चलो, कहीं निकल चलें !
बँध कर रहें न इन कमरों-के घेरों में ,
दरवाज़े खोलें , चलें खुले आसमान तले!
शाला के बाहर जीवन की कार्यशाला है ,
खुली सभी कक्षाएँ नहीं कहीं ताला है ,
नये पाठ सीखने का मित्र, यही मौका है
नयी दिशा देखने से किसने हमें रोका है
काहे अकेले रहें सभी से हिलें-मिलें!
देखो तो फैली कितनी विशाल धऱती है
हर मौसम में एक नया रूप धऱती है
नई फसल फूल-फल उगाती सँवारती है ,
जीवन के पोषण का हर प्रयास करती है
मिले घनी छाँह , सुने कलरव का गान चलें!
लहराती डालें मनभावन हवाएँ हैं,
झाड़ियों के झुर्मुट है,ललित लताएँ हैं.
फूल वहाँ हँस-हँस बजा रहे हैं तालियाँ
कब से बुला रहे हमें हिला-हिला डालियाँ.
भूतल के वैभव को समझें समीप चलें!
पेड़ फलोंवाले झरबेरियाँ करौंदे भी
आम के टिकोरे और जामुनी फलैंदे भी
तुमने अमरूद कभी,तोड़-तोड़ खाये क्या
इमली शहतूत कैथ तुम्हें नहीं भाये क्या .
देसी फल खरा स्वाद नहले पर दहले
गुलमोहर,अमलतास इनके क्या कहने हैं,
ऐसे सजीले पेड़ पृथ्वी के गहने हैं
खग-मृग सरोवर बड़े ही खूबसूरत हैं
झरने वन पर्वत तो जैसे नियामत हैं
जंगल में मंगल मनायें लग जाय गले
बाहर खुले में कहीं छाँह कहीं धूप है
तोते की टियू-टियू कोयल की कूक है
प्यारी गिलहरी मजे से बैठ जाती है ,
दोनों हाथो में थाम कुतर-कुतर खाती है
शाखों में झूमे परिन्दों के घोंसले !
गोदी में पलते हैं चंचल खरगोश ,हिरन
कैसे विचरते हैं होकर निश्चिंत मगन
देखो गौरैया है, मैना है कबूतर हैं ,
नाचते हैं मोर कहीं नटखट से बन्दर है
जीवित खिलौने हैं वनों में पले खिले
तरल जल तरंगों में आनन्द संगीत चले
धरती उगाती जो ,इनका भी हिस्सा है,
भूख-प्यास सबमें, हम सब का वही किस्सा है
इस तल के जीवन के प्राणी हम सारे हैं
सुख-दुख में ये सब भी संगी हमारे हैं
बाँट कर खायें और सबसे हिलें-मिलें
आस-पास के भी,चलो हल-चाल ज्ञात करें
अपने पड़ोसी से सुख-दुख की बात करें
यहाँ व्यवहार और दुनिया की बातें हैं ,
दिन है परिश्रम का, चाँद सजी रातें हैं
सबसे पहचान बने, स्नेह सहित नाम लें
हर इक दिशा का निराला एक रूप है
धरती की उर्वरा प्रयोजना क्या ख़ूब है
नई फसल फूल-फल उगाती सँवारती है ,
जीवन के पोषण के साधन सँचारती है
सँवलाए आँचल में आस-विश्वास मिले .
सबको पालती है ,मोह-छोह और ममता से
कितनी सहनशील और स्नेहमयी वसुधा है
इस माँ ने माटी से रचा और पाला है
ऋतुओं के शीत-ताप सहकर सँभाला है
हम भी कृतज्ञ रहें ,माने जो सीख मिले
जीवन को कितने जतन से सँवार रही
हर पल हमारे हित साधन विचार रही
अन्न- फल-फूल भरे आँचल में धार हमे
तोष-पोष देती है पल-पल सँवार हमें.
इस उदार धऱणी के और और पास चलें.
उर्वरा ,सुरम्य, स्वस्थ ,सुस्थिर, अचिन्त्य रहे
अपनी वसुन्धरा नित शोभन ,प्रसन्न रहे
शान्ति सद्भाव बढ़े एैसा व्यवहार करें
अपनी धरा को चले नत-शिर प्रणाम करें,
घनी नेह-छाँह मिले मन को विश्राम मिले !
चलो वहीं निकल चलें!
*
८
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (13-07-2022) को चर्चा मंच "सिसक रही अब छाँव है" (चर्चा-अंक 4489) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मैटर सलेक्ट नहीं होता है चर्चा में लेने के लिए। कृपया ताला खोलें।
जवाब देंहटाएंआ.शास्त्री जी,कृपया बताएँ कि ताला कैसे खोलूँ ,मैने नहीं लगाया है अनजाने में हो गया होगा .
हटाएंइतना सुंदर गीत! सम्मोहित हो गया पढ़तेपढ़ते। शाला के बाहर जीवन की कार्यशाला है। बिल्कुल सच कहा आपने। और यही कार्यशाला ही जीना सिखाने वाली शाला है। यह दीर्घ गीत एक असाधारण सृजन है, इसमें कोई संदेह नहीं।
जवाब देंहटाएंवाह वाह वाह!सुंदर
जवाब देंहटाएंयकीनन एक मनमोहक और सुंदर पोस्ट। बहुत दिनों के बाद बेहतरीन पढ़ने का अवसर मिला।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर... वाह!
जवाब देंहटाएंये गीत कैसे राह गया पढ़ने से । बहुत सुंदर भाव लिए हुए ।
जवाब देंहटाएंमुझे भी दिक्कत होती है मैटर लेने में ।
Nice post thank you Trevor
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