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शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

एक नचारी -

*
अब मैं ना पीसौंगी भाँग ,
   बहाये दिहौं सिल-बट्टा.
ऊँचे पहारन से फेंको सिलौटी ,
बट्टा, धरि दैहौं दुकाय.
*
काहे को बोई .काहे को सींची ,
रगड़त मोरी उमरिया बीती ,
अब तो सुनौंगी कछु नाय .
बहाये दिहौं सिल-बट्टा.
*
काहे  बैरिनिया ,सिव मन भाई ,
भाँग पिसत मोरी दुखत कलाई, 
उझकत करिहाँ पिराय .
बहाये दिहौं सिल-बट्टा.
*
भँगिया के लोटा में भरि हौं भभूती,
झोरी में लरिकन केर लँगोटी,
मोको ई ढंग ना भाय .
बहाये दिहौं सिल-बट्टा.

छुट्टे-छड़े, तनि देखो तो लच्छन ,
चिन्ता न कोऊ कहा कहि हैं जन 
काहे  कियो रे बियाह .
बहाये दिहौं सिल-बट्टा.
*

बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

एक लोक-कथा : शिवरात्रि पर

एक बार भोले शंकर से बोलीं हँस कर पार्वती ,
' चलो जरा विचरण कर आये ,धरती पर कैलाशपती !
विस्मित थे शंकर कि उमा को बैठे-ठाले क्या सूझा ,
कुछ कारण होगा अवश्य, मन ही मन में अपने बूझा !

' वह अवंतिका पुरी तुम्हारी ,बसी हुई शिप्रा तट पर ,
वैद्यनाथ तुम ,सोमेश्वर तुम, विश्वनाथ , हे शिव शंकर !
बहिन नर्मदा विनत चरण में अर्घ्य लिये, ओंकारेश्वर ,
जल धारे सारी सरितायें ,प्रभु, अभिषेक हेतु तत्पर !

इधर बहिन गंगा के तट पर देखें कैसा है जीवन ,
यमुना के तटपर चल देखें मुरली-धर का वृन्दावन !
बहनों से मिलने को व्याकुल हुआ हृदयहे महायती  ! '
शिव शंकर से कह बैठीं अनमनी हुई सी देवि सती !

जान रहे थे शंभु ,जनों के दुख से जुडी जगत- जननी ,
जीव-जगत के हित- साधन को चल पडती मंगल करणी !
' जैसी इच्छा ,चलो प्रिये ,आओ नंदी पर बैठो तुम ,
पंथ सुगम हो देवि, तुम्हारे साथ-साथ चलते हैं हम !'

अटकाया डमरू त्रिशूल में ऊपर लटका ली झोली ,
वेष बदल कर निकल पड़ , शंकर की वाणी यह बोली -
'' जहाँ जहाँ मैं ,वहाँ वहाँ मुझसे अभिन्न सहचारिणि तुम ,
हरसिद्धि ,अंबा ,कुमारिका ,भाव तुम्हारे हैं अनगिन !

'ग्राम-मगर के हर मन्दिर में नाम रूप नव- नव धरती !'
हिम शिखरों के महादेव यों कहें ,'अपर्णा हेमवती !
मेकल सुता और कावेरी ,याद कर रहीं तुम्हें सतत,
यहाँ तुम्हारा मन व्याकुल हो उसी प्रेमवश हुआ विवश ! '

उतरे ऊँचे हिम-शिखरों से रम्य तलहटी में आये ,
घन तरुओं की हरीतिमा में प्रीतिपूर्वक बिलमाये !
आगे बढ़ते जन-जीवन को देख-देख कर हरषाते ,
नंदी पर माँ उमा विराजें, शिव डमरू को खनकाते !

हँसा देख कर एक पथिक ,'देखो रे कलियुग की माया ,
पति धरती पर पैदल चलता ,चढी हुई ऊपर जाया !'
रुकीं उमा ,उतरीं नंदी से ,बोलीं,'बैठो परमेश्वर!
मैं पैदल ही भली ,कि कोई जन उपहास न पाये कर !'

' इच्छा पूरी होय तुम्हारी ,'शिव ने मान लिया झट से ,
नंदी पर चढ़ गये सहज ही अपने गजपट को साधे !
आगे आगे चले जा रहे इस जन संकुल धरती पर ,
खेत और खलिहान ,कार्य के उपक्रम में सब नारी नर !

उँगली उनकी ओर उठा कर दिखा रहा था एक जना ,
कोमल नारी धरती पर ,मुस्टंड बैल पर बैठ तना !'
' देख लिया ,सुन लिया ?' खिन्न वे उतरे नंदी खड़ा रहा ,
उधर संकुचित पार्वती ने सुना कि जो कुछ कहा गया !

' हम दोनों चढ़ चलें चलो, अब इसमें कुछ अन्यथा नहीं ।
शंकर झोली टाँगे आगे फिर जग-जननि विराज रहीं !
दोनों को ले मुदित हृदय से मंथर गति चलता नंदी ,
हरे खेत सजते धरती पर बजती चैन भरी बंसी !

' कैसे निर्दय चढ़ बैठे हैं,,स्वस्थ सबल दोनों प्राणी ,
बूढ़ा बैल ढो रहा बोझा ,उसकी पीर नहीं जानी !'
कह-सुन कर बढ़ गये लोग ,हत्बुद्धि उमा औ' शंभु खड़े ,
कान हिलाता वृषभ ताकता दोनों के मुख, मौन धरे !

' चलो,चलो रे नंदी, पैदल साथ साथ चलते हैं हम ,
संभव है इससे ही समाधान पा जाये जन का मन !'
जब शंकर से उस दिन बोलीं आदि शक्ति माँ धूमवती ,
चलो ,जरा चल कर तो देखें कैसी है अब यह धरती !

हा,हा, हँसते लोग मिल गये उन्हें पंथ चलते-चलते ,
'पुष्ट बैल है साथ देख ले, पर दोनों पैदल चलते ,
जड़ मति का ऐसा उदाहरण ,और कहीं देखा है क्या ?'
वे तो चलते बने किन्तु ,रह गये शिवा - शिव चक्कर खा !

' कैसे भी तो चैन नहीं दुनिया को ,देखा पार्वती ,
अच्छा था उस कजरी वन में परम शान्ति से तुम रहतीं !'
'सबकी अपनी-अपनी मति ,क्यों सोच हो रहा देव, तुम्हें ,
उनको चैन कहाँ जो सबमें केवल त्रुटियाँ ही ढूँढे !

दुनिया है यह, यहाँ नहीं प्रतिबन्ध किसी की जिह्वा पर ,
चुभती बातें कहते ज्यों ही पा जाते कोई अवसर !
अज्ञानी हैं नाथ, इन्हें कहने दो ,जो भी ये समझें ,
निरुद्विग्न रह वही करें हम, जो कि स्वयं को उचित लगे !

कभी बुद्धि निर्मल होगी जो छलमाया में भरमाई !
इनकी शुभ वृत्तियाँ जगाने मैं,हिमगिरि से चल आई ,
ये अबोध अनजान निरे ,दो क्षमा -दान हे परमेश्वर !
जागे सद्- विवेक वर दे दो ,विषपायी हे,शिवशंकर ! '

भोले शंकर से बोलीं थीं , उस दिन  दुर्गा महाव्रती
अपनी कल्याणी करुणा से सिंचित करतीं यह जगती !
*

सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

मौन की आरती

*
प्रभु के सम्मुख आराधना के तन्मय क्षणों में मानस  जब  दिव्य अतीन्द्रियता में लीन हो जाय, उन भावमय क्षणों की  सहज अभिव्यक्ति है यह कविता - ' मौन की आरती '.
रचनाकार के शब्दों में  - ''वृंदावन में बाँके बिहारी जी को निहारते  भान हुआ कि यहाँ  उपस्थित हर व्यक्ति किसी संताप से ग्रस्त हो प्रभु की शरण में आया है और अंतस् की आर्त-वेदना प्रभु को अर्पित कर रहा है .उन विभोर क्षणों में जो अनुभव पाया वह अनायास ही यहाँ व्यक्त हो उठा. ''

जीवन डाक्टर का और भावन कवि का -लोगों के कष्टों का उपचार  दवाएं दे-दे कर करती होंगी,  अंतर में स्थित एक संवेदनशील रचनाकार का अनुभव मुझे निरंतर होता रहा है. यहीं ब्लाग-जगत में  चलते-फिरते  टकरा जाती  हैं . उनकी इस मौलिक सृजन-क्षमता का जो सुख मैंने पाया ,आज आप सब को बाँटने से स्वयं को रोक नहीं पा रही . प्रस्तुत है -


मौन की आरती 
*
मंदिर के
प्रांगण में,
निहारते हुए
प्रभु का
अप्रतिम सौन्दर्य
अपलक दृष्टि से..

जुड़े हुए

हाथों से
थामे
मन की
एक थाली..

रखे हुए

उसमे श्रद्धा और
अटूट विश्वास के
फूल...

 प्रज्ज्वलित किये हुए

नैनों के दो
दीप...

कपोलों की

दूर्वा से
छिड़कते हुए
अश्रु निर्झर के
जल-कण...

तकते थे

दूर खड़े
अधरों से
स्तब्ध शब्द..
ह्रदय के
इस मौन की
आरती.............
- ?
( नामोल्लेख पर रोक है , अनुमान पर नहीं .)
*

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

वास्ता

*
सिहर उठी सृष्टि ,
धुरी पर घूमते पिण्ड सहम  गये ,
श्री-हत दिशाएँ,
स्तब्ध हवाएँ ,  
एक वीभत्स वार -
सद्य-जात कंठ की घुटी चीख ,
पीड़ा से मरोड़ खाती नन्हीं देह छोड़
उड़ते प्राण-पखेरू !
 *
 प्रकृति की सर्वोत्कृष्ट कारीगरी 
मिल गई मिट्टी में 
धरा के अंतस्तल से उठी कराह  ,
 छाती चीरती एक और दरार डाल  गई . 
 एक लड़की इस दुनिया में  रहे ,न रहे  ,
  किसी को क्या फ़र्क पड़ता है!
*
बची रह जाती, 
क्या पता, तो भी
 दो-चार भूखे नर-पशुओँ की शिकार बन नुचती ,
भट्टी में फुँकती या तेज़ाब से दहती . 
कौन रोकने-टोकनेवाला .
स्वयं को पुरुष कहता पशु ,
नारी की देह कैसे छोड़ सकता है!
अपनी मनमानी कर 
कर्ज़ वसूलेगा जीवन भर .
किराए पर उठाए ,बेचे, नचाये ,
जी भरे तो धमकी-
चली जाओ, चाहे जहाँ ,
आजिज़ आ गया हूँ तुमसे.
अच्छी तरह जानता है-
जायेगी कहाँ ?
सिर छिपाने को  कोई घर नहीं उसका  
अपनी कोई जगह नहीं ,
दीन बनी  रहेगी यहीं .
अपने हित का जुआ 
स्त्री के काँधे धर  
बिलकुल निश्चिंत !

*
पर तभी तक 
ओ नारी ,
 जब तक तुम भरमाई हो.
 जागती नहीं, चेतती नहीं,
मिथ्यादर्शों का लबादा ओढ़ दुबकी हो, 
परंपरा की गहरी खाई में .
*
 जागो,
उठ खड़ी हो!  
वह निरा दंभी
 कुछ नहीं कर सकेगा  , 
अहंकारी हो कितना भी 
अपने आप में क्या  है,
समझो,
फिर पहचानो अपना स्वरूप! 
*
किसका भय ?
तुम दुर्बल  नहीं ,
तुम विवश नहीं ,
तुम नगण्य नहीं
धरा की सृष्टा,
निज को पहचानो !
*
अतिचारों का  कैंसर,
पनप रहा दिन-दिन, 
विकृत  सड़न फैलाता .
निष्क्रिय करना होगा 
तुम्हें ही  वार करना होगा   ,
निरामय सृजन के
दायित्व का
वास्ता तुमको .
*
 लोरी भर जीवन-मंत्र ,
 पीढ़ियाँ पोसता आँचल-भरा अमृत-तंत्र धर,
कोख को लजाना मत !
 रहो शीष उठाए  
अपने सहज, अकुंठित स्वरूप में ,
अन्यथा विषगाँठ का पसरता दूषण,
और धरती का छीजता तन ,
मृत पिंड सा 
अंतरिक्ष में टूट -बिखर 
विलीन हो जाएगा !
*

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

भावी- वधू.

*
अभी तो पाट पर बैठी ,
छये मंडप तले ,
लपेटे एक पचिया पीत ,
मंगल वस्त्र,आया जो ममेरे से, 
कि हल्दी ले करें अभिषेक 
भाभी-मामियाँ घेरे .
कुँवारी देह पर चढ़ रहा  कच्चा तेल ,
नयनों में झरप का झलमलाता नीर,
हल्दी का सुनहरा रंग ,
तन में  दीप्ति बन  छलका.
*
अरघ देतीं पथ  परिष्कृत कर चलीं ,
गौरी- रोहिणी सी कन्यकाएँ .
समर्पेगी अंजली भर धान्य ,
यह भावी वधू नत-शीश ,
पितरों के चरण तल में .
बिदा को प्रस्तुत तुम्हारी अंशजा   ,
यह सृष्टि की  कुल-वल्लरी  आगे बढ़ाने.
असीसो कुल-देवताओँ !
 *
हम ऋणी थे सृष्टि के ,
पर आज, श्री-सुषमामयी 
तुमने हमें दाता बना ,
गौरव बढ़ाया.
वहाँ सज्जित देहरी
 प्रस्तुत तुम्हारी आरती को. 
 सत्कृते, शुभ चरण- छापों  से, 
गृहांगन को सजाती 
दाहिने अंगुष्ठ-पग से कलश-धान्य बिखेर ,
नेहिल  केन्द्र बन 
श्री-अन्नपूर्णा सी विराजो  ,
तृप्ति ,पुष्टि बनी प्रतिष्ठित रहो पुण्ये,
धन्य-जीवन हम ,
तुम्हें पा कर, सुकन्ये !

 *

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

ठिठका खड़ा वसंत ..

 ठिठका खड़ा है वसंत कहीं रास्ते में,
झिझक भरा मन में विचारता -
रूखों में रस संचार नहीं ,
कहीं  गुँजार नहीं .
स्वर पड़े मौन,  कौन तान भरे ,
दिशाएँ सोई -सी ,
ले रहीं उबासी .

 ठिठुराया पवन शुष्क ,
गंध के झरने रुद्ध , 
गगन धुँधलाया,
हर प्रवाह में उदासी.
भावों में जागा नहीं  नेह अभी,
मधु और माधव का आगमन 
सँदेश लिए 
उतरी नहीं किरणें सुनहरी .
पाँवड़े बिछाए कहाँ स्वागत को,
कैसे पग धरें माँ भारती !

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

एक ख़त चलते-चलाते ज़िन्दगी के नाम ....

एक ख़त चलते-चलाते ज़िन्दगी के नाम लिख दूँ !
लिखा है आधा-अधूरा  बहुत बाकी रह गया पर ,
  तू अगर चाहे बता  सारे सुबह औ'शाम लिख दूँ .

जो दिया तूने उसे  स्वीकार नत-शिर कर निभाया
हार है या जीत मेरी तो समझ में कुछ न आया,
व्यक्त कर पाऊँ स्वयं को ,शब्द  की सामर्थ्य सीमित
 जो रहा शायद कभी आ जाय तेरे काम, लिख दूँ

ज़िन्दगी थी क्या कभी तू ,किन्तु अब क्या हो गई है
बदलते परिवेश के सब तथ्य ख़ुद ही  धो गई है
 दोष दे या सही माने , तू व तेरा काम जाने ,
 कहे तो  इन अक्षरों में फिर वही  पहचान लिख दूँ !

क्या पता कितना जमा था खर्च मेरे नाम कितना ,
जो उधार अभी पड़ा ,मुश्किल बहुत उससे निबटना
बही के इस सफ़े का सारा हिसाब रुका पड़ा है ,
भूल-चूक रफ़ा-दफ़ा यह नोट सब के नाम लिख दूँ ?

जानना चाहा जभी ,सब  ब्याज अपने नाम पाया
जोड़ पाई मैं कहाँ कुछ भी न मेरे काम आया
रंग इतने देख कर तो चकित-विस्मित रह गई
अब नफ़ा औ'नुक्सान सब बेकार ,बस अनुमान लिख दूँ !

पाठ का इति तक अगर  सारांश बोले तो बता दूँ
व्यक्त जितना हो सके उतना सही, कहकर सुना दूँ
शिकायत कोई नहीं ,बस एक बार जवाब दे दे -
अंत पूर्ण विराम ,या कुछ बिन्दु डाल प्रणाम लिख दूँ ?
*