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ग्रंथियों के बंध से कर मुक्त तुमने
काठ थी सूखी, कि रच-रच कर सँवारा ,
रंध्र, रच ,जड़ सुप्त उर के द्वार खोले
राग से भर कर मुझे तुमने पुकारा,
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पोरुओं से परस, कैसा तंत्र साधा
कर दिया तुमने सकारथ वेदना को ,
मंत्र जाग्रत कर दिया फिर-फिर स्वरित कर ,
दीप्ति दी , धुँधला रही-सी चेतना को .
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जुड़ गई जिस क्षण तुम्हारी दिव्यता से
देह की जड़ता जकड़ किस भाँति पाये ,
नहीं कुछ भी व्यापता तन्मय हृदय को
बोध तो सारे तुम्हीं में जा समाये .
* ,
बाह्य से हो कर विमुख अंतस्थता में
डूब कर ही तो व्यथा से त्राण पाया ,
आत्म-विस्मृति से उबर किस भाँति पाऊँ,
उच्छलित आनन्द जब उर में समाया .
*
पात्रता दी राग भर अपना तुम्हीं ने ,
साध कर अपने करों में मान्यता दी .
बावली मति धार सिर, आश्वस्ति दे दी
सरस अधरों से परस कर धन्यता दी.
*
फूँक दे तुमने कि मोहन मंत्र साधा
गा उठीं जीवन्त हो कर तंत्रिकायें ,
भर दिये उर में अचिर अनुराग के कण
नाच उठतीं मोरपंखी चंद्रिकायें .
*
चल रहा अभिचार यह कैसा तुम्हारा,
प्राण , वीणा से सतत झंकारते हैं ,
उमड़ आते ज्वार ,मानस के जलधि में,
तोड़ते तटबंध तुम्हें पुकारते हैं .
*
फिर वही स्वर जागते अंतरभुवन में,
रास राका ज्योत्स्ना जमुना किनारे .
प्रेम का संदेश जब भी गूँज भरता ,
तुम्ही -तुम हर ओर शत-शत रूप धारे .
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वंश की लघु- खंडता से मुक्ति दे,
अवरुद्ध अंतर-वासना तुमने सँवारी .
पूर्णता पाई तुम्हारे अंग से लग ,
चिर-सुहागिन, बाँसुरी मैं हूँ तुम्हारी !
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बांसुरी के भावों को रसयुक्त शब्द दिए हैं ... बहुत सुन्दर प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंWaah!
जवाब देंहटाएंPahle padh loon baar baar, fir likhungi :)
sadar shardula
बार बार पढ़ने लायक कविता !
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावों से सुवासित !
आभार !
राग तुम्हारे स्वरों में भर दे बाँसुरी।
जवाब देंहटाएंsunder nirmal prem ras me pagi rachna.
जवाब देंहटाएंअदभुत,मनोहारी ,अनुपम.
जवाब देंहटाएंआपकी प्रतिभा का कमाल है,प्रतिभा जी.
शानदार प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार.
मेरे ब्लॉग पर आप आयीं, बहुत अच्छा लगा मुझे.
एक बार फिर आईयेगा.नई पोस्ट जारी की है.
पात्रता दी राग भर अपना तुम्हीं ने ,
जवाब देंहटाएंसाध कर अपने करों में मान्यता दी .
बावली मति धार सिर, आश्वस्ति दे दी
सरस अधरों से परस कर धन्यता दी.
आप एक युग का प्रतिनिधि करती हैं। इस तरह की रचना अब बीते दिनों की बात हो गई है। पर जो माधुर्य इनमें है वह आज की अकविता में कहां ...
पात्रता दी राग भर अपना तुम्हीं ने ,
जवाब देंहटाएंसाध कर अपने करों में मान्यता दी .
बावली मति धार सिर, आश्वस्ति दे दी
सरस अधरों से परस कर धन्यता दी.
वंश की लघु- खंडता से मुक्ति दे,
उन्मुक्त अंतर-वासना तुमने सँवारी .
पूर्णता पाई तुम्हारे अंग से लग ,
चिर-सुहागिन बाँसुरी हूँ मैं तुम्हारी !
अनुपम
अत्यंत मनमोहक, मुग्ध कर देने वाली कविता।
जवाब देंहटाएंविषय-भाव-काव्य-शिल्प-सौन्दर्य अनुपम!
आनंद विभोर karti है आपकी ये रचना .आभार
जवाब देंहटाएंBHARTIY NARI
पात्रता दी राग भर अपना तुम्हीं ने ,
जवाब देंहटाएंसाध कर अपने करों में मान्यता दी .
बावली मति धार सिर, आश्वस्ति दे दी
सरस अधरों से परस कर धन्यता दी.
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आपकी काव्य रचना के आगे नतमस्तक हूँ।
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बहुत खूब..सुन्दर रचना, प्रभावशाली पंक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंरस-माधुरी की फुहार सी छोड़ती "बाँसुरी"कविता विलम्ब से पढ़ सकी।
जवाब देंहटाएंनन्हीं सी बाँसुरी ने श्रीकृष्ण के सरस अधरों पर सुशोभित होकर जो दिव्यता प्राप्त की ,उसकी अद्भुत छवि बिखराती ये रचना मनोमुग्धकारी
है।एक अनुपम रसीली अभिव्यक्ति !!!मैं अभिभूत हूँ,प्रतिभा जी!