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मंगलवार, 22 जुलाई 2014

तुम कहो ...

तुम अपनी अंतर्व्यथा कहो!

*
जब वाष्प कंठ तक भर आये, 

वाणी जब साथ न दे पाये,
छाये विषाद कोहरा बनकर , तब छलक नयन से सजल बहो  !

*
शब्दों में अर्थ न समा सके, 

सारे सुख जिस क्षण वृथा लगें,
मन गुमसुम अपने में डूबे , वह घन-भावन अन्यथा न हो !

*
 श्वासों की तपन विकल कर दे ,

सब जोग-जतन निष्फल कर दे ,
रुकना पड़ जाए अनायास, पर मौन-अधूरी कथा कहो !

*

15 टिप्‍पणियां:

  1. अचक्स्ह्छी रचना है ! भावप्रधान सम्बोधन |

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  2. वह मौन अधूरी कथा कहो ...
    अनुपम ... हर छंद पे वाह वाह और लाजवाब ही निकलता है ...
    बहुत ही सुन्दर ...

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  3. भावपूर्ण और गीतिमय रचना..

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  4. क्या बात है माँ!! आज कुछ भी नहीं रहा कहने को! जितनी सरलता से आपने कहा है कहने को उसके बाद कुछ कहने को रह ही नहीं जाता!! सिम्प्ली मेस्मेराइज़िंग!!

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  5. एक सहज-सरल जिंदगी में डूबती -उतराती कहानी जैसी।
    हम खुशकिस्मत हैं कि आपकी रचनाएं पढ़ रहे हैं।

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  6. शकुन्तला बहादुर23 जुलाई 2014 को 6:24 pm बजे

    इस छोटे से भावपूर्ण गीत में अतिशय आत्मीयता की अभिव्यक्ति और प्रतीति मन पर छा गई है । इसी पर कुछ भी कहने में असमर्थ हूँ । अन्तर्मन में इसको अनुंभव ही किया जा सकता है । तुम कहो .......

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  7. वाह ..... मन को विश्वास दिलाते भाव .....

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  8. आह.. सुकून सा आ जाता है आपकी रचनाएं पढकर .

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  9. अति सुन्दर ...ये कथा कहो..अहो ..अहो..अहो...

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  10. बहुत ही सुन्दर और गहरे भावों से सजी अभिव्यक्ति । सचमुच जब अनुभूतियाँ घनीभूत हो जाएं तब अभिव्यक्ति अनिवार्य है ।

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  11. सही कहा...इसे बांधना ठीक नहीं .....कवि मन को तृप्त करती हुई रचना.

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