*
एक पग को टेक तिरछी नृत्य की मुद्रा बनाये.
ऊष्ण शीत सुबंध, विषुवत् मेखला कटि में सजाये
देह के हर लास्य का लालित्य वर्तुल द्वीप खाड़ी ,
हरित अँगिया मखमली सागर लहरती नील साड़ी.
*
ऋत नियम धारे, धरे हो , सृष्टि का अनिवार्य यह क्रम
घूम भर भऱ लट्टूओँ सा, ललित लीला लोल नर्तन ,
सूर्य उत्तर और दक्षिण अयन रह रह कर निहारे
सप्त-विंशति कलायें धर चन्द्रमा आरति उतारे
*
नित नये परिधान ले ऋतुयें बनी परिचारिकायें ,
गमन का पथ घेर चलतीं व्योम की नीहारिकायें.
इस अपरिमित नील के विस्तार में लीला-विलासिनि ,
अवनि देवि वसुन्धरे ,हरि-पत्नि प्रकृति की सुकृति तुम
*
अनगिनत उडुगन तुम्हारे पंथ पर दीपक जलाये ,
सप्तऋषि देते परिक्रम, अटल ध्रुव माथे सजाये.
हवाओं के रुख तुम्हारे इंगितों पर हो विवर्तित
घाटियों में शंख ध्वनि भऱ गिरि- शिखर हर छोर गुँजित.
*
शुक्ल-कृष्ण द्विपक्षिणी धीमे उतरतीं रात्रियाँ जब
विभुमयी होकर दिशाओं में कुहक-सा पूरतीं नव
चँवर लहराता चतुर्दिश घूमता पवमान चंचल
मेघ-मालायें उढ़ायें बिजलियों से खचित आँचल ,
*
ताप हरने के लिये भर-भर अँजलियाँ अर्घ्य का जल
रजतवर्णी राशि हिम की कहीं,, मरुथल कहीं वनथल ,
सप्त द्वीप सुशोभिता, पयधार मय पर्वत अटल दृढ़
घाटियाँ ,मैदान, सर, सरिता, सहित गिरि-शृंखला धर ,
*
खग-मृगों से सेविता ,गुँजित गगन रंजित दिशांगन ,
जन्म लेने जहाँ लालायित रंहे हरदम अमरगण .
अंतरिक्षों की प्रवाहित व्योम गंगा में थिरकती ,
नील द्युति धारे गगन की वीथियों को दीप्त करतीं
*
वृक्ष नत-शिर पुष्प-पल्लव प्रीति हेतु तुम्हें चढ़ाते
खग-कुलों के गान ,स्तुति मंत्र की शब्दावली से
नित नये आकार रचतीं ,पोसतीं, विस्तारतीं तुम
काल की गलमाल को दे दान, नित्य सँवारतीं तुम .
*
एक पग को टेक तिरछी नृत्य की मुद्रा बनाये.
ऊष्ण शीत सुबंध, विषुवत् मेखला कटि में सजाये
देह के हर लास्य का लालित्य वर्तुल द्वीप खाड़ी ,
हरित अँगिया मखमली सागर लहरती नील साड़ी.
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ऋत नियम धारे, धरे हो , सृष्टि का अनिवार्य यह क्रम
घूम भर भऱ लट्टूओँ सा, ललित लीला लोल नर्तन ,
सूर्य उत्तर और दक्षिण अयन रह रह कर निहारे
सप्त-विंशति कलायें धर चन्द्रमा आरति उतारे
*
नित नये परिधान ले ऋतुयें बनी परिचारिकायें ,
गमन का पथ घेर चलतीं व्योम की नीहारिकायें.
इस अपरिमित नील के विस्तार में लीला-विलासिनि ,
अवनि देवि वसुन्धरे ,हरि-पत्नि प्रकृति की सुकृति तुम
*
अनगिनत उडुगन तुम्हारे पंथ पर दीपक जलाये ,
सप्तऋषि देते परिक्रम, अटल ध्रुव माथे सजाये.
हवाओं के रुख तुम्हारे इंगितों पर हो विवर्तित
घाटियों में शंख ध्वनि भऱ गिरि- शिखर हर छोर गुँजित.
*
शुक्ल-कृष्ण द्विपक्षिणी धीमे उतरतीं रात्रियाँ जब
विभुमयी होकर दिशाओं में कुहक-सा पूरतीं नव
चँवर लहराता चतुर्दिश घूमता पवमान चंचल
मेघ-मालायें उढ़ायें बिजलियों से खचित आँचल ,
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ताप हरने के लिये भर-भर अँजलियाँ अर्घ्य का जल
रजतवर्णी राशि हिम की कहीं,, मरुथल कहीं वनथल ,
सप्त द्वीप सुशोभिता, पयधार मय पर्वत अटल दृढ़
घाटियाँ ,मैदान, सर, सरिता, सहित गिरि-शृंखला धर ,
*
खग-मृगों से सेविता ,गुँजित गगन रंजित दिशांगन ,
जन्म लेने जहाँ लालायित रंहे हरदम अमरगण .
अंतरिक्षों की प्रवाहित व्योम गंगा में थिरकती ,
नील द्युति धारे गगन की वीथियों को दीप्त करतीं
*
वृक्ष नत-शिर पुष्प-पल्लव प्रीति हेतु तुम्हें चढ़ाते
खग-कुलों के गान ,स्तुति मंत्र की शब्दावली से
नित नये आकार रचतीं ,पोसतीं, विस्तारतीं तुम
काल की गलमाल को दे दान, नित्य सँवारतीं तुम .
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अहा, ऐसा पहले कभी नहीं पढ़ा, प्रणाम।
जवाब देंहटाएंपहली ही पंक्ति सुख दे गयी ढेर सा। आगे के सारे शब्द सुखदायी छवि लेकर अपने अपने क्रम से उपस्थित होते रहे।पूरी कविता ने आँखों को मन को तृप्त किया।
जवाब देंहटाएंसाथ-साथ ही आपकी ''गगन ने धरा से कहा एक दिन..'' रचना भी याद आती रही।
आभार प्रतिभा जी..एक और सुंदर रचना के लिए :)
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जवाब देंहटाएंऋत नियम धारे, धरे हो , सृष्टि का अनिवार्य यह क्रम
घूम भर भऱ लट्टूओँ सा ललित लीला लोल नर्तन ,
सूर्य उत्तर और दक्षिण अयन रह रह कर निहारे
सप्त-विंशति कलायें धर चन्द्रमा आरति उतारे...
उत्कृष्ट कविता का रसास्वादन कर रहे हैं.....
आभार।
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मन तृप्त हुआ .. बहुत सुन्दर .. नमन
जवाब देंहटाएंआपकी इन और इस तरह की कविताओं को पढ़कर एक युग जी जाता हूं मैं।
जवाब देंहटाएंब्लॉग जगत को ये आपकी अमूल्य देन है।
बहुत ही खुबसूरत रचना ...
जवाब देंहटाएंआभार !!
जैसा तरु दीदी ने कहा , वही शब्द हैं मेरे भी।
जवाब देंहटाएंकितना रसमय, कितना मोहक, कितना उजला!!
मन तृप्त हुआ।
शब्दों की ऐसी जादूगरी! अति सुन्दर!
जवाब देंहटाएंवृक्ष नत-शिर पुष्प-पल्लव प्रीति हेतु तुम्हें चढ़ाते
जवाब देंहटाएंखग-कुलों के गान ,स्तुति मंत्र की शब्दावली से
नित नये आकार रचतीं ,पोसतीं, विस्तारतीं तुम
काल की गलमाल को दे दान, नित्य सँवारतीं तुम
आपकी कविता में भावों का सामंजस्य एवं शब्दों का चयन बहुत अच्छा लगा । धन्यवाद । मेरे पोस्ट पर आपका निमंत्रण है ।
बहुत सुन्दर ... वाह :)
जवाब देंहटाएंई-मेल द्वारा प्राप्त शकुन्तला जी का कथन -
जवाब देंहटाएं'इस रचना के संबंध में कुछ भी कह पाने का सामर्थ्य मुझमें नहीं है।
उदात्त भावों में सभी कुछ समेटती हुई ये वन्दना मन पर छा गई। सुललित
सरस भाषा में भावों की ये मनोमुग्धकारी अभिव्यक्ति अत्यन्त प्रभावी एवं
सशक्त है। किन पंक्तियों को उद्धृत करूँ किन्हें नहीं? समझ नहीं पा रही हूँ।
इस अद्भुत "भू-वन्दना" ने मुझे पूर्णरूपेण रससिक्त और अभिभूत कर दिया।
इसे पढ़कर मुझे अथर्ववेद के "पृथिवीसूक्त" की याद हो आई।
"माता भूमिः,पुत्रोsहं पृथिव्याः।" वहाँ भी सूक्त के सभी मंत्रों में संपूर्ण प्राकृतिक
सुषमा का मनोहारी चित्रण है।
इस आनन्दातिरेक के लिये आभारी हूँ।'
-शकुन्तला