शब्द बीज हैं!
बिखर जाते हैं,
जिस माटी में ,
उगा देते हैं कुछ न कुछ.
संवेदित, ऊष्मोर्जित
रस पगा बीज कुलबुलाता
फूट पड़ता ,
रचता नई सृष्टि के अंकन !
*
शब्द मंत्र हैं,
उच्चरित-गुञ्जित
अंतराग्नि में आहुतियाँ देते
चलता रहे जीवन-यज्ञ!
फिर-फिर हरियाये धरा.
जीवन-गंध बाँटे पवन
विश्व-मंगल और ,
सृष्टि का नव-नवोन्मीलन!
*
वाह
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंज्यादा जगह छूट गई है अनुच्छेद के बाद | ठीक कर लें |
हटाएंअति सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ३ सितम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
धन्यवाद,श्वेता जी.
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह! बेहतरीन!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंशब्दों से उपजे आनंद का छंद ! सुखद अनुभूति, प्रतिभा जी। नमस्ते।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंआपके शब्द मोहक हैं
मोह जाते हैं मन को।
शब्द बीज है शब्द मन्त्र है ...
जवाब देंहटाएंगागर में सागर तो शब्द ही है ... ये आदि है अनादी है अंत है अनंत भी है ...