दूध- जल कोऊ लाय तुमका समर्पि देय,
नाँगेँ बैठ जहाँ-तहाँ तुरतै न्हाय लेत हो!
लाज करौ कुछू ज्वान लरिकन के बाप भये,
ह्वै के पुरान-पुरुस नेकु ना लजात हो.
*
''ऋद्धि-सिद्धि बहुरियाँ घरै माँ, तहूँ सोचत ना.
भाँग औ'धतूरा बइठ अँगना माँ खात हौ!
लाभ-सुभ बारे पौत्र, निरखत तुम्हार रंग ,
माई री, मैं देखि धरती माँ गड़ी जात हौं !''
*
हँसे नीलकंठ,''जनती हतीं रीं गौरा,फिन
काहे लाग माय-बाप हू की सीख ना सुनी!
तोहरे ही कारन गिरस्थी स्वीकार लई,
काहे हठ धारि लियो मोर दुल्हनियाँ बनी ?
*
''लोग हँसे तो का ,आधे अंग में धरे हों तोहि,
मेरे साथ-साथ तू भी उहै जल न्हाति है,
आध-आध दोऊ जन साथ-साथ देखें सब,
मोर-तोर प्रीत, अइस काहे सरमाति है !''
*
पल्लू मुँह दाबे ,हँसे जाय रहीं पुत्र-वधू ,
ऋद्धि-सिद्धि आँगन तिरीछे से नैन भे,
चौकी पे बैठे गनेस झेंप-खीज भरे,
समुझैं न माय-बाप ही सों जाय का कहैं !
*
प्रतिभा जी,
जवाब देंहटाएंइन मनोरम शब्दों में भोलेशंकर के घर में झाँक लिया मैंने भी जैसे।
कितना मीठा, कितना मनोरम। उस पर से यह भाषाई सौंदर्य।
विशेषकर, गणेश जी का खीजना, अहा!
मन बहुत प्रसन्न हुआ इसे पढ़ कर।
नचारियाँ पहले भी १-२ बार आपके यहाँ ही पढ़ी हैं, बहुत अच्छा लगा इस बार पढ़ना भी।
आभार
शिव शम्भू पर सुन्दर प्रस्तुति ...नचारी के विषय में विस्तार से समझाएं ..
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंसंगीता जी ,
जवाब देंहटाएंनचारी के विषय में कुछ जानकारी -
नचारी को ,मुक्तक काव्य के अन्तर्गत लोक-काव्य की श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। इनका लिखित स्वरूप सर्व प्रथम 'विद्यपति की पदावली' में प्राप्त होता है। इसकी रचना में लोक-भाषा (देसिल बयना ) का प्रयोग और शैली में विनोद एवं व्यंजना पूर्ण विदग्धता , रस को विलक्षण स्वरूप प्रदान कर मन का रंजन करती हैं। सख्य-भाव तक पहुँची हुई अंतरंगता निश्छलता . मुँह लगे सेवक के समान आराध्य से,कहा-सुनी पर भी उतारू हो जाए पर उसके महत्व की स्वीकृति सर्वोपरि. हँसी-ठिठोली ,उपालंभ ,शिकायत सब-कुछ ,निष्ठा के अटूट तार में पिरोया हुआ .नचारी भक्ति- काव्य का ही एक रूप है .
- प्रतिभा सक्सेना.
घरेलू शब्दों का सुन्दर प्रयोग।
जवाब देंहटाएंमेरा मन तो चौथे पद ने विशेष रूप से आकर्षित किया....जितनी बार पढ़ा उतनी ही और पढ़ने की लालसा बढ़ती गयी...भगवान् शिव का समर्पण और प्रेम से सराबोर उत्तर भा गया मन को...
जवाब देंहटाएंभक्ति की पृष्ठभूमि में भगवान् शिव और उनके परिवार का दृश्य बहुत मनोहर लगा...बहुत ही मीठा....
भाषा शिल्प और शब्दों पर सरसरी दृष्टि डाल कर मन भगवान् शिव और माता पार्वती के प्रेम संग जा लगा....भाव प्रधान दृष्टि वहां पड़ी तो फिर हटी नहीं......
पर प्रतिभा जी कौन जाने....हमारे आराध्य इस तरह ही व्यवहार करते हों अपने अपने धाम में..
और नचारी इत्ती अच्छी होतीं हैं?......नचारी की परिभाषा पढ़कर एकबारगी लगा मैं ही नचारी होती काश..!!नचारी पढ़ पढ़ के छोड़ दिया करती थी मैं.....मुझे उसका स्वाद नहीं समझ आता था.......आज मम्मा की बदौलत चलिए समझ आई तो.....नचारी का मूल भाव बहुत बहुत प्यारा लगा.......नए उत्साह से मन को तैयार किया नचारी समझने और पढ़ने के लिए.....
विद्यापति जी के बारे में पढ़ा...एक नचारी उनकी भी कोशिश की पढ़ने की....धीरे धीरे समझ आएँगी शायद......
आभार !