*
शिरो स्नान कर गीले बदन चल दीं हवाएँ ,
उधर पूरव दिशा में जल-महोत्सव चल रहा होगा !
*
बिखरते जा रहे उलझे टपकते केश काँधे पर
दिशाओं में अँधेरा रेशमी फैला ,
सिमट कर रोक लेती
सिक्त पट की जकड़ती लिपटन,
उठा पग थाम कर बढ़ने नहीं देता!
*
सिहरते पारदर्शी गात की आभा नहीं छिपती
दमक कर बिजलियों सी
कौंध जाती चकित नयनों में ,
दिशाएँ चौंक जातीं ,
दृष्य-पट सा खोलकर सहसा
हवा चलती कि पायल-सी झनक जाती.
*
रँगों की झलक छलकी पड़ रही
श्यामल घटाओं में ,
कि ऋतु का नृत्य- नाटक ,
पावसी परिधान ले सारे
वहाँ का मंच अभिनय से जगा होगा !
*
मृदंगों के घहरते स्वर ,
उमड़ते आ रहे रव भर.
वहाँ उन मदपियों की रंगशाला में,
शिरो स्नान कर गीले बदन चल दीं हवाएँ ,
उधर पूरव दिशा में जल-महोत्सव चल रहा होगा !
*
बिखरते जा रहे उलझे टपकते केश काँधे पर
दिशाओं में अँधेरा रेशमी फैला ,
सिमट कर रोक लेती
सिक्त पट की जकड़ती लिपटन,
उठा पग थाम कर बढ़ने नहीं देता!
*
सिहरते पारदर्शी गात की आभा नहीं छिपती
दमक कर बिजलियों सी
कौंध जाती चकित नयनों में ,
दिशाएँ चौंक जातीं ,
दृष्य-पट सा खोलकर सहसा
हवा चलती कि पायल-सी झनक जाती.
*
रँगों की झलक छलकी पड़ रही
श्यामल घटाओं में ,
कि ऋतु का नृत्य- नाटक ,
पावसी परिधान ले सारे
वहाँ का मंच अभिनय से जगा होगा !
*
मृदंगों के घहरते स्वर ,
उमड़ते आ रहे रव भर.
वहाँ उन मदपियों की रंगशाला में,
उठा मल्हार का सुर
दूर तक चढ़ता गया होगा !
महोत्सव चल रहा होगा !
*
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(13-7-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..आभार
जवाब देंहटाएंप्रतिभा जी, कुछ ऐसे ही भाव मेरे भीतर उठे उस दिन जब हम संध्या भ्रमण को गये और लौटे तो भीग कर, आज ही उन्ही भावों को मैंने भी पोस्ट किया है, आखिर अद्वैत सिद्ध हो गया न..
जवाब देंहटाएंसुन्दर वर्णन ।
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत सुन्दर...बरसात की सीली हवायें...भावों को भी नम कर जाती हैं।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंरिमझिम फुहारे मन को भावों से भर देता है -बहुत सुन्दर!
latest post केदारनाथ में प्रलय (२)
आपने वर्षा ऋतू को नये आयाम दे दिये .
जवाब देंहटाएंनिम्न पंक्तियाँ आप को समर्पित ...
सुगंधी टाँकता हर ओर
कुसुम-दल खिल रहा होगा
हवायें चल पड़ी जिस ओर
महोत्सव चल रहा होगा
खूबसूरत भाव, बेहतरीन रचना.
जवाब देंहटाएंरामराम.
ah ha ...maansoon aa gaya :)
जवाब देंहटाएंवाह बहुत ही खूबसूरत वर्णन
जवाब देंहटाएंVery appealing creation !
जवाब देंहटाएंवाह क्या बात है ...
जवाब देंहटाएंआप की कवितायें एक वातावरण सृजित करती हैं !
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना और बहुत सुंदर अभिव्यक्ति .....!!
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट रचना ..... अरविन्दजी की बात से सहमत हूँ, आपकी रचनाएँ कहीं गहरे उतरती हैं
जवाब देंहटाएंसुंदर वर्णन..
जवाब देंहटाएंमाता जी प्रणाम जल महोत्सव की पञ्चम अन्विति अद्भुत भावों को दर्शाती
जवाब देंहटाएंsunder paribhashit kiya hai aapne ..badhiya
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ....
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंशब्द कृति से जल महोत्सव को जैसे केनवस पे चित्रित कर दिया ... बाँध लिया हो जैसे घन के उमड़ते उस पल को ...
जवाब देंहटाएंअरे दूसरी टिप्पणी कहाँ गई ...
जवाब देंहटाएंइतनी खूबसूरत कवितायें यहाँ दुर्लभ हैं ..
जवाब देंहटाएंसादर !!
इतनी सुन्दर कविता कि क्या कहूं! ह्रदय मोर सा नाच उठा!
जवाब देंहटाएंआप बस यूं ही लिखती रहे और हम यूं ही पढ़ते रहे!
आपकी 'सद्य स्नाता' याद आ गई!
कुछ बिम्ब एकदम नवीन!
सादर शार्दुला
नूतन बिम्बों से सुसज्जित,पावसी दृश्य की इस अनूठी अभिव्यक्ति के लालित्य में मन भावविभोर होउठा। साधुवाद !!
जवाब देंहटाएंविलम्ब से पढ़ पाने का खेद है।
चित्र सच मच सद्य स्नाता मुग्धा का है कविता का है या कामिनी का है -सत्य ही रहता नहीं ये ध्यान तुम कविता ,कुसुम या कामिनी हो ,सद्य स्नाता कामिनी को मूर्त करती है यह पोस्ट .ओम शान्ति
जवाब देंहटाएंbahut hi sundar bhav pravan kavita, shabd chitra roop dharan kar man me nritya kar uthe ho mano. ati sundar, bahut badhai .
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंकिसी गड़बड़ी के कारण यह पोस्ट दो बार प्रसारित हो गयी थी इसी कारण से यह परेशानी आई ...पर अब सब ठीक है .........ब्लॉग सब की प्रतिक्रिया के इंतज़ार में
@ संजय
क्या बात है शिप्रा जी इस जलमहोत्सव में सराबोर हो गये । बेहद सुंदर कविता ।
जवाब देंहटाएंतो आशा जी ,आपने आज फिर मझे'शिप्रा'नाम से पुकारा - स्वीकार !
हटाएंkhubsoort...
जवाब देंहटाएंstabdh kar dene wala sondarryaa!!!!