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गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

वास्ता

*
सिहर उठी सृष्टि ,
धुरी पर घूमते पिण्ड सहम  गये ,
श्री-हत दिशाएँ,
स्तब्ध हवाएँ ,  
एक वीभत्स वार -
सद्य-जात कंठ की घुटी चीख ,
पीड़ा से मरोड़ खाती नन्हीं देह छोड़
उड़ते प्राण-पखेरू !
 *
 प्रकृति की सर्वोत्कृष्ट कारीगरी 
मिल गई मिट्टी में 
धरा के अंतस्तल से उठी कराह  ,
 छाती चीरती एक और दरार डाल  गई . 
 एक लड़की इस दुनिया में  रहे ,न रहे  ,
  किसी को क्या फ़र्क पड़ता है!
*
बची रह जाती, 
क्या पता, तो भी
 दो-चार भूखे नर-पशुओँ की शिकार बन नुचती ,
भट्टी में फुँकती या तेज़ाब से दहती . 
कौन रोकने-टोकनेवाला .
स्वयं को पुरुष कहता पशु ,
नारी की देह कैसे छोड़ सकता है!
अपनी मनमानी कर 
कर्ज़ वसूलेगा जीवन भर .
किराए पर उठाए ,बेचे, नचाये ,
जी भरे तो धमकी-
चली जाओ, चाहे जहाँ ,
आजिज़ आ गया हूँ तुमसे.
अच्छी तरह जानता है-
जायेगी कहाँ ?
सिर छिपाने को  कोई घर नहीं उसका  
अपनी कोई जगह नहीं ,
दीन बनी  रहेगी यहीं .
अपने हित का जुआ 
स्त्री के काँधे धर  
बिलकुल निश्चिंत !

*
पर तभी तक 
ओ नारी ,
 जब तक तुम भरमाई हो.
 जागती नहीं, चेतती नहीं,
मिथ्यादर्शों का लबादा ओढ़ दुबकी हो, 
परंपरा की गहरी खाई में .
*
 जागो,
उठ खड़ी हो!  
वह निरा दंभी
 कुछ नहीं कर सकेगा  , 
अहंकारी हो कितना भी 
अपने आप में क्या  है,
समझो,
फिर पहचानो अपना स्वरूप! 
*
किसका भय ?
तुम दुर्बल  नहीं ,
तुम विवश नहीं ,
तुम नगण्य नहीं
धरा की सृष्टा,
निज को पहचानो !
*
अतिचारों का  कैंसर,
पनप रहा दिन-दिन, 
विकृत  सड़न फैलाता .
निष्क्रिय करना होगा 
तुम्हें ही  वार करना होगा   ,
निरामय सृजन के
दायित्व का
वास्ता तुमको .
*
 लोरी भर जीवन-मंत्र ,
 पीढ़ियाँ पोसता आँचल-भरा अमृत-तंत्र धर,
कोख को लजाना मत !
 रहो शीष उठाए  
अपने सहज, अकुंठित स्वरूप में ,
अन्यथा विषगाँठ का पसरता दूषण,
और धरती का छीजता तन ,
मृत पिंड सा 
अंतरिक्ष में टूट -बिखर 
विलीन हो जाएगा !
*

20 टिप्‍पणियां:

  1. कई लोगों ने इस विषय पर अपने आलेख, कहानियों और कविताओं में अपने विचार रखे हैं और इसकी खुलकर भर्त्सना की है. किंतु आपकी यह कविता शब्दों के चयन के कारण (जो आपकी विशेषता है) कुछ अलग से कह रही है, एक नया दृष्टिकोण, एक नया परिदृष्य और एक नए सिरे से सोचने को विवश करती हुई!
    इस विषय पर भाषणबाजी और बड़ी-बड़ी बातें करने वाली रचनाएँ ही मिली हैं, किंतु इस कविता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह ऐसा कुछ नहीं करती, केवल आईना दिखाती है समाज को. ऐसा आईना जो समतल है, किंतु इसमें बनने वाली अकृति विकृत है, भयानक है!
    भाषा, सांस्कृतिक से सरलीकृत होती चली गई है! (क्षमा चाहता हूँ, माँ!) बहुत सुन्दर कविता!!

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    1. ये 'क्षमा' की बात यहाँ ,कहाँ से आ गई ?एक ओर लिखते हैं - '... छमा-उमा त हमरा डिक्सनरी में हइये नहीं है!!'
      तो फिर 'बेधड़क हो के लिखते रहिये...'
      (ये भी आपही के शब्द दोहरा रही हूँ ).

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  2. दर्दनाक ,मार्मिक मगर सत्य चित्रण !!

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  3. बोलो, नहीं तो क्षुब्ध प्रकृति अपने स्वर में बोलेगी।

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  4. समाज का एक क्रूर सत्य..अब समय आ गया है जब नारी को अपनी शक्ति जगानी होगी..अपने अस्तित्त्व की रक्षा के लिए लड़ना होगा

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  5. पढ़ते हुए खून खौल उठा , भुजाएं फड़कने लगी है.. एक-एक स्त्री को झझकोरने का संकल्प ...

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  6. अत्यंत ही मार्मिक पर कटु सत्य.

    रामराम.

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  7. सलिल ने कह दिया सब कुछ । वाकई अदभुत है :)

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  8. कटु सत्य कहती बढ़िया रचना |
    आशा

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  9. एक गहन चिंतन ,पीड़ा की अनुभूति , उस से बाहर आने के लिए नारसिंही (तुरही )आह्वान .....बहुत सुन्दर !
    new postकिस्मत कहे या ........
    New post: शिशु

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  10. कटु सत्य लिए प्रभावी अभिव्यक्ति .....

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  11. शकुन्तला बहादुर22 फ़रवरी 2014 को 12:40 pm बजे

    वर्तमान भारतीय समाज के यथार्थ की दर्पण सदृश यह मार्मिक किन्तु सशक्त अभिव्यक्ति मन पर चोट करने के साथ ही नारीशक्ति को झकझोर कर जागृति का संदेश भी दे रही है । साधुवाद !!

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  12. हिला गयी अंदर तक ... कडुवा सच है जो झंझोड़ता है ...

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  13. शक्ति को शक्ति की अनुभूति कराती हृदयस्पर्शी कविता।

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  14. अति सुन्दर शानदार प्रस्तुति

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  15. समाज को आईना दिखाती रचना । स्त्री को ही जागरूक होना होगा ;अपने स्व को पहचानना होगा ।

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