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शुक्रवार, 24 मई 2013

अनुक्रम.

क्या गाती है नदिया, चंचल जल की धारा  ,
बही जा रही बजा-बजा कर इकतारा !
 *
  पर्वत पर अल्हड़ सी  ये मीन-नयन धारे ,
मंदिर के कलशों की झिलमिल लहराती  रे .
हर पल नव-जल  गागर उच्छल हो हो छलके
  मुक्ता कण बिखऱ-बिखऱ  वन घासों पर  ढलके
चलती पल-पल अविरल , रुक नहीं कहीं पाती
आवेग-उमंग भरी ,बल-खाती बढ़ जाती !

कहता गर्वित पर्वत-
 ये चंचल जल-बाला  मेरी ही तो कन्या.
जीवन रस से सबको जो  सींच रही धन्या,
 दुर्गम पाहन अड़ते , ऊँची-नीची राहें
सागर को पाने का  व्रत पाल रही वन्या ,
 उमड़ी आती उर से, मेरी असीस-धारा !
*
 मतवाला हो बादल ,
मँडराता सागर पर भरता   भूरी छागल .
फिर उमड़, घमंड भरा चढ़ नभ में इतराता .
 मल्हार राग गाता, जम जाता पूरा  दल !
सावन में  भगत बना, आता काँवर लेकर ,
कंकर-कंकर को यो नहलाता ज्यों शंकर!
*
 नदिया-पर्वत-बादल,
फिर निर्मल  मधु-सा जल 
सागर को सौंप लवण,
 जीवन का यह अनुक्रम!
*

शनिवार, 11 मई 2013

तुम प्रणम्य !


*
हे,मातृ रूप हे विश्व-प्राण की नियामिका,
तव परम-भाव इस भूतल, पर आ छाया बन  करुणा-ममता.
केवल अनुभव-गम्या, रम्या धारणा-जगतके आरपार
तुम मूल सृष्टि, बन तृप्ति-पुष्टि, सरसातीं जग में अमिय-धार
*
इस अखिल सृष्टि के नारि-भाव उस महाभाव के अंश रूप
उस परम रूप की छलक, व्यक्त नारी-मन में जो रम्य रूप,
भगिनी का नेह अपार, सहोदर बंधु सदा पाता जैसे .
पुत्री का मृदु वात्सल्य, पिता के हेतु उमड़ आता जैसे
*
गृहिणी का हृदय थके पंथी के हेतु सदय हो  अनायास ,
भूखे बालक को करुणाकुल,हो वितरित करता तृप्ति-ग्रास.
जो स्वयं काल से लड़ जाती ,भार्या बन सत्यवान के हित
अगणित परिभाषाहीन भाव नारी-अंतर में चिर संचित.
*,
श्री-मयी, ज्योति सौन्दर्य सुखों रागों -भोगों से जग सँवार ,
हो बिंब और-प्रतिबिंब असंख्यक रूप- भाव ऊर्जा अपार,
अपनी ही द्युति से दीप्तिमयी, तुमसे ही जीवन बना धन्य.
सब रूपों में तुम ही अनन्य, तुम धन्य चिन्मयी, तुम प्रणम्य !
*
- प्रतिभा.
*

गुरुवार, 2 मई 2013

देह-उपल.

देह उपल .
*
धार में हम बह नहीं सकते !

उपलमय यह देह,
अटकाती रही हर बार !
तरलता अंतर सिमट कर रह गई -
बरबस बिखर कर
ढह नहीं सकते .
*
हवाओं के साथ ,
कुछ संदेश लहरें दे गईँ ,
लिख छोड़तीं  गीली लकीरें .
लौट कर फिर बह गईं .
जमे तट पर ,
फेन औ' स्फार भरते
माटियों के जटिल रूपाकार .
बुद्बुदों  में छोडते निश्वास
थिर हो रह नहीं सकते !
*
तलों की रेत मथती है ,
उमड़ते वेग की
असमान गतियों में .
सिहरते,कसकसाते कण उमड़ते ,
फिर समा जाते वहीं चुपचाप .
खुल कर बह नहीं सकते !
*
जमे रहना ही  नियति
इस धार को देते सहारे.
जा रहा  बढ़ता अरोक प्रवाह ,
जल हिलकोरता 
छल- छल सम्हाले .
रुको पल भर  - 
टेर कर  कह यह नहीं सकते,
*
उपलमय यह देह,
सारे बोध पहरेदार .
जागते अटका रहे हर द्वार .
चाहो लाख लेकिन
वेग के उत्ताल नर्तन
झेलते चिर रह नहीं सकते !
साथ में पर ,
बह नहीं सकते !
*