शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

विश्वशान्ति -

थम गई हैं विश्व की आँखें ,
यहीं इन्सानियत की क्षीण साँसें चल रही हैं !
प्रति निमिष के सात युग पलकें उठाता
डोलता विश्वास आँखें जल रही हैं !
आज मानवता सिहरती ,
आज जीवन ले रहा निश्वास गहरी,
आज अंबर पूछता मैं किस प्रलय का मंच हूँ ,
यह शून्य की आँखें बनी हैं आज प्रहरी !
आज सिसकी भर रही संस्कृति
सृष्टि का उल्लास बेसुध सा पडा है ऍ
स्वयं मानव के करों में प्रलय है ,
सृष्टा स्वयं विस्मित खडा है !
*
दीप धरा के बुझ जायेंगे ,
जलने की अंतिम सीमा के पार क्षार ही शेष बचेगी ,
विश्व-शान्ति का व्यंग्य रूप ,
मानवता की सीमाओं का उपहास उडाती ,!
और प्रकृति के हाथ उठायेंगे मानवता का शव !
नीर ढालता दैन्यभरा सृष्टा का वैभव !
कफन बनेगी क्षार और श्मशानभूमि होगी यह धरती !
उस अथाह नीलाभ गगन से बरसेंगे दो बूँद
कि ले कर कौन चले जीवन की अर्थी !
मौन,शान्,निष्प्राण धरा पर तब ,सुरमय ये गान न होंगे !
धरती का वह रूप कि जिसमें
पतन और उत्थान न होंगे १
तारों का वह लोक धरा को विस्मित सा होकर ताकेगा !
मानवता के चिर प्रयाम के बाद ,
निर्जन ,निर्जीवन ,भू-तल का वृत्त शून्य चक्कर काटेगा !
*

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.

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  2. PRIY PRITBHA
    HINDI KI JAISE SHUBR SHABDAWALI AAPKE PAS HAI BAHUT KAM DEKHNE KO MILATI HAI LEKIN AAPKI RACHNAYEN BAHUT LAMBI HONE KE KARAN AAKARSHAN KHO DETI HAIN ... LEKHAN KE SANDARBH MEIN EK HI SUTR KO DYAN MEIN RAKHIYE... SANKSHIPTTA AUR SAMPRESHNIYTA KA SANTULAN BANATE HUE SANKET MEIN SOUNDARY KA SRIJAN .. SAMBHAVNAYEN AAPME BAHUT UJJWAL HAIN ...

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  4. उस अथाह नीलाभ गगन से बरसेंगे दो बूँद
    कि ले कर कौन चले जीवन की अर्थी !

    बहुत बहुत खूब है दूसरी वाली पंक्ति.....जब जब पर्यावरण बचाओ सम्बन्धी विषयों में इस बाबत कुछ चर्चा सुनूंगी.......ये पंक्तियाँ याद आती रहेंगी.....बेहद खूबसूरत लगा इन पंक्तियों में उकेरा गया दृश्य.....जैसे जीवन rahit धरती पर मूक प्रकृति स्तब्ध मौन हो कुछ सोच रही हो..असमंजस में पड़ी हो.........

    ''स्वयं मानव के करों में प्रलय है ,''
    ..हम्म...:( है तो....अब क्या कहा जाए इस पर !

    ''और प्रकृति के हाथ उठायेंगे मानवता का शव !''

    'मानवता' की जगह ''मानव' होना चाहिए......सुनामी और भूकंप के बाद यही शब्द सटीक लगता है इस पंक्ति में.....जिस तरह से परमाणु विस्फोटों का जवाब दिया है प्रकृति ने एशिया में...उसे देख कर यही लगता है.......

    बहरहाल,
    एक बहुत ही जागरूक कविता .....सब कुछ एक ही कविता में समेट डाला....ह्म्म्म...बस प्रकृति की तरफ से भी एकाध पंक्तियाँ होतीं कविता में (मनुष्य के कार्यों के विरोध में) तो दुगुना आनंद आता......:)

    आभार इस कविता के लिए..प्रतिभा जी!

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