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शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

मौसम की वर्दी

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तुम बार-बार क्यों लौट  रही हो सर्दी ,
कोहरा तो भाग गया , दे अपनी अर्जी.
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गद्दे रजाइयाँ सभी खा चुके धूपें ,
बक्से में जाने से बस थोड़ा चूके
हमने भी अपनी जाकेट धो कर धर दी,
तुमने यों आकर कैसी मुश्किल कर दी.
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ये तीन महीने बीते सी-सी करते,
अब जाकर तन के बोझ हुए थे हलके,
सुबहों  में जल्दी लगा जागने सूरज,
नदियाँ प्रसन्न हो गईं हटा कर चादर.    
फैलाओ अब मत  अपनी दहशतगर्दी.
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शिवरात्रि आ रही पीने दो ठंडाई, 
घोटेंगे भाँग सिलों पर लोग-लुगाई .
तुम नाक बहाती, खाँसी-खुर्रा लेकर ,
क्यों घूम रही हो यहाँ लगाती चक्कर,
आराम करो, मत लादो अपनी मर्ज़ी. 
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दिन बड़ा हो गया आने को है होली ,
मौसम में जैसे घुली भाँग की गोली.
त्योहारों को ऐसे मत धता बताओ, 
बुढ़िया माई,कंबल  ओढ़ो सो जाओ,

मौसम भी बदल चुका है अपनी वर्दी!
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मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

घास हँसती है .

घास हँसती है .
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ओस की बूँदें बिछा राँगोलियाँ पूरीं ,हरित पट पर लिख दिये नव-रूप  के अंकन 
महकता चंदन लगा  पुलकित पराग धरे,  पूर  चुटकी से कहीं हल्दी कहीं  कुंकुंम
सूर्यमुखियों के बहुत लघु संस्करण हुए , छत्र साजे  पीतवर्णी पाँखुरी मंडल 
खिल उठे अनयास इस एकान्त की लय में ,प्रार्थना करते हुए -से वन्य ये शतदल 
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  धरा का आँचल धुला-सा नम हुआ रहता, बाँसुरी-सी भोर की  सरगम खनक जाती
 टार्च चमका पूर्व से आ झाँकता सूरज  वनस्पतियाँ कुनमुना कर  पलक झपकातीं
 यह लुनाई ,सुघरताई यह प्रणत मुद्रा लिख गई मृदु भावना  के व्यक्त पुष्पाक्षर 
चित्रकारी कर सजाया  रेशमी रंग ले , वाग्देवी के पधारें चरण  इस तल पर .
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धवल वसना दिव्यता का अवतरण क्षिति पर, किरण-किरण पराग स्वर्णिम ,शुभ्र कमलासन
घास का सौभाग्य,हर तृण पुलक से पूरित , हंस और मयूर उतरेंगे इसी आँगन .
रंगशाला खोल मधु-ऋतु कर रही सज्जा ,तिलक केशर का लगा कर निरखती अपलक 
फूल पग-पग पर बिछाये पाँवड़े रच कर ,पाग बाँधे द्वार पर  तैय्यार टेसू तक.
*दूर तक फैली हुई कोमल गलीचे सी , दूब अपनी धन्यता का भास करती है ,
घास हँसती है !
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