शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

मक्खियाँ ---

*
कितनी मक्खियाँ उड़ रही हैं !
नहीं ये कविताएं हैं ,
पत्रिकाओं पर जम जाने के लिए -मिठाई हो जैसे !
हाथ हिलाता परेशान संपादक बेचारा ,
जितनी हटाओ और उड़ आती हैं ,
एक बार मे कितनी-कितनी !
सबसे आसान काम - कविता लिख डालो ,
दूसरे लोग हैं न सोचने को समझने को !
शब्द ?
डिक्शनरी उठा लो ,जितने चाहो छाँट लो !
तुक मिलाना जरूरी नहीं !
जो लिखो- वाह !वाह !
विज्ञापन से बची किसी खाली जगह को
भरने के काम आ जाय बस काफ़ी है !
*

5 टिप्‍पणियां:

  1. आज ना छंद है ना ताल है
    तभी हम जैसे कवियों का यह हाल है
    भाव से ज्यादा विचार आते हैं
    और यही विचार औरों को रुलाते हैं
    पर क्या करें ?
    अपनी भडास तो निकल जाती है
    और हर भड़ास
    आज कल कविता कहलाती है.. :):)

    बहुत सुन्दर लिखा है....सटीक...

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  2. वाह! ये तरक़ीब दिमाग में आई ही नहीं कभी....सच ही तो है..शब्द आसानी से उपलब्ध हैं....:o:o

    बहुत तीखा व्यंग्य ! :)

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