ओ चाँद, जरा धीरे-धीरेनभ में उठना,
कोई शरमीली साध न बाकी रह जाये !
*
किरणों का जाल न फेंको अभी समय है ,
जो स्वप्न खिल रहे ,वे कुम्हला जायेंगे.
ये जिनके प्रथम मिलन की मधु बेला है ,
हँस दोगे तो सचमुच शरमा जायेंगे !
प्रिय की अनन्त मनुहारों से
जो घूँघट अभी खुला है ,तुम झाँक न लेना-
अभी प्रणय का पहला फूल खिला है !
स्वप्निल नयनों को अभी न आन जगाना ,
कानो में प्रिय की बात न आधी रह जाये !
*
पुण्यों के ठेकेदार अभी पहरा देते ,
ये क्योंकि रोशनी अभी उन्हें है अनचीन्हीं !
उनके पापों को ये अँधेर छिपा लेगा ,
जिनके नयनो मे भरी हुई है रंगीनी !
जीवन के कुछ भटके राही लेते होंगे ,
विश्राम कहीं तरुओं के नीचे छाया में ,
है अभी जागने की न यहाँ उनकी बारी ,
खो लेने दो कुछ और स्वप्न की माया में ,
झँप जाने दो चिर -तृषित विश्व की पलकों को ,
मानवता का यह पाप, ढका ही रह जाये !
*
जिनकी फूटी किस्मत में सुख की नींद नहीं ,
आँसू भीगी पलकों को लग जाने देना !
फिर तो काँटे कंकड़ उनके ही लिये बने ,
पर अभी और कुछ देर बहल जाने देना !
यौवन आतप से पहले जिन कंकालों पर
संध्या की गहरी मौन छाँह घिर आती है !
इस अँधियारे में उन्हें ढँका रह जाने दो ,
जिनके तन पर चिन्दी भी आज न बाकी है !
सडकों पर जो कौमार्य पडा है लावारिस ,
ऐसा न हो कि कुछ लाज न बाकी रह जाये !
*
ओ चाँद जरा धीरे-धीरे नभ में उठना ...!
कोई शरमीली साध न बाकी रह जाये !
*
किरणों का जाल न फेंको अभी समय है ,
जो स्वप्न खिल रहे ,वे कुम्हला जायेंगे.
ये जिनके प्रथम मिलन की मधु बेला है ,
हँस दोगे तो सचमुच शरमा जायेंगे !
प्रिय की अनन्त मनुहारों से
जो घूँघट अभी खुला है ,तुम झाँक न लेना-
अभी प्रणय का पहला फूल खिला है !
स्वप्निल नयनों को अभी न आन जगाना ,
कानो में प्रिय की बात न आधी रह जाये !
*
पुण्यों के ठेकेदार अभी पहरा देते ,
ये क्योंकि रोशनी अभी उन्हें है अनचीन्हीं !
उनके पापों को ये अँधेर छिपा लेगा ,
जिनके नयनो मे भरी हुई है रंगीनी !
जीवन के कुछ भटके राही लेते होंगे ,
विश्राम कहीं तरुओं के नीचे छाया में ,
है अभी जागने की न यहाँ उनकी बारी ,
खो लेने दो कुछ और स्वप्न की माया में ,
झँप जाने दो चिर -तृषित विश्व की पलकों को ,
मानवता का यह पाप, ढका ही रह जाये !
*
जिनकी फूटी किस्मत में सुख की नींद नहीं ,
आँसू भीगी पलकों को लग जाने देना !
फिर तो काँटे कंकड़ उनके ही लिये बने ,
पर अभी और कुछ देर बहल जाने देना !
यौवन आतप से पहले जिन कंकालों पर
संध्या की गहरी मौन छाँह घिर आती है !
इस अँधियारे में उन्हें ढँका रह जाने दो ,
जिनके तन पर चिन्दी भी आज न बाकी है !
सडकों पर जो कौमार्य पडा है लावारिस ,
ऐसा न हो कि कुछ लाज न बाकी रह जाये !
*
ओ चाँद जरा धीरे-धीरे नभ में उठना ...!
कविता आगे बढती गयी और मन को उद्वेलित करती गयी. उम्मीद है चाँद ने सब सुना होगा.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंपावन पर्व रक्षाबंधन की असंख्य शुभकामनाएं...
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति...
दिनांक 11/08/2014 की नयी पुरानी हलचल पर आप की रचना भी लिंक की गयी है...
हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...
हलचल में शामिल की गयी सभी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृयाएं दें...
सादर...
कुलदीप ठाकुर
वाह । बहुत सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंवाह ! चाँद के बहाने सारी मानवता का दर्शन करा गया..रक्षा बंधन की शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंअद्भुत भाव संयोजन ......
जवाब देंहटाएंतीनों छंद अलग अलग भावनाओं को मथते हुए ... प्रेम से गुज़रते हुए खुरदरी सहत पर उतर जाती है ...
जवाब देंहटाएंलहरें उठती हैं तो सवाल दर सवाल गिरने लगते हैं। कविता हो तो ऐसी।
जवाब देंहटाएंमाँ... आज मेरे अन्दर का विज्ञान का विद्यार्थी जाग गया है... प्रणय, पाप और पीड़ितों के त्रिपार्श्व पर आपने चाँद की चाँदनी का आपतन दर्शाया है... अपवर्तित किरणों (चाँदनी) का इन्द्रधनुष आपके शब्दों का चमत्कार है, जिसने चाँद को भले आदेश दिया/अनुरोध किया हो कि "ऐ चाँद ज़रा धीरे-धीरे नभ में उठना" किंतु स्वयम आपने सबकुछ स्पष्ट कर दिया, उजागर कर दिया हमारे समक्ष!
जवाब देंहटाएंचरण स्पर्श माँ!
बहुत ही सुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंउम्दा और बेहतरीन... आप को स्वतंत्रता दिवस की बहुत-बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@जब भी सोचूँ अच्छा सोचूँ
bahut sundar prastuti....
जवाब देंहटाएं