मंगलवार, 15 जनवरी 2013

दुर्गम्या -


*
कोई तोहमत जड़ दो औरत पर ,
कौन है रोकनेवाला !
कर दो चरित्र हत्या ,
या धर दो कोई आरोप !
हटा दो रास्ते से !
*
हाँ ,वे दौड़ा रहे हैं सड़क पर
'टोनही है यह ',
'नज़र गड़ा चूस लेती है बच्चों का ख़ून!'
उछल-उछल कर पत्थर फेंकते ,
चीख़ते ,पीछे भाग रहे हैं !
खेल रहे हैं अपना खेल !
*
अकेली औरत ,
भागेगी कहाँ भीड़ से !
चोटों से छलकता खून
प्यासे हैं लोग !
सहने की सीमा पार ,
जिजीविषा भभक उठी खा-खा कर वार !
*
भागी नहीं ,चीखी नहीं !
धिक्कार भरी दृष्टि डालती
सीधी खड़ी हो गई
मुख तमतमाया क्रोध-विकृत !
आँखें जल उठीं दप्-दप् !
लौट पड़ी वह !
*
नीचे झुकी, उठा लिया वही पत्थर
आघात जिसका उछाल रहा था रक्त!
भरी आक्रोश
तान कर मारा पीछा करतों पर !
'हाय रे ,चीत्कार उठा ,
मार डाला रे !
भीड़ हतबुद्ध, भयभीत !
*
और दूसरा पत्थर उठाये दौड़ी!
अब पीछा वह कर रही थी ,
भाग रहे थे लोग !
फिर फेंका उसने ,घुमा कर पूरे वेग से !
फिर चीख उटी !
उठाया एक और !
*
भयभीत, भाग रही हैं भीड़ !
कर रही है पीछा
अट्टहास करते हुये
प्रचंड चंडिका !
*
धज्जियां कर डालीं थीं वस्त्रों की
उन लोगों ने ,
नारी-तन बेग़ैरत करने को !
सारी लज्जा दे मारी उन्हीं पर !
पशुओं से क्या लाज ?
ये बातें अब बे-मानी थीं !
*
दौड़ रही है ,निर्भय उनके पीछे ,हाथ में पत्थर लिये
जान लेकर भाग रहे हैं लोग !
भीत ,त्रस्त ,
सब के सब ,एक साथ गिरते-पड़ते ,
अँधाधुंध इधर-उधर !
तितर-बितर !
थूक दिया उसने उन कायरों की पीठ पर !
*
और
श्लथ ,वेदना - विकृत,
रक्त ओढ़े दिगंबरी ,
बैठ गई वहीं धरती पर !
पता नहीं कितनी देर !
फिर उठी , चल दी एक ओर !
*
अगले दिन खोज पड़ी
कहां गई चण्डी ?
कहाँ गायब हो गई?
पूछ रहे थे एक दूसरे से ।
कहीं नहीं थी वह !
*
उधऱ कुयें में उतरा आया मृत शरीर !
दिगंबरा चण्डी को वहन कर सक जो
वहां कोई शिव नहीं था !
सब शव थे !
*

[एक मनोरंजन: एक कौतुक !
*
स्त्री के नाक-कान काटते योद्धाओं की जयकार !
 साल दर साल मंचन ,रक्त बहते तन की  भयंकर पीड़ा से  रोमांचित  भीड़ !
मानी हुई बात  -औरत है, अवगुन आठ सदा उर रहहीं -सतत ताड़ना की अधिकारी ! 
शताब्दियाँ साक्षी हैं इस लीला की !]
- प्रतिभा सक्सेना.
/***
एक पूर्व टिप्पणी -

  1. 'टोनही'......mm...shayad tona totka karne waali hogi....main matlab confirm kar longi kahin se..:)
    Anyways.....
    bahut aam sa drishya hai..bhaarteeya parivesh mein aksar dekhne mil jata hai.....magar kuch cheezein behad khaas lagin......

    सहने की सीमा पार ,
    जिजीविषा भभक उठी खा-खा कर वार

    bahut hi achha laga ye padhkar....bahut zyada anyaay insaan ko maarta kam hai....zyadatr wo unko unki apni shakti pehchanne ki kshamta pradaan karta hai.......ek thresh hold level k baad har naari ablaa se maa kaali ban hi jaati hai.........jeejivisha ka bhabhak uthna...bahut achhi pankti likhi aapne.....

    सारी लज्जा दे मारी उन्हीं पर !
    पशुओं से क्या लाज ?

    lajja de marna...bahut achhi line...

    वहां कोई शिव नहीं था !
    सब शव थे !

    ghazab ka samapan....literally yahi shabd likle the kavita ka ant padhkar....

    ye shiv aur shav ka taalmel yaad rahega Ma'am..
    प्रत्‍युत्तर देंहटाएं


22 टिप्‍पणियां:

  1. माता जी प्रणाम निःशब्द करती रचना प्रवाहमय सत्य को उजागर कर

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  2. औरत मन का सच और सारा दर्द उगलती हुए रचना । आश्चर्य और अफ़सोस कि सदियों से यही और सिर्फ़ यही सत्य है , बदलता ही नहीं

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  3. पशुओं से क्या लाज ?
    ये बातें अब बे-मानी थीं !

    प्रभावी, निशब्द करती रचना

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  4. काश हर चंडी ऐसी की पत्थर मारे अपने हर गाँव में हर नगर में ....सुन्दर रचना...

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  5. उधऱ कुयें में उतरा आया मृत शरीर !
    दिगंबरा चण्डी को वहन कर सक जो
    वहां कोई शिव नहीं था !
    सब शव थे !

    बहुत सुन्दर, यही आज भी दृष्टिगौचर है सर्वत्र !

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  6. वहां कोई शिव नहीं था
    सब शव थे ...

    रोंगटे खड़े हो जाते हैं ... रचना की सच्चाई को झेलना आसान नहीं है ... पर सच है ये ...
    निःशब्द कर जाती है रचना ...

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  7. समाज पर धब्बे सी हैं ये घटनायें और ऐसी मान्यतायें।

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  8. उफ़ ..सदियों से वही आज तक. क्या कभी नहीं बदलेगा कुछ? क्या शिव हैं ही नहीं??

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  9. कैसा दोगला है उस समाज का चरित्र जहां ऐसी घटनाएँ बंद नहीं होतीं..

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  10. बहुत सुंदर
    कभी कभी ऐसी रचनाएं पढने को मिलती हैं

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  11. कटु सत्य को उजागर करती रचना .... जब तक सहती रहे नारी तब तक दबाते हैं वरना कायर बन भाग खड़े होते हैं ..... शिव नहीं बस शव ही बचे हैं ॥मन को उद्वेलित करती रचना

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  12. शिव नहीं बस शव ही बचे हैं.....मन को उद्वेलित करती रचना...एक दोगले समाज की यथोचित तस्वीर.....सार्थक!!!!!!!

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  13. स्त्री विमर्श पर एक अच्छी कविता |आभार

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  14. सदियां बीतीं
    सुनते-सहते
    बीतें सदियां
    कहते-गुनते!

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  15. उधऱ कुयें में उतरा आया मृत शरीर !
    दिगंबरा चण्डी को वहन कर सक जो
    वहां कोई शिव नहीं था !
    सब शव थे ....बेहद प्रभावी रचना

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  16. स्त्री को समझ सकना सबके बस की बात नहीं, क्योंकि भीड़ के पास तार्किक बुद्धि नहीं होती , वह जड़ है ...वह शव है ...

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  17. औरत की पीड़ा को उजागर करती रचना : भाव , भाषा, प्रबाह का अनूठा संगम .
    New post कुछ पता नहीं !!! (द्वितीय भाग )
    New post: कुछ पता नहीं !!!

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  18. शकुन्तला बहादुर17 जनवरी 2013 को 10:04 pm बजे

    तिरस्कार , अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध जब तक नारी का मनोबल उठ कर खड़ा नहीं होगा , उसे इसी प्रकार जीवन जीना दूभर होता रहेगा । अब समय आ गया है कि नारी अपनी शक्ति को पहिचाने और डट कर सामना करे ।
    नारी की पीड़ा को उकेरती इस अत्यन्त मार्मिक रचना ने मन पर गहरा असर छोड़ा है । प्रतिभा जी की सशक्त लेखनी का साधुवाद !!

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  19. jitni baar padhoon man ko jhinjhod jaati hai kavita.shabd-chitr aankhon mein ek film ke jaise chalte hain..samaapan par hriday mein jaane kaun kaun bhaavnaayein aakar vichlit kar rahin hain.
    'shav' kee upma ko mann gunta raha hai..pehle bhi aur aaj bhi..
    atyant sashakt aur saarthak kavita ke liye bahut bahut aabhaar Pratibhajee...
    aasha hai hum sabhi apne apne shav-swaroop astitva mein se pun: shiv-tatv kee praapti karne k liye prayatnsheel hain..aur safal bhi honge..amen!!

    :)

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  20. वहां कोई शिव नहीं था, सब शव थे। स्त्री विमर्श पर एक अच्छी रचना। बधाई और शुभकामनाएं। अगर संभव हो तो एक नजर सुमरनी पर भी डालें। http://sumarnee.blogspot.in/

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  21. हाँ ये होगा रणचंडी बन उतरेगी वह समर में बेहतरीन प्रस्तुति आलोड़ित करती दूर फैंकती सामाजिक जड़त्व और भोथरी मान्यताओं को .

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