मानव रचना का वृहत् कार्य कर ,सृष्टि निरख हो कर प्रसन्न.
अति तुष्टमना सृष्टा लीलामयि सहचरि के साथ मग्न
देखा कि मनुज हो सहज तृप्त, हो महाप्रकृति के प्रति कृतज्ञ
आनन्द सहित सब जीवों से सहभाव बना रहता सयत्न .
वन, पर्वत, सरिता, गग,न पवन से साँमंजस्य बना संतत,
ऋतुओं से ,कालविभागों के अनुकूल सदा नियमित संयत
जड़-चेतनमय जग जीवन को करता चलता सादर स्वीकृत,
तब विधना धरती के मानव से बोल उठा यों स्नेह सहित -
मानव तुम मुक्त विहार करो यह सब अधीन हैं संरक्षित
इन सब के साथ चले जीवन, सबका हित ही हो अपना हित.
ये गिरि मालाएँ वन शाद्वल,ये हरित द्रोणियाँ ,उच्च शिखर
तुम इन सबके संरक्षक हो, जगजीवन हो सुखमय सुन्दर.
वसुधा कुटुम्ब है, जड़-चेतन.संसार यही है सर्वभूत,
तू जी, औरों को जीने दे ,सुविधाएँ सबके हित प्रभूत.
नत-शीश मनुज बोला, उपकृत हूँ पा इतनी सार्थ्य देव!
हम महाप्रकृति की संतानें लघुतम या दीर्घाकार जीव.
हो गयी धरा वरदानमयी ,फिर चलने लगा सृष्टि का क्रम,
सीखता रहा धीरे-धीरे सुखमय जीवन का कर उपक्रम.
सदियाँ बीतीं, होता जाता था वह प्रबुद्ध औ' कर्म-कुशल,
लेकिन अति सुख-सुविधाओँ का लोभी बनकर हो गया विकल.
तब शेष जगत के लिए मनुज होता ही गया सँवेदहीन,
अधिकाधिक अधिकारों के हित औरों का हिस्सा रहा छीन.
अति हुई और हिल उठी धरा ,आकाश थरथरा गया सहम,
सागर उफनाए रुद्ध दिशाएँ आर्तनाद से भरा पवन.
भऱ अहंकार में लगा रहा कैसे अनिष्ट के महादाँव.
हो चकित विधाता देख रहा क्या बदल गया मानव-स्वभाव!
हो रम्य प्रकृति से दूर ,सृष्टि का अनुशासन कर रहा भंग,
स्वच्छंद और अतिचारी होता जाता है दिन-दिन प्रचंड.
चर-अचर सभी पर मनमाना अपना अधिकार अबाध मान
व्यवहार-क्रूरता औ' अनीति से कर देता कम्पायमान.
भूधर की रीढ़ें तोड़-फोड़ ,जल के स्रोतों में ज़हर घोल,
आकाश दिशाएँ धुआँ-धुआँ,भूगर्भों तक गहरे खखोल.
बेचारे पशुपक्षी निरीह, वञ्चित अशरण हो गए दीन,
आतंक मनुज का छाया प्रकृति मलीन,विवश अति शान्तिहीन.
अब तो इतना चढ़ गया, आदमी हुआ आदमी का बैरी ,
अपने विनाश का कारक ही बन बैठा चालें चल गहरी.
भृकुटी टेढ़ी कर विधना ने तब लिखी मनुज के लिए मियति ,
अब तक तू ही तू रहा ,किन्तु अब कर पापों का प्रायश्चित्.
बेबस निरीह, तन-मन से रोगी,परम विकल ज्यों शापग्रस्त.
तू नेपथ्यों में रह जा कर यह विश्व हो सके पुनः स्वस्थ.
रे घोर पातकी, तेरे पापों ने जो दूषण फैलाया है
उसके निस्तारण हेतु प्रकृति का निर्णय सम्मुख आया है.
अपने जीवन का समाधान अब तो तुझ पर ही है निर्भर
संयत-संयम धर सुधर या कि फिर घिसट एड़ियाँ रगड़-रगड़!
सब-कुछ पाकर भी चूक गया ,सब किया धरा हो गया वृथा.
मानव की यह विकास-गाथा या कहें पतन की विषम-कथा?
इस कालचक्र के घूर्णन में ,नव उदय, विकास, समापन दे
अविराम कथाएं रचती रहती नियति नटी अपने क्रम से!
- प्रतिभा सक्सेना.
सुन्दर सृजन |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंमानव को अपनी करनी का फल अब नित्य होती प्राकृतिक आपदाओं में मिल रहा है किंतु अब भी वह संभल नहीं रहा है, शायद अभी उसे और विनाश लीला का साक्षी बनना है
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर संदेश देती अनुपम रचना,
जवाब देंहटाएंपर हम इंसान आदत से मजबूर, प्रकृति के इशारों को अनदेखा करते रहते।