कहाँ हो ,घनश्याम मन मोहन कहाँ हो !
*
हो कहाँ विषण्ण मन के पार्थ-सारथि,
कर रही विचलित विरत-पथ हो भ्रमित मति .
देह के दुख -व्याध ,अंतर की तपन के,
शान्ति-चंदन,नंद के नंदन ,कहाँ हो !
कहाँ हो घनश्याम ,जीवन- धन कहाँ हो !
*
ले चलो उस लोक ,जाग्रत हो वृन्दावन ,
शाप-पाप धुलें जनम भर के अपावन,
वासनाएं घुल चलें जिस श्याम रँग में ,
हे परम विश्रान्तियों के क्षण कहां हो !
कहाँ हो घनश्याम !
*
अवधि बीतेगी तुम्हारा नाम लेते ,
रेत के मृगजलाशय में प्यास बोते ,
मोरपंखी घन-घटा शीतल सुरंजन,
विकल नयनों के अमल अंजन कहाँ हो !
*
कहाँ हो हे कृष्ण,प्राप्य परम कहाँ हो ! !
कहाँ हो घनश्याम !!!
कहाँ गए घनश्याम ..??
जवाब देंहटाएंमंगल कामनाएं आपको !
हारे को हरिनाम, चलने की ख्वाहिश में भी हरिनाम
जवाब देंहटाएंसुध लो घनश्याम..
जवाब देंहटाएंsunenge purakar ghanshyam aur jaroor aayenge.
जवाब देंहटाएंवाह....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ...
सादर
अनु
अवधि बीतेगी तुम्हारा नाम लेते ,
जवाब देंहटाएंरेत के मृगजलाशय में प्यास बोते ,
मोरपंखी घन-घटा शीतल सुरंजन,
विकल नयनों के अमल अंजन कहाँ हो !
माता जी प्रणाम . हरि को भजै सो हरि का होय .
अद्भुत अनोखा भगवत प्रेम
कोई भी युग हो
जवाब देंहटाएंजहाँ भी अर्जुन है
वही कृष्ण आज भी उपलब्ध है !
बहुत सुन्दर...आभार
जवाब देंहटाएंमनमोहक अभिव्यक्ति..... सुंदर शब्द संयोजन
जवाब देंहटाएंदृग मेरे पथरा चले
जवाब देंहटाएंकदम भी लड़खड़ा रहे
हौंसलो की सांस टूटी,
अब तो आ जाओ
कोई भी रूप भरकर सांवरे !
बढिया रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
अवधि बीतेगी तुम्हारा नाम लेते ,
जवाब देंहटाएंरेत के मृगजलाशय में प्यास बोते ,
मोरपंखी घन-घटा शीतल सुरंजन,
विकल नयनों के अमल अंजन कहाँ हो !
man se ki gayee pukaar
"ले चलो उस लोक----------हे परम विश्रान्तियों के क्षण कहाँ हो ! कहाँ हो घनश्याम !
जवाब देंहटाएंभक्ति में डूबी ये पुकार मन को भाव-विभोर कर देती है । सुन्दर भावांजलि के लिये साधुवाद !
बहुत मनोहर शीतल काव्य एक भाव रचता सा ..
जवाब देंहटाएंमनभावन गीत।
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट रचना..
जवाब देंहटाएंहो कहाँ विषण्ण मन के पार्थ-सारथि,
जवाब देंहटाएंकर रही विचलित विरत-पथ हो भ्रमित मति .
देह के दुख -व्याध ,अंतर की तपन के,
लगता है कष्टों से व्याकुल जन मन की पुकार को आपने अपने शब्द दे दिए हैं । अच्छी रचना।
जवाब देंहटाएंअवधि बीतेगी तुम्हारा नाम लेते ,
रेत के मृगजलाशय में प्यास बोते ,
मोरपंखी घन-घटा शीतल सुरंजन,
विकल नयनों के अमल अंजन कहाँ हो
कविता अच्छी लगी एवं अभिव्यक्ति का सलीका भी प्रभावित कर गया।। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।
आदरणीया प्रतिभा जी
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद पढ़ने का अवकाश मिल पाया है। आपके ब्लॉग से सुन्दर और कोई जगह नहीं है पढ़ने की। अभी देखा कितनी ही नई प्रेरणादायक कवितायें विद्यमान हैं। आज यहाँ से कुछ लेकर जाऊँगा।
सादर
प्रताप
जवाब देंहटाएंअवधि बीतेगी तुम्हारा नाम लेते ,
रेत के मृगजलाशय में प्यास बोते ,
मोरपंखी घन-घटा शीतल सुरंजन,
विकल नयनों के अमल अंजन कहाँ हो
बेहद सुंदर मनभावन रचना । आर्त भाव छलक रहे हैं ।