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रविवार, 30 अक्टूबर 2016

दीपों का अभिनन्दन -


*

इस भू-लक्षमी् की पूजा में तत्पर हो , 
जो दीप जग रहे सरहद की देहरी पर ,
वे दूर-दूर तक रोशन करें दिशायें ,
जन-जन के उर की  स्नेह -धार से सिंच कर  .

नव ऊर्जा से आवेगित  स्फीत  शिराएँ ,
सामर्थ्य-शौर्य की गूँजें नई कथायें 
जय-श्री दाहिने हस्त ,विघ्नहर संयुत, 
 हो वाम पार्श्व में अजिता , रिपु  थर्राए  .

 अपने उन  रण  दीपों के अभिनन्दन को ,
हम बढ़ें पुष्प-अक्षत की अंजलि ले कर !
इस भू-लक्ष्मी की पूजा में तत्पर हो , 
जो दीप जग रहे सरहद की देहरी पर !
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शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2016

धिक्कार -

*

धिक्कार नं. 1.
तोड़ा घर बाँटा आँगन भी बाप कर लिये दूजे
अनजानी गैरों की  धरती को तीरथ कह पूजे  
गर्भनाल उनके बापों की अब भी जहाँ गड़ी है   
 हीन मनों में उस धरती के प्रति यों घृणा भरी है  .

 पुरखों को नकार  भागे थे ये कृतघ्न औ कायर 
अपने सारे सच झुठला देते हैं जिल्लत सह कर .
अरे, अभी उनकी तो  नानी यहीं  कहीं पर होगी -
 ऐसी औलादों पर अपने करम कूटती  रोती.

युग-युग के संस्कार भूल बन बैठे कैसे बर्बर,
हम ही जियें पूर्व पुरुषों के नाम-निशान मिटा कर ,
अर्जित ज्ञान ,कला विद्यायें औऱ सभ्यता-संस्कृति 
उनके लिये व्यर्थ हो जातीं ,पशुवत् हो जिनकी मति .

सब अस्तित्व  मिटा डालेंगे धरोहरी कृतियाँ भी ,
इतिहासों के पृष्ठ साक्षी देते उन अतियों की .
धिक्, ऐसे लोगों पर जो इंसानी शक्लें धारे 
प्यास खून की लिये हुये ,मानवता के हत्यारे .

जन्नत इनके लिये जहाँ पर  हूरें मिलें बहत्तर ,
ऊपर से गिलमा-लौंडों की भीड़ खड़ी हो तत्पर .
अब तो मिलें शहद की नदियाँ ,हूरें हों गिलमा हों 
ऐसी मेहर होय अल्ला की हरदम रँग-रलियां हों 

एक बार उकसा कर हव्वा ने हमें यहाँ ला डाला 
किन्तु अक्ल पर हम जड़ देते अल्ला वाला ताला 
सारी मर्यादा नरत्व की तोड़-तोड़ फेंकी है, 
आपस में लड़ मरो  धरित्री  तुम्हें शाप देती है.

यह उन्माद कहाँ ले जायेगा ,क्या  दे पायेगा  ,
सदियाँ धिक्कारेंगी तुमको, समय बीत जायेगा 
क्या थे ,क्या हो गये ,पीढ़ियाँ झोंक रहे दोज़ख में ,
सोचो ज़रा कहाँ जाते हो यदि मानव हो सच में !

*
धिक्कार नं. 2.
और यहाँ पर आस्तीन के साँप पले हैं घर में 
काँटे बिछा रहे जो आगे बढ़ती हुई डगर में.
उड़ा रहे जो थूक वतन पे मर मिटनेवालों पर .
 हर छींटा बन जाय तमाचा उनके ही  गालों पर .

आँखों और अक्ल पर चर्बी चढ़ी हुई जो, छाँटें.
कैसा व्रत है कठिन ,जरा वे देखें स्वयं निभा के .
खा-खा जिस पर  पले उसी माटी को खूँद रहे हैं 
अपनों पर कर वार ,पराये हाथों कूद रहे हैं  .

 माँ के आंचल की कालिख बन मद में झूम रहे हैं 
अब तक इस धरती पर छुट्टे कैसे घूम रहे हैं . 
 ऐसे नमक-हरामी,जाने क्यों पैदा हो जाते 
जिस धरती पर पलें उसी पर विष के बीज उगाते  .

जहाँ निरापद दाँव देखते आक्रामक बन जाते 
जोखिम देख  भागते सच से अपनी दुमें दबा के 
इनकी अगर सुनो तो कानो में पड़ जायें छाले, 
इनकी  ढपली अलग बजे इनके सब खेल निराले  

फिफ़्थ-कालमी बाज़ नहीं अपनी हरकत से आते , 
हाथ बँटाने  के अवसर , दुश्मन से हाथ मिलाते,
जनवादी ,समवादी बनते ,धूर्त-बुद्धि धिक् उनकी 
लानत उस प्रबुद्धता पर  , धिक्-धिक् ऐसे परपंची.
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बुधवार, 12 अक्टूबर 2016

ओ मेरे चिर अंतर्यामी !


तप-तप कर हो गई  अपर्णा, जिनके हित नगराज कुमारी ,
कहाँ तुम्हारे पुण्य-चरण ,मैं कहाँ ,जनम की भटकी-हारी!
*
कहीं शान्त तरु की छाया में बैठे होगे आसन मारे,
मूँदे नयन शान्त औ'निश्छल , गरल कंठ शशि माथे धारे ,
और जटाओं से हर-हर कर झरती हो गंगा की धारा ,
मलय-पवन-कण इन्द्रधनुष बन करते हों अभिषेक तुम्हारा!
ऐसा रूप तुम्हारा पावन , ओ मेरे चिर अंतर्यामी,
कुछ सार्थकता पा ले जीवन छू कर  शीतल छाँह तुम्हारी !
*
हिमगिरि के अभिषिक्त अरण्यों की हरीतिमा के उपभोगी,
हिमकन्या को अर्ध-अंग में धरे परम भोगी औ'योगी,
जीत मनोभव ,मनो-भावनाओं के आशुतोष तुम दाता,
परम-प्रिया दाक्षायनि के सुध -बुध खोये तुम  प्रेम वियोगी !
बन नटराज समाये निज में  अमिय-कोश भी, कालकूट भी
चरम ध्रुवों के धारक, परम निरामय, निस्पृह, निरहंकारी !
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तापों में तप-तप कर कब से अंतर का आकुल स्वर टेरे
शीतल -शिखरों की छाया में धन्य हो उठें साँझ-सवेरे.
रति-रोदन से विगलित  पूर्णकाम करने की कथा पुरानी,
आशुतोष बन कितनों को  वरदान दे चुके औघड़दानी,
सभी यहाँ का छोड़  यहीं पर ,आसक्तियाँ तुम्हें अर्पित कर
मुक्ति विभ्रमों से पा ले  मति मेरी ऐहिकता की मारी
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तपःपूत वनखंड कि जिस पर  जगदंबा के सँग विचरे हो ,
गहन- नील नभ तले  पावनी गंगा के आंचल लहरे हों ,
उन्हीं तटों पर कर दूँ अपना सारा आगत  तुम्हें समर्पित ,
भूत भस्म  हो , विद्यमान पर तव शुभ-ऐक्षण के पहरे हों,
अब मत वंचित करो  प्रवाहित होने दो करुणा कल्याणी ,
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अवश कामना मेरी पर  ,अतुलित शुभकर सामर्थ्य तुम्हारी !
कहाँ तुम्हारे पुण्य-चरण ,मैं जनम-जनम की भटकी-हारी!
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सोमवार, 3 अक्टूबर 2016

मातृभूमि के वीर जवानों से


(मातृभूमि की रक्षा में सतत तत्पर हमारे वीर जवानों के लिये जब कोई आपत्तिजनक भाषा बोलता है तो अंतर उद्वेलित हो उठता है. इस देश की प्रत्येक माँ के हृदय  में अपने व्रती पुत्रों के प्रति जो भाव उमड़ते हैं उन्हें व्यक्त करने का एक प्रयास है यह कविता ..)

मातृभूमि के वीर जवानों से ....

ज़रा झुको तो वत्स, भाल पर मंगल तिलक लगा दूँ 
उमड़े  अंतर के भीगे  आशीषों से नहला दूँ .
उन्नत भास्वर भाल भानु का जिस पर तेज निछावर 
अंकित कर दूँ वहीं यशस्वी जय के संकेताक्षर .

कृती, तुम्हारी ओर नीति है ,न्याय, मनुजता का सच,
कितना संयम रख तुमने स्वीकारा वीरोचित व्रत.
मेरा दृढ़ दाहिना अँगूठा परसे चक्र तुम्हारा,
रंध्र-रंध्र से फूट चले नव-ऊर्जाओं की धारा .
 ले लूँ  सभी बलायें अक्षत-कण धर दूँ चुटकी भर 

द्विधाहीन मन  जो निश्चय  कर डाले वही अटल है ,
तुम न अकेले साथ  सदा मानव-सत्यों का बल है 
 यहाँ  हमीं को निबटाना है पले हुये साँपों को
 भितरघात करते द्रोही  इन  धरती के पापों को 
 शेष न रहने देंगे अब  ऐसे  पामर इस भू पर .

जननी की ममता तुम पर हो छाँह बनी सी  छाई
बहनों के कच्चे धागों में कितनी आन समाई ,
वीर तुम्हारी प्रिया विकल हो पथ हेरे जब  पल-पल ,
युद्धभूमि में उद्धत बनी जवानी तोड़े रिपुबल 
आज हिसाब चुका लेने का मिला प्रतीक्षित अवसर .

हर संकट में व्याकुल हो धरती ने तुम्हें पुकारा ,
व्रती,तुरत आगे बढ़ तुमने हर-विधि हमें उबारा .
कष्टों भरा विषम जीवन जी बने रहे तुम प्रहरी ,
मातृभूमि के लिये  हृदय में धारे निष्ठा गहरी .
अपने सारे पुण्यों का फल आज लुटा दूँ तुम पर !

कृती, प्रभंजन हार चले चरणों की गति के आगे ,
देख पराक्रम थिर न रहे बैरी का अंतर काँपे .
 मत्त चंडिका झूम उठे  पा  अरिमुंडों की माला,
शत्रु स्तब्ध रह जाय कि किससे आज पड़ गया पाला 
 गूँज रहा हो 'जय-जय-जय' की ध्वनि से सारा अंबर !

सिर ऊँचाकर  लौटो , कुशल मनाएँ यह मन पल-पल ,
नयनों के स्नेहाश्रु करें ओ व्रती , तुम्हारा मंगल  !
फिर दीवाली हो,घर-घर फुलझड़ियाँ  खील-बताशे ,
तुम आओ, यश की गाथायें चलें तुम्हारे आगे .
बिछा हुआ मेरा स्नेहांचल  वत्स, तुम्हारे पथ पर .
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- प्रतिभा सक्सेना