*
ज्योति से करतल,
किरण सी अँगुलियों में
मैं तुम्हारा शंख हूँ ,
तुम फूँक भर-भर कर बजाओ !
नाद की झंकार हर आर्वत में भर
उर-विवर आवृत्तियाँ रच-रच जगाओ!
*
परम-काल प्रवाह का बाँधा गया क्षण
तुम्हीं से होता स्वरित मैं सृष्टि स्वन हूँ,
मैं तुम्हारी दिव्यता का सूक्ष्म कण हूँ !
महाकाशों में निनादित आदि स्वर का,
दश दिशाओं में प्रवर्तित गूँजता रव
हो प्रकंपित, अंतरालों में समाये शून्य भर भर !
पंचभौतिक काय में निहितार्थ धारे ,
मैं तुम्हारी अर्चना का लघु कलेवर!
*
फूँक दो वे कण, कि हो जीवन्त मृणता
इस विनश्वर देह में वह गूँज भर दो .
पंचतत्वों के विवर को शब्द दे कर,
आत्म से परमात्म तक संयुक्त कर दो ,
सार्थकत्व प्रदान कर दो !
मैं तुम्हारा शंख हूँ ,
स्वर दे बजाओ !
*
उस परम-चैतन्य पारावार की चिरमग्नता से,
किसी बहकी लहर ने झटका किनारे
और अब -
इस काल की उत्तप्त बालू में
अकेला आ पड़ा हूँ !
उठा लो कर में-
मुझे धो स्वच्छ कर दो ,
भारती माँ , वेदिका पर स्थान दे दो !
फूंक भर भर कर बजाओ आरती में ,
जागरण के मंत्र में
अनुगूँज मेरी भी मिलाओ !
*
मैं ,तुम्हारी चेतना का उच्छलित कण ,
मैं ,तुम्हारा शंख हूँ,
तुम फूँक भर-भऱ कर बजाओ !
मैं तुम्हार अंश हूँ ,
वह दिव्यता स्वर में जगाओ !
***
(पूर्व-रचित)
ज्योति से करतल,
किरण सी अँगुलियों में
मैं तुम्हारा शंख हूँ ,
तुम फूँक भर-भर कर बजाओ !
नाद की झंकार हर आर्वत में भर
उर-विवर आवृत्तियाँ रच-रच जगाओ!
*
परम-काल प्रवाह का बाँधा गया क्षण
तुम्हीं से होता स्वरित मैं सृष्टि स्वन हूँ,
मैं तुम्हारी दिव्यता का सूक्ष्म कण हूँ !
महाकाशों में निनादित आदि स्वर का,
दश दिशाओं में प्रवर्तित गूँजता रव
हो प्रकंपित, अंतरालों में समाये शून्य भर भर !
पंचभौतिक काय में निहितार्थ धारे ,
मैं तुम्हारी अर्चना का लघु कलेवर!
*
फूँक दो वे कण, कि हो जीवन्त मृणता
इस विनश्वर देह में वह गूँज भर दो .
पंचतत्वों के विवर को शब्द दे कर,
आत्म से परमात्म तक संयुक्त कर दो ,
सार्थकत्व प्रदान कर दो !
मैं तुम्हारा शंख हूँ ,
स्वर दे बजाओ !
*
उस परम-चैतन्य पारावार की चिरमग्नता से,
किसी बहकी लहर ने झटका किनारे
और अब -
इस काल की उत्तप्त बालू में
अकेला आ पड़ा हूँ !
उठा लो कर में-
मुझे धो स्वच्छ कर दो ,
भारती माँ , वेदिका पर स्थान दे दो !
फूंक भर भर कर बजाओ आरती में ,
जागरण के मंत्र में
अनुगूँज मेरी भी मिलाओ !
*
मैं ,तुम्हारी चेतना का उच्छलित कण ,
मैं ,तुम्हारा शंख हूँ,
तुम फूँक भर-भऱ कर बजाओ !
मैं तुम्हार अंश हूँ ,
वह दिव्यता स्वर में जगाओ !
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(पूर्व-रचित)
माँ, आपकी कविताओं पर कहने का सामर्थ्य नहीं मेरा. इसलिये बस इतना ही कहना चाहता हूँ कि वन्दना के इन स्वरों में, एक स्वर मेरा मिला लो!
जवाब देंहटाएंवसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ! आशीष प्रदान करें!
वाह !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति। वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंअद्भुत , बहुत सुन्दर स्तुति , शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंनिराला युगीन प्रवाह की यह धार मन को आल्हादित कर गयी ।
जवाब देंहटाएंकृष्ण का पांचजन्य शंख यही है न...यह हमारी देह में छुपा....अध्यात्म की गहरी से गहरी प्रतीति तो यही है ...भीतर का संगीत जाग उठे...वह शंख बज उठे जो परमात्मा के हाथों में सदा ही है पर ...
जवाब देंहटाएंकविता के भावों की अलौकिक सुगंध को संस्कारित शब्दों ने बहुगुणित कर दिया है।
जवाब देंहटाएंबहुत गहन और अद्भुत अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंवंदना के इन स्वरों मिएँ एक स्वर मेरा मिला लो ...
जवाब देंहटाएंसलिल जी के साथ में भी यही कहना चाहता हूँ ... आपका काव्य पढता हूँ तो देर तक सोचता हूँ इतना कलात्मक कैसे लिखा जाता है ...
जन्मदिन पर शुभकामनाऐं ।
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट प्रस्तुति।
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