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बड़े दिनों बाद पंथी आकाश का ,
उत्तर की देहरी-घर आ गया
रात लग गई समेटने में सियाह पट
दिनमान ठाठ से गगन-पट पे छा गया .
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काँपती दिशाओं के हाथ-पाँव खुले और
कोहरे की चादर उतार मुख धो लिये,
बहुतै दिनन बाद फिर अइसा लगा जइस
अड़ी हुई ठिठुरन ने दाँव सभी खो दिये!
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धुले-धुले आंगन चमक के गमक गये ,
सोंध सूँघ ,नये-नये चाउर की -सीझ से.
परसी हुई थाली में भाप भरी खीचरी ,
ऊपर जो छोड़ दिया चमचा भर नेह से-
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कन-कन पिघलता समाता-सुहाता रहा
गैया के दूध का सुनहरा रवेदार घी
लगे अइस अमरित के छींट बिखरा गया,
भरा चाव- तोष देख हो गया निहाल- जी .
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कोरी हँडिया के दही में भीगते बरे,
हींग-ज़ीर-सोंठ भरी भावना लुभा रही
छींट लाल-मिरच देख देख चटपटाय मन
खापें दुइ लाय धरीं आम के अचार की ,
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ताज़ी, खेत की सफ़ेद नरम पात मूलियाँ
आँच- भुने प्लेट धरे पापर भी चुरमुरे
जीभ कुरकुराय भुरभुराय आस्वाद लेत
धनिये की हरी-हरी चटनी और सेंत में!
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लाय धरा तल अंगार, मंसने के हेत जल
देव अगनी को अरप देहु भोग अन्न का
साथ तिल-गुड़ का पाक भी प्रसन्न मन
परसाद बन जाय पोसक कुटुम्ब का
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सारे हाथ-पाँव हाय,तिलकुट की चूर से
न्हाये-धोये बच्चों ने कइस चिपचिपा लिए
उधर अजिया ने उठा लड्डू-गुपाल भी
देखो दही-खीचरी आरोगने बिठा लिए
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दौड़ो रे दौड़ो खिचड़िया सने हाथ से
अरे गोलू ने मेरे गुपलू उठा लिये
ठैर बज्जुरी रे ठैर,महा-उत्पातिया
न्हाये-धोये ठाकुर रे, तूने जुठा दिये .
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लड्डू-गुपाल चुपैचाप मुस्कराय रहे
खाय-खेल रहे छोट बच्चन के साथ ही
आज इस आँगन में सूरज उगा नया ,
हँसी-खिली धूप सी दिवार तक जा बिछी !
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वाह, दावत हो गयी हमारी आपकी कविता पढ़ते..और तो और कुछ रेसिपी भी मिल गयीं...मकर संक्रांति पर सुंदर और हट के रचना...
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शनिवार 17 जनवरी 2015 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति मकरसंक्रांति की बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंमाँ पूरा बचपन उतारकर रख दिया आपने मेरे सामने... मैं अपने बच्चों से अधिक भाग्यवान हूँ कि मैंने यह सब अपनी आँखों से देखा और अपने हाथों से सम्भाला है यह सब!!
जवाब देंहटाएंघर छोड़े एक लम्बा समय बीत गया है माँ. ऐसे में मेरी यह र चना ही मेरे मन की बात कहती है:
सूरज ने मकर राशि में दाखिल होकर
मकर संक्रांति के आने की दी खबर
ईंटों के शहर में
आज बहुत याद आया अपना घर.
गन्ने के रस के उबाल से फैलती हर तरफ
सोंधी-सोंधी वो गुड की वो महँक
कूटे जाते हुए तिल का वो संगीत
साथ देते बेसुरे कंठों का वो सुरीला गीत.
गंगा स्नान और खिचड़ी का वो स्वाद,
रंगीन पतंगों से भरा आकाश
जोश भरी "वोक्काटा" की गूँज
सर्दियों को अलविदा कहने की धूम.
अब तुम्हारा साथ ही त्यौहार जैसा लगता है
तुम्हारे आँखों की चमक दीवाली जैसी
और प्यार के रंगों में होली दिखती है
तुम्हारे गालों का वो काला तिल
जब तुम्हारे होठों के गुड की मिठास में घुलता है
वही दिन मकर-संक्रांति का होता है!
वही दिन मकर-संक्रांति का होता है!!
बहुत मार्मिक अपील है सलिल,कहाँ वह मुक्त परिवेश ,खुले धरती-आकाश के बीच जीवन और प्रकृति का अबाध संबंध ,और कहाँ आज की यह सीमित जीवन-पद्धति -
हटाएं- ठीक है ,रहना इसी में है ,उसे याद करते हुए !
मकर संक्रांति का इससे बेहतर चित्रण भला और क्या हो सकता है। जीवन के पवित्र उल्लास व उमंग भरे गमकने वाले पल को आपने चूड़ा-दही-खिचड़ी में लपेट दिया।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंमकर संक्रांति का बहुत सुंदर चित्रण.
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : लोकतंत्र बनाम कार्टूनतंत्र
इस ललित अभिव्यक्ति ने पुरानी परम्परा को सजीव कर दिया । पढ़ कर मेरे मुँह में तो पानी आ गया । अब तो ये दृश्य प्राय: दुर्लभ से हो गए हैं ।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद !!
वाह , जीवंत रेखांकन
जवाब देंहटाएंनिराले काव्यात्मक अंदाज़ में पूरे बचपन और मकर-सक्रांति के हर पहलू को लिखा है आपने ... सवील लेखन शायद इसी को कहते हैं ... बहुत बहुत बधाई इस रचना और मकर सक्रांति की ...
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