*
निर्मल-निर्मल ,उज्ज्वल-उज्ज्वल ,गंगा को बहने दो अविरल !
गिरिराज हिमालय की कन्या , नित पुण्यमयी प्रातःवंद्या,
यह त्रिविध ताप से व्यथित धरा ,उतरी आ कर बन ऋतंभरा.
अंबर-चुंबी शृंगों से चल ,भर नभ-पथ का पावन हिम-जल !
*
जैसे कि फले हों सुव्रत-सुकृत,हम ऋणी ,कृतज्ञ ,हुए उपकृत ,
गिरिमालाओं से अभिषिक्ता ,वन-भू की दिव्यौषधि सिक्ता .
शत धाराओं से भुज भर मिल , कर रही प्रवाहित नेह तरल !
*
जो हरती रहीं कलुष-कल्मष ,इन लहरों में अब घुले न विष ,
तीरथ हैं सुरसरि के दो तट , इस ठौर न हों अब पाप प्रकट.
श्रद्धा-विश्वास पहरुए हों , आस्थामय कर्म बने प्रतिफल !
*
अपने तन-मन की विकृति कथा ,दूषणमय जीवन की जड़ता ,
इस तट मत लाना बंधु, कभी, जल में न घुलें संचित विष-सी,
चिर रहे प्रवाहित पावन जल, गंगा को बहने दो निर्मल !
*
निर्मल-निर्मल,उज्ज्वल-उज्ज्वल,बहने दो जल-धारा अविरल !
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निर्मल-निर्मल ,उज्ज्वल-उज्ज्वल ,गंगा को बहने दो अविरल !
गिरिराज हिमालय की कन्या , नित पुण्यमयी प्रातःवंद्या,
यह त्रिविध ताप से व्यथित धरा ,उतरी आ कर बन ऋतंभरा.
अंबर-चुंबी शृंगों से चल ,भर नभ-पथ का पावन हिम-जल !
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जैसे कि फले हों सुव्रत-सुकृत,हम ऋणी ,कृतज्ञ ,हुए उपकृत ,
गिरिमालाओं से अभिषिक्ता ,वन-भू की दिव्यौषधि सिक्ता .
शत धाराओं से भुज भर मिल , कर रही प्रवाहित नेह तरल !
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जो हरती रहीं कलुष-कल्मष ,इन लहरों में अब घुले न विष ,
तीरथ हैं सुरसरि के दो तट , इस ठौर न हों अब पाप प्रकट.
श्रद्धा-विश्वास पहरुए हों , आस्थामय कर्म बने प्रतिफल !
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अपने तन-मन की विकृति कथा ,दूषणमय जीवन की जड़ता ,
इस तट मत लाना बंधु, कभी, जल में न घुलें संचित विष-सी,
चिर रहे प्रवाहित पावन जल, गंगा को बहने दो निर्मल !
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निर्मल-निर्मल,उज्ज्वल-उज्ज्वल,बहने दो जल-धारा अविरल !
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भावों की यह निर्मल धारा निश्चय ही अपना मुकाम पाये. अति सुन्दर कृति.
जवाब देंहटाएंगंगा अब बहेगी निर्मल और अविरल..नव युग अब आ रहा है..
जवाब देंहटाएंबहती रहे ये निर्मल धारा ..अविरल...कल-कल.....
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर !
सादर
अनु
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंगंगा पर मनोमुग्धकारी अत्यन्त सरस और सार्थक गीतिका पढ़ कर
जवाब देंहटाएंमन प्रफुल्लित होगया । शब्द-चयन और उनकी ध्वन्यात्मकता ने मन में गूँज सी उठा दी । आपकी ये कामना फलीभूत होगी - ऐसा विश्वास है ।
मैं तीन माँओं का बेटा हूँ ऐसा मैंने अपने परिचय में कहा है.. हालाँकि यह बात मेरे गुरु डॉ. राही मासूम रज़ा से मैंने उधार ली है. आप चौथी माँ हैं मेरी... मेरे लिये इस माँ ने मेरी गंगा माँ के लिये जो भी कुछ कहा है बस मेरे हृदय में उतर गया.. मेरा सारा बचपन और कॉलेज के सारे दिन गंगा माँ की गोद में बीते हैं, इसलिये यह कविता मेरे लिये गंगा माँ की तरह पवित्र है! शब्दों का प्रवाह ऐसा प्रतीत होता है मानो शिव की जटा से निकलकर बह रही है यह कविता.
जवाब देंहटाएंबस मेरा प्रणाम स्वीकारें माँ!!
एक तुही धनवान है जिज्जी, बाकी सब कंगाल :)
जवाब देंहटाएंऐसा मत कहो भाई,यहाँ बड़े समर्थ लोग हैं -कितने क्षेत्रों में और व्यक्तित्व संपन्न!
हटाएंबहुत सुन्दर गंगा आराधना ..जय माँ गंगे
जवाब देंहटाएंभ्रमर ५
बहुत सुन्दर शब्द चयन ।।सतीश जी ने सच ही कहा है ।
जवाब देंहटाएंयह पवित्र धारा यूँ ही बहती रहे...बहुत मनभावन प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंक्या ओज है लेखनी में.. जादू भी है.. सुकून भी है.. और भी है बहुत कुछ..
जवाब देंहटाएंशब्दों का प्रवाह गंगा की आस्था सामान सीधे ह्रदय में उतर जाता है ... पर जो स्थिति आज गंगा की है उस पर सभी आस्थावानों को ध्यान देने की जरूरत है ...
जवाब देंहटाएंसम्मोहक शब्द शिल्प से आश्वस्त हुआ ....कि पंत, निराला और महादेवी का युग अभी समाप्त नहीं हुआ । गंगा जी के लिये यह कामना आज की युगीन आवश्यकता है ।
जवाब देंहटाएंसातसमन्दर पार
तुम्हारी गंगा पर श्रद्धा अपार
अभिभूत हुआ मैं बारबार
जब चाहत हो इतनी अपार
तो क्यों न बहेगी निर्मल धार ....क्यों न बहेगी निर्मल धार !
बहुत दिन बाद साहित्य की नदी में डुबकी लगाने का अवसर मिला ।
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंमन को छूती अभिव्यक्ति
सादर -----
वेगवती आज़पूर्ण रचना गंगा की अमृत धार सी प्रांजल शब्द सागर लिए।
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