'पति खा के धतूरा ,पी के भंगा ,भीख माँगो रहो अधनंगा ,
ऊपर से मचाये हुडदंगा , ये सिरचढ़ी गंगा !'
फुलाये मुँह पारवती !
*
'मेरे ससुरे से सँभली न गंगा ,मनमानी है विकट तरंगा ,
मेरी साली है, तेरी ही बहिना ,देख कहनी -अकहनी मत कहना !
समुन्दर को दे आऊँगा !'
*
'रहे भूत पिशाचन संगा ,तन चढा भसम का रंगा ,
और ऊपर लपेटे भुजंगा ,फिरे है ज्यों मलंगा !'
सोच में है पारवती !
*
'तू माँस-सुरा* पे राजी ,मेरे भोजन पे कोप करे देवी .
मैंने भसम किया था अनंगा ,पर धार लिया तुझे अंगा !
शंका न कर पारवती !'
*
'जग पलता पा मेरी भिक्षा ,मैं तो योगी हूँ ,कोई ना इच्छा ,
ये भूत औट परेत कहाँ जायें ,सारी धरती को इनसे बचाये ,
भसम गति देही की !'
*
बस तू ही है मेरी भवानी ,तू ही तन में में औ' मन में समानी ,
फिर काहे को भुलानी भरम में ,सारी सृष्टि है तेरी शरण में !
कुढ़े काहे को पारवती !'
*
'मैं तो जनम-जनम शिव तेरी ,और कोई भी साध नहीं मेरी !
जो है जगती का तारनहारा , पार कैसे मैं पाऊँ तुम्हारा !'
मगन हुई पारवती !
*
(* शाक्तमत में सुरा&;मांस विहित है)
ऊपर से मचाये हुडदंगा , ये सिरचढ़ी गंगा !'
फुलाये मुँह पारवती !
*
'मेरे ससुरे से सँभली न गंगा ,मनमानी है विकट तरंगा ,
मेरी साली है, तेरी ही बहिना ,देख कहनी -अकहनी मत कहना !
समुन्दर को दे आऊँगा !'
*
'रहे भूत पिशाचन संगा ,तन चढा भसम का रंगा ,
और ऊपर लपेटे भुजंगा ,फिरे है ज्यों मलंगा !'
सोच में है पारवती !
*
'तू माँस-सुरा* पे राजी ,मेरे भोजन पे कोप करे देवी .
मैंने भसम किया था अनंगा ,पर धार लिया तुझे अंगा !
शंका न कर पारवती !'
*
'जग पलता पा मेरी भिक्षा ,मैं तो योगी हूँ ,कोई ना इच्छा ,
ये भूत औट परेत कहाँ जायें ,सारी धरती को इनसे बचाये ,
भसम गति देही की !'
*
बस तू ही है मेरी भवानी ,तू ही तन में में औ' मन में समानी ,
फिर काहे को भुलानी भरम में ,सारी सृष्टि है तेरी शरण में !
कुढ़े काहे को पारवती !'
*
'मैं तो जनम-जनम शिव तेरी ,और कोई भी साध नहीं मेरी !
जो है जगती का तारनहारा , पार कैसे मैं पाऊँ तुम्हारा !'
मगन हुई पारवती !
*
(* शाक्तमत में सुरा&;मांस विहित है)
शिव -पार्वती की बढ़िया नोक झोंक
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर संवाद।
जवाब देंहटाएंवाह ! अद्भुत भक्ति गीत रचना के लिए आभार ! डूब कर पढने में बड़ा आनंद आया ! शुभकामनायें आपको !
जवाब देंहटाएंस्त्री पुरुष का झगडा और मान मनोव्वल भी आदि हैं .तरोताज़ा कर दिया आपकी कविता ने .शुभ कामनाएं .
जवाब देंहटाएंवर्षों तक काशी में गँगा किनारे देखी शिवरात्रि स्मरण हो आई।
जवाब देंहटाएं'पति खा के धतूरा ,पी के भंगा ,भीख माँगो रहो अधनंगा ,
ऊपर से मचाये हुडदंगा , ये सिरचढ़ी गंगा !'
फुलाये मुँह पारवती !
यह शब्दावली अत्यंत सुख देती है।
आभार
पति खा के धतूरा ,पी के भंगा ,भीख माँगो रहो अधनंगा ,
जवाब देंहटाएंऊपर से मचाये हुडदंगा , ये सिरचढ़ी गंगा !'
फुलाये मुँह पारवती !
प्रेम पगी पंक्तियाँ अंतर्मन को स्पर्श करती हैं !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
सभी कणिकाएँ बहुत शानदार हैं!
जवाब देंहटाएंअतीव सुन्दर संवाद बधाई हो
जवाब देंहटाएंआपकी इस लेखन कला को इस बालक का प्रणाम स्वीकार करे.
- अमन अग्रवाल "मारवाड़ी"
amanagarwalmarwari.blogspot.com
marwarikavya.blogspot.com
bouth he aacha blog hai ji...
जवाब देंहटाएंDear Friends Pleace Visit My Blog Thanx...
Lyrics Mantra
Music Bol
मेल नहीं मिल पायी है, गूगल में संभवतः कोई दिक्कत है अभी.
जवाब देंहटाएंआपको मेल किया है, वहीँ सन्देश फिर से लिख दें.
एक सार्थक रचना !
जवाब देंहटाएंवाह!! वाह!!! पौराणिक संदर्भ में शिव-पार्वती की ये नोक-झोंक
जवाब देंहटाएंबरबस हास्य-रस की फुहारें छोड़ गयी। लोकभाषा ने अतिरिक्त मिठास घोल दी। बड़ा आनन्द आया। मन मुग्ध हो गया ।
पहली दफ़े ये कविता पढ़ी थी तब बहुत बहुत रोचक और अचरज भरा अनुभव था...भगवान् शिव के लिए ऐसी कविता नहीं पढ़ी थी ना इसलिए...:).....आपकी रचनाओं में बहुत जगह शिव पार्वती दिखे....
जवाब देंहटाएंबहुत मीठी सी लगी ये नोक-झोंक.....कोई रस ले लेकर इसे गा पाए तो सुनने में मज़ा दुगुना हो जायेगा...:)