सकते !
*
जमे रहना ही नियति
इस धार को देते सहारे.
जा रहा बढ़ता अरोक प्रवाह ,
जल हिलकोरता
छल- छल सम्हाले .
रुको पल भर -
टेर कर कह यह नहीं सकते,
*
उपलमय यह देह,
सारे बोध पहरेदार .
जागते अटका रहे हर द्वार .
चाहो लाख लेकिन
वेग के उत्ताल नर्तन
झेलते चिर रह नहीं सकते !
साथ में पर ,
बह नहीं सकते !
*
*
धार में हम बह नहीं सकते !
उपलमय यह देह,
अटकाती रही हर बार !
तरलता अंतर सिमट कर रह गई -
बरबस बिखर कर
ढह नहीं सकते .
*
हवाओं के साथ ,
कुछ संदेश लहरें दे गईँ ,
लिख छोड़तीं गीली लकीरें .
लौट कर फिर बह गईं .
जमे तट पर ,
फेन औ' स्फार भरते
माटियों के जटिल रूपाकार .
बुद्बुदों में छोडते निश्वास
थिर हो रह नहीं सकते !
*
तलों की रेत मथती है ,
उमड़ते वेग की
असमान गतियों में .
सिहरते,कसकसाते कण उमड़ते ,
फिर समा जाते वहीं चुपचाप .
खुल कर बह नहीं सकते !
*
जमे रहना ही नियति
इस धार को देते सहारे.
जा रहा बढ़ता अरोक प्रवाह ,
जल हिलकोरता
छल- छल सम्हाले .
रुको पल भर -
टेर कर कह यह नहीं सकते,
*
उपलमय यह देह,
सारे बोध पहरेदार .
जागते अटका रहे हर द्वार .
चाहो लाख लेकिन
वेग के उत्ताल नर्तन
झेलते चिर रह नहीं सकते !
साथ में पर ,
बह नहीं सकते !
*
न धार में बह सकते हैं और न स्थिर रह सकते हैं .... बहुत गहन भाव लिए सोचने पर विवश करती रचना
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंकितना कुछ लेकर कहाँ उड़ सकते हैं, कहाँ बह सकते हैं, बस घिसट सकते हैं।
जवाब देंहटाएंप्रतिभा जी, ...सुंदर भाव युक्त रचना.. उपल का क्या अर्थ है ? वैसे हर कोई सब कुछ तो नहीं कर सकता..जिसको जो सौंपा है काम वही कर ले तो काफी है
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ अनिता जी,
हटाएंउपल = पत्थर .
अजीब कशमकश है...
जवाब देंहटाएंगहरे भाव
बोझ बाँध लेंगें तो गति कम ही होगी ..... गहरी अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंआज न जाने क्यों वक़्त कुछ ठहर सा गया लगता है
जवाब देंहटाएंसुप्रभात माता जी प्रणाम स्वीकारें
चाहत और यथार्थ की कशमकश ......जीवन जितना सरल ...उतना ही कठिन भी ....!!बहुत गहन अभिव्यक्ति है .....सोचने को रुक गया है मन .....!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना ....संग्रहणीय ...!!
बहुत आभार वन्दना जी !
जवाब देंहटाएंमन की अतल गहराई को नापती
जवाब देंहटाएंजीवन क्या है को व्यक्त करती रचना
बधाई
आग्रह है मेरे ब्लॉग का भी अनुसरण करे
http://jyoti-khare.blogspot.in
गहन भाव लिए कविता..
जवाब देंहटाएंजीवन की धारा नित्य प्रवाहित होती रहे,रुके नहीं-इसी में सुख है।
जवाब देंहटाएं"हँस खेलकर जीवन बिताना, दीखता आसान है।
आसान पर मुश्किल बहुत,मुश्किल बड़ी आसान है।।"
जीवन की गहराइयों को छूती सराहनीय रचना।
तरह-तरह का क्लेश निशि भर भोगती रहती देह..लगा कर लहरों से नेह..
जवाब देंहटाएंbadi achchi lagi aapki kavita.....
जवाब देंहटाएंप्रतीकवाद ,छायावाद और दार्शनिकता का बेजोड समन्वय सराहनीय है |
जवाब देंहटाएंअपना अपना धर्म निभाना किसी के लिए बी आसान नहीं होता ... पर प्राकृति कई बार स्वयं ही ये सब करवाती है ...
जवाब देंहटाएंदार्शिनिकता से आध्यात्म की और ले जाती रचना ..
जीवन के तत्थ्य उजागर करती भाव पूर्ण रचना |
जवाब देंहटाएंआशा
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