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गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

किं-बहुना .



तुमने जो भी दिया ,निबाहा क्षमता भर ,धर सिर-आँखों पर ,
ले इतना विश्वास , कि मेरी लज्जा-मान तुम्हीं रक्खोगे!
-
मेरी त्रुटियाँ ,दुर्बलताएँ,मेरे मति-भ्रम ,मेरे विचलन,
मेरे यत्न देखना केवल बाकी सभी तुम्हारे अर्पण ,
दिशा-ज्ञान  की कौन कहे अनजाना हो गंतव्य जहाँ पर
बोध-शोध सब परे धर दिये ,आगे ध्यान तुम्हीं रक्खोगे !
*
लीन स्वयं में करना लेना मन , सारी चित्त-वृत्तियाँ धारे
जब स्व-भाव भी डूब, विलय हो  इस अगाध सागर में खारे .
निस्पृह हो धर चलूँ यहीं पर ,राग-विराग, जिन्हे ओढ़ा था,
सारी डूब  समाई तुम में, अब संधान तुम्हीं रक्खोगे !
 *
क्षमा-दान मत दो कि,साध्य हो प्रायश्चित तप-तप कर धुलना,
निर्मलता में सँजो तुम्हारी करुणा का कण-कण किं-बहुना.
तुमसे कौन शिकायत,शंका या  आशंका चिन्ता मुझको .
मन दर्पण बन रहे तुम्हारा , तब तो भान  तुम्हीं रक्खोगे !
*
बस इतना विश्वास कि  मेरी लज्जा-मान तुम्हीं रक्खोगे!
*

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

संकेत.

*
सपना कैसे कहूँ ,
सच लगा मुझे.
पास खड़ी खड़ी,
कितने  ध्यान से
देख रहीं थीं तुम !
त्रस्त-सी मैं ,
एकदम चौक गई  . 
*
श्वेत केश-जाल, 
रुक्ष ,रेखांकित मुखमंडल ,
स्तब्धकारी दृष्टि! 
उस विचित्र भंगिमा से अस्त-व्यस्त ,
पर आतंकित नहीं .
जान गई कौन तुम,
और तुम्हारा संकेत !
*
इन चक्रिल क्रमों में ,
मिली होगी कितनी बार
किसे पता ,
हो कर निकल गई होगी
अनजानी, अनपहचानी
पर ऐसे सामने
कहाँ देखा कभी!
 *
स्वागत करूँगी ,
सहज स्नेहमयी, महा-वृद्धे ,
निश्चित समय
सौम्य भावेन
शुभागमन हो तुम्हारा,
समापन कालोचित
शान्ति पाठ पढ़ते 
*
समारोह का विसर्जन,
कर्पूर-आरती सा लीन मन
जिस रमणीयता में रमा रहा,
वही गमक समाये ,
धूमावर्तों का आवरण हटा
तुम्हारा हाथ थाम
पल में पार उतर जाए !
*

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

अतुकान्त .


*
विरति के पल
और इस अतुकान्त की लय
अंतिमाओं तक निभाऊँगी !
*
पंक्तियों पर पंक्ति ,
हर दिन नया लेखा  .
पंक्तियों की असम रेखाएँ
क्या पता कितनी खिंची आगे चली जाएँ !
 रहेंगी अतुकान्त, औ' बिल्कुल अनिश्चित   ,
अल्प-अर्ध-विराम कैसे ले सकूँ निज के .
अवश हो उस असमतर गति में समाऊँगी
*
एक  कविता चल रही अनुदिन ,
क्या पता ये पंक्तियाँ कितना चलेंगी .
क्योंकि ये तुक हीन ,
बिन मापा-तुला क्रम ,
विभ्रमित व्यतिक्रम  बना-सा
पंक्तियाँ इतनी विषम,बिखरी हुई
किस विधि सजाऊँगी !
*
रास्ता  ये आखिरी क्षण तक चलेगा  .
क्या पता कितना घटा कितना बढ़ेगा .
 तंत्र में अपने स्वयं के हो  नियोजित  !
रुक गई पल भी ,
अटक रह जायेगी वह पाँत  ,
होकर बेतुकी फिर
कथा को आगे कहाँ,
किस विधि बढ़ाऊँगी !
*
ओ कथानक के रचयिता, धन्य तू भी
भार सिर धर कह रहा ,भागो निरंतर ,
दो समानान्तर लकीरें डाल कर पगडंडियों पर
 सँभलने- चलने  बहकते पाँव धर धर !
चलो, बस चलते रहो अनथक  निरंतर
टूटती सी बिखरती  ,जुड़ती ,अटकती
इन पगों कें अंकनों से लिखी जाती
रहित अनुक्रम पंक्तियाँ किसको सुनाऊँगी !
*
एक पूर्ण-विराम तक अविराम चलना
क्योंकि अविरत सतत,गति की यात्री मैं,
 छंद से उन्मुक्ति संभव कहाँ ?
 लय- प्रतिबंध धारे ,
सिक्त अंजलि भर
इसी खारे उदधि के फेनिलों को
सौंप जाऊँगी !
*
आत्म के अनुवाद के ,
इस अनवरत संवाद के
बहते हुये पल ,
क्या पता
किन औघटों पर जा चढाऊँगी !
किन्तु इस  अतुकान्त की लय
अंतिमाओं तक निभाऊँगी !
-
(एक पुरानी कविता )
*

सोमवार, 26 नवंबर 2012

पारायण तक !

*
हल्दी रँग हाथों में जिसको ,नत शिर दे जयमाल वर लिया ,
चुटकी भर सिंदूर माँग धर ,जीवन जिसके नाम कर दिया,
सात जनम का कौन ठिकाना,नाम-रूप क्या, कौन-कहाँ पर,
जिसके साथ सात भाँवर लीं ,एक जनम तो उसे निभा दूँ ! 
*
 वस्त्राभूषण भेट ज्येष्ठ ,आमंत्रण ले आये कि चलो घर,  
 राह तक रहे  आँगन उतरो ,अब अपने सौभाग्य चरण धर, 
 शुभे पधारो ,राह तक रहा पाहुन-याचक द्वार तुम्हारे .
नये पृष्ठ जो जुड़े कथा में , आगे पारायण तक ला दूँ !
*
पग से धान्य भरा घट पूरा  आँगन ज्यों मंगल- राँगोली 
 कितनो नाते साथ जुड़ गये , आई थी मैं एक अकेली .
 अक्षत भरे थाल धर , दोनों पग  पूजे कुल-कन्याओं ने 
उनका यह सम्मान-भाव शिरसा धारे मै रही ,जता दूँ !
*
 नाम-धाम पहचान सभी बदला, मैं कौन कहाँ सब बिसरी .
 मैं ही व्याप्ति बन गई ,निजता नेह-रची संसृति में बिखरी 
 मेरी सृष्टि ,भोग भी मेरे , विस्तारित  हो गया अहं जब,
तन से, मन से नेम-धरम से मान और प्रतिमान निभा दूँ  !
*

शनिवार, 10 नवंबर 2012

शुभ - दीपावली

*
रोशनी के जाल यों बुने ,
किरन-तंतु कात कर  शिखा ,
ओढ़नी उजास की बने ,
श्याम-देहिनी महानिशा !
*
वायु-जल सुस्निग्ध-स्वस्थ हों,
करे अष्ट-लक्ष्मि  अवतरण !
खील-सी बिखर चले हँसी ,
शुभ्र फेनि* सा हरेक मन !

(*बताशफेनी)
*
दीपावली का पर्व मंगलमय हो !

 - प्रतिभा सक्सेना
*

शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

सागर के नाम -

*
लिख रही अविराम सरिता,
नेह के संदेश .
पंक्तियों पर पंक्ति लहराती बही जाती
कि पूरा पृष्ठ भर दे  .
यह सिहरती लिपि तुम्हारे लिये ,प्रिय.
संदेश के ये सिक्त आखर .
*
क्या पता कितना हवा सोखे ,
उडा ले जाय .
वर्तुलों में घूमते इस भँवर-जल के
जाल में रह जाय.
उमड़ती अभिव्यक्तियाँ
 तट की बरज पा
 रेत-घासों में बिखर खो जायँ !
*
राह मेरी-
 पत्थरों से
सतत टकराती बिछलती,
विवश सी ढलती-सँभलती .
नियति कितना, कहाँ  भटकाये.
नाम से मेरे कभी पहुँचे ,न पहुँचे
और ही जल -राशि में रल जाय !
या कि बाढ़ों में बहक
सब अर्थमयता ,व्यर्थ  यों उड़ जाय !
*
लिख रही अविराम ,अनथक
इन सजल लिपि-अंकनों में,
 ले , तुम्हारा नाम !
शेष  कुछ तो रहे तब तक ,
 जहाँ बिखरी पंक्तियाँ
 उद्दाम फेनिल के अतल छू ,
लेश हो ,निहितार्थ का पर्याय !
*

शनिवार, 3 नवंबर 2012

सोने का हिरन


 एक मनोदशा -

काहे राम जी से माँग लिया सोने का हिरन,
सोनेवाली लंका में अब रह ले सिया !
*
अनहोनी ना विचारी जो था आँखों का भरम ,
छोड़ आया महलों को ,काहे ललचा रे मन !
कंद-मूल ,फल-फूल तुझे काहे न रुचे ,
धन वैभव की चाह कहाँ रखी थी छिपा .
सोने रत्नों की कौंध ,आँख भर ले , सिया !
*
वनवास लिया तो भी मन उदासी ना भया ,
कुछ माँगे बिना जीने का अभ्यासी ना भया,
मृगछाला सोने की तो मृगतिषणा रही,
तू भी जान दुखी हरिनी के मन की विथा .
ढल जाय तू ही मूरत न सोने की, सिया!
*
घर-द्वार का सपन काहे पाला मेरे मन,
जब लिखी थी कपाल में जनम की भटकन !
छोटे देवर को कठोर वचन बोले थे वहाँ ,
अब लोगों में पराये दिन रात पहरा ,
चुपचाप यहाँ सहेगी, पछतायेगा हिया !
*
काहे राम जी से माँग लिया सोने का हिरन,
सोनेवाली लंका में जा के रह ले सिया !
*

इस पुरानी कविता की आज याद आ गई .सबसे बाँटने का मन हुआ ,अतः अपने एक  पुराने ब्लाग 'लोक-रंग' से  यहाँ स्थानान्तरित कर रही हूँ - - प्रतिभा.

बुधवार, 24 अक्टूबर 2012

कहाँ हो !


कहाँ हो ,घनश्याम मन मोहन कहाँ हो !
*
हो कहाँ विषण्ण मन के पार्थ-सारथि,
कर रही  विचलित विरत-पथ हो भ्रमित मति .
देह के दुख -व्याध ,अंतर की तपन के,
 शान्ति-चंदन,नंद के नंदन ,कहाँ हो !
कहाँ हो घनश्याम ,जीवन- धन कहाँ हो !
*
ले चलो उस लोक ,जाग्रत हो वृन्दावन ,
शाप-पाप धुलें जनम भर के  अपावन, 
वासनाएं घुल चलें जिस श्याम रँग में ,
हे परम विश्रान्तियों के क्षण कहां हो !
कहाँ हो घनश्याम !
*
अवधि बीतेगी तुम्हारा नाम लेते ,
रेत के मृगजलाशय में प्यास बोते ,
मोरपंखी घन-घटा शीतल सुरंजन,
विकल नयनों के अमल अंजन कहाँ हो ! 
*
कहाँ हो हे कृष्ण,प्राप्य परम कहाँ हो ! !
कहाँ हो घनश्याम !!!

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

मलाला यूसुफ़ज़ई.


*
राख का ढेर समझा तुमने 
जहाँ  दबे पड़े थे  शोले  !
लो ,उड़ी एक चिंगारी  ,
मलाला यूसुफ़ज़ई !
*
हवा चलेगी ,अंगारे दहकेंगे ,
एक नहीं अनगिनत.
मटमैला पट हटा कर,
सुलग उठेंगे एक साथ !
कैसे रोक सकोगे 
लपटों को दहकने से !
*
अकेली नहीं तुम ,
 हम सब तुम्हारे  साथ ,.
हम जो मानते हैं अभिव्यक्ति को 
व्यक्ति का अधिकार और 
औरत को पूरे आकार में खड़े होने का 
हक़दार !
*
मलाला ,
कोटि कंठों की  ,
दबी आवाज़ें खोल दीं तुमने !
ज़मीर जाग उठा .
अब तो बदल डालेंगे  ,
दोहरे पैमाने ये सारे !
पूरे हो कर रहेंगे ,
आँखों के ख़्वाब तुम्हारे !
*

रविवार, 23 सितंबर 2012

आत्मज मेरे !

*
मेरे मन में है जो तुम्हारे लिये ,
आत्मज मेरे ,
शब्दों में समा जाये संभव नहीं .
बहुत प्रखर ,जीवन्त वे भाव,
पर भाषा की क्षमता बहुत सीमित है !
*
और प्रशंसा तुम्हारी ,
स्वयं करूँ मैं ?
कभी नहीं कर सकी जो
नहीं होगी  मुझ से .
औरों के मुख से निकली
तुम्हारी सराहना ,
कानों से ग्रहण करना  ,
अधिक सुखदायी है .
*
तृप्त होता है मन ,
आशीष भर कहता है -
यहाँ तक आते-आते पाया जितना ,
आगे बढ़ते  बहुत अर्जित करो ;
जीवन में जो श्रेष्ठ है ,
सुन्दर है ,
प्रिय है ,
वह सब पाने में
सदा समर्थ रहो !
*

बुधवार, 19 सितंबर 2012

नचारी - जय गणेश.


*

जय हो गनेश ,प्रथम तुमका मनाय लेई ,
कारज के सारे ही विघ्न टल जायेंगे !
नाहीं तो देवन के दफ़्तर में गुजर नहीं,
तुमका मनाय सारे काज सर जायेंगे !
*
सारे पत्र-बंधन के तुम ही भँडारी हो ,
हमरे निवेदन को पत्र तुम करो सही,
हमसों पुजापा लेइ आगे बढ़ाय देओ !
बाबू हैं गनेस, तिन्हें पूज लेओ पहले ई !
*
दस चढ़ाय देओ, ई हजार बनवाय दिंगे
कलम की मार बड़े-बड़े नाचि जायँगे ,
उदर बिसाल सब चढ़ावा समाय लिंगे
इनकी किरपा से सारे संकट कटि जाहिंगे !
*
कहूँ जाओ द्वारे पे बैठे मिलि जावत हैं ,
देखत रहत कौन, काहे इहाँ आयो है !
कायदा कनून तो जीभै पे धर्यो है पूरो!
नाक बड़ी लंबी, सूँघ लेत सब उपायो हैं
*
चाहे लिखवार ,तबै लिखन बैठ जाइत हैं
क्लर्की निभात बड़े बाबू पद पायो  है.
वाह रे गनेस, तोरी महिमा अपार
आज तक किसउ से जौन बुद्धि में न हार्यो है!
*
विधना के दफ़्तर के इहै बड़े बाबू हैं
पूजै प्रथम बिना तो काजै न होयगो,
सारी ही लिखा-पढ़ी इनही के हाथ,
जौन उनते बिगार करे जार-जार रोयगो !
*
हाथन में लडुआ धरो , पत्र-पुस्प अर्पन करो ,
सुख से निचिंत ह्वैके जियो जिय खोल के
पहुँचवारे पूत, रुद्र और चण्डिका के है जे,
इनके गुन गान करो, सदा जय बोल के !
(पूर्व रचित)
***

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

भिक्षां देहि !

*
( माँ-भारती अपने पुत्रों से भिक्षा माँग रही है: समय का फेर !)

रीत रहा शब्द कोश ,
छीजता भंडार ,
बाधित स्वर ,विकल बोल
जीर्ण  तार-तार .

भास्वरता धुंध घिरी,
दुर्बल पुकार.
नमित नयन आर्द्र विकल,
याचिता हो द्वार-
'देहि भिक्षां ,
पुत्र ,भिक्षां देहि !'

*
डूब रहा काल के प्रवाह में अनंत कोश ,
शब्दों के साथ लुप्त होते
सामर्थ्य-बोध.
ज्ञान-अभिज्ञान युक्तिहीन ,
अव्यक्त हो विलीन.
देखती अनिष्ट वाङ्मयी ,शब्दहीन.
दारुण व्यथा पुकार -
भिक्षां देहि, पुत्र !
देहि में भिक्षां'
*
अतुल सामर्थ्य विगत,
शेष बस ह्रास !
तेजस्विता की आग ,
जमी हुई राख
गौरव और गरिमा उपहास
बीत रही जननी,तुम्हारी ,मैं भारती ,
खड़ी यहाँ व्याकुल हताश
बार-बार कर पुकार -
'देहि भिक्षां,
 पुत्र,भिक्षां देहि'!
*
शब्द-कोश संचित ये
सदियों ने ढाले ,
ऐसे न झिड़को ,व्यवहार से निकालो.
काल का प्रवाह निगल जाएगा
अस्मिता के व्यंजक, अपार अर्थ ,भाव दीप्त,
आदि से समाज-बिंब
जिसमें सँवारे.

मान-मूल्य सारे सँजोये, ये महाअर्घ
सिरधर ,स्वीकारो !
रहे अक्षुण्ण कोश ,भाष् हो अशेष -
देवि भारती पुकारे
'भिक्षां देहि !
पुत्र ,देहि भिक्षां !'
*
फैलाये झोली , कोटि पुत्रों की माता ,
देह दुर्बल ,मलीन भारती निहार रही.
बार-बार करुण टेर -
'देहि भिक्षां ,
पुत्र, भिक्षां देहि !'
*

बुधवार, 5 सितंबर 2012

शिक्षक-दिवस के बाद -

*
मंजु ने आवाज़ दी ,'अरे, डॉ.राय,
पिछले साल तो आपने वाक्आउट दिया कराय !
कहा कि पेपर जा रहा आउट ऑफ़ द कोर्स,
एकदम है ये बेतुका लड़कों को कर फ़ोर्स ।'
*
चलते-चलते रुक गये एकदम .डॉ राय
'हम क्यों जुम्मेदार हैं ,हमने दी थी राय !
लड़कों ने हल्ला किया हमने समझी बात ,
वहाँ बेतुके प्रश्न थे ,कुछ बिल्कुल बकवास ।'
*
'तब फिर तो इस बार वे होंगे ही संतुष्ट ,
पेपर जो था  आपका ,सिद्ध हो गया इष्ट .'
'तो वह भी सुन लीजिये वह भी किस्सा एक .
डॉ.मंजु, खुश हुये हम लड़कों को देख.'
*
पूछा -' क्यों कैसा रहा पेपर अबकी बार ?'
'कौन हरामी था, किया सेट पेपर बेकार '?
दूजा बोला 'परीक्षक साला खाकर भंग,
सारे कोश्चन चर गया,जो चेप्टर के संग.
*
भाषा थी बदली हुई ,समझ आय क्या ख़ाक,?
गधा ,नलायक दे गया हम लोगों को शॉक .'
उठा ठहाका एक फिर, मानी हमने हार .
इस पीढ़ी का किस तरह हो पाये उद्धार !
*
(उपरोक्त में  कुछ शब्दों  पर आपत्ति हो सकती है ,पर वे मेरे अपने नहीं है.उनका प्रयोग ,एक सच है ,जिसे सामने ला देना ही उचित लगा .)
*
 प्रतिभा सक्सेना .

सोमवार, 3 सितंबर 2012

नये संस्करण


(शिक्षक-दिवस पर ) -

*
आज सामने हो मेरे ,
कल नहीं होगे !
तुम्हारे साथ होने का यह काल
जीवन का बहुत सार्थक,
बहुत सुन्दर ,काल रहा !
पढ़ाते हुये और पढ़ते हुये तुम्हें,
निरखती रही अपने ही नये संस्करण,
मेरे परम प्रिय छात्र !
*
कोशिश करती रही
तुम्हें जानने की -समझने की.
अगर बूझ सकी तुम्हें
तो मेरे प्रयास सार्थक .
अन्यथा -
ये उपाधियाँ व्यर्थ ,
प्रयास खोखले,
अध्ययन-अध्यापन मात्र दंभ.
सब निष्फल !
उपलब्धि शून्य !
*
पर मैं देख रही हूँ
कुछ बेकार नहीं गया -
लगातार एक नई समझ
पाते रहे हम-तुम.
मेरे अंतस की ऊर्जा में पके,
अक्षरों के नेह सिझे बीज
सही माटी में पड़े.
इस आत्म का एक अंश तुममें प्रस्थापित,
और मैं निश्चिन्त!
*
तुम्हारे नयनों में पाई
उजास-किरणों की पुलक.
यही था काम्य मेरा !
तुमसे पाया अथाह स्नेह-सम्मान,
अजस्र भाव-प्रवाह .
मेरी उपलब्धि!
सँजोये लिये जा रही हूँ,
गाँठ में बाँध-
मेरा पाथेय यही !
*
संभावनाओं भरे जीवन की
आगत पौध विकसते देख रहे हैं ,
मेरे तरलित नयन !
आज यह अध्याय भी समाप्त -
मेरे तुम्हारे बीच के पाठ
पूरे हुये !
*
मैं जहां तक थी,
तुम्हें ले आई.
अब बिदा !
इस कामना के साथ -
कि आगे का उचित मार्ग
द्विधा रहित होकर ,
तुम स्वयं चुन सको,
और मंगलमय भविष्य
तुम्हारे स्वागत को प्रस्तुत हो !
*
(पूर्व-रचित)

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

तुम खेलो, युधिष्ठिर !

फड़ बिछी है ,
चल रहा है दौर ,
तुम खेलो, युधिष्ठिर !
*
खेल के पाँसे किसी के हाथ 
साध कर के  फेंकता हर बार ,
और तुम भी एक हो ,
जिसको यहाँ चुन कर बिठाया ,  
 चाल चलने को किया तैयार .
कौन बोलेगा तुम्हारे सामने ,
सिर झुका बैठे हुए  चुपचाप सारे बंधु 
तुम पर कौन सा प्रतिबंध !
तुम खेलो .युधिष्ठिर !
*
हो रहे उपकृत हिलाते शीष ,
मोह में आविष्ट हो  धृतराष्ट्र .
बहुत अपनापन  बहुत अधिकार 
पा रहा  आया हुआ मेहमान .
आज हो कर मान्य सर्वप्रधान 
सभी पाँसे हाथ में रख  ,
 खिलाता जो खेल ,
तुम खेलो, युठिष्ठिर !
*
दाँव  रख अपने सभी संबंध,
फिर लगा दो बोल  !
खोट तुममें कहाँ ,
तुम  गंभीर ,और ,सुधीर .
मौन रहना हो गया वरदान !
सभी कुछ आसान ,
मत बोलो युधिष्ठिर .
शान्ति से बैठे रहो ,
खेलो, युधिष्ठिर !
*
बाँट में  जो मिली  अपने आप ,
कौन सा तुम
 जीत लाये थे दिखा  पुरुषार्थ .
चीज सबकी ,तुम्हें क्या संताप ,
रहे या जाये किसी के पास !
जो  सुझाये वह,  लगा दो दाँव,
तुम खेलो ,युधिष्ठिर !
*
यही है  अभिसंधि का प्रारूप, 
भाग पाओ यह नहीं वह द्यूत . 
तुम निभाओ  रीति-नीति आचार 
 घिर गये हो  ,
तुम स्वयं लाचार !
फेंकता पाँसे किसी का हाथ ,
स्वीकारो युधिष्ठिर !
फड़ बिछी है ,
चल रहा है दौर ,
तुम खेलो, युधिष्ठिर !
*

सोमवार, 2 जुलाई 2012

शंख-सीपें

*

कहाँ जाये बिचारे जीव ये इंसान के मारे ,
*
न दाना है न पानी है ,न छोड़ीं डालियाँ तरु की ,
बना कर नीड़ नन्हा-सा , शरण पा लें निशा भर की .
कहाँ है चाँदनी अब तो समझ में ही नहीं आता ,
कि नकली रोशनी ने रात-दिन का बोध ले डाला ,
गगन हो या कि जल-थल हर जगह तांडव मचाये है 
भरा है त्रास-आशंका सभी  आतंक के मारे !
*
धरा की माटियों में अब न उगती वे हरी घासे ,
जहाँ  किलकारियाँ भर मगन मन हो लोट हम जाते 
सिमटते जा रहे हर ओर क्षितिजों के खुले आँगन
भ्रमित सा हो गया  ऋतु-क्रम व्यवस्था हीन आवर्तन,
दिशा में धुंध अंधा सा हवाओं में कसैलापन ,
 वहम पाले कि मैं सब-कुछ, अहम ज्यों तोड़ ले तारे 
*
लहरता नदी का जल कर दिया तेज़ाब के जैसा .
न बुझती प्यास ,पीते ही हलक तक कंठ कड़ुआता 
सुखे जल-स्रोत ,झरने ताप से भर रुक गये थक कर ,
शिखऱ पर हिम न ,सूखे भूधरों के चिर-द्रवित अंतर 
धरा की कोख को ऐसे उलीचा बेरहम हो कर 
न जाने किस लिये ये विश्व-द्रोही  बन गया है रे !
*
यही सच है कि तुमने कर दिया  अभिशप्त यह भूतल 
उड़ाकर धूल सब पर  छा रहे हैं नाश के कुछ पल 
मिली थी  श्रेष्ठता बन जाय सबका बंधु-संरक्षक
हुआ पर भ्रष्ट ,छल-बल से बना बैठा वही भक्षक
जियें कैसे ,कहाँ जायें विकल, कैसे भरें जीवन ,
उसी विधि के  खिलौने जीव सारे   प्राण-तन धारे !
*
मरेगा ख़ुद , लिये  जाता अभी  हर तत्व से पंगा ,
लिये भस्मासुरी दुर्बुद्धि अपनी झोंक  में अंधा  .
धरा का फाड़ फेंका  नेह से भीना हरा आँचल ,
उड़ाये रंग सारे   दृष्य-जग सारा किया धूमिल 
मनुज की जात पहुँची जहाँ भी ,दूषण वहीं पहुँचा 
भविष्यों तक बिखेरा विष  ,तना है दर्प के मारे !
*
सचल ये चित्र  हरियल मिट्ठुओं का पाठ रट लेना 
बिरछ  की डालियों पर पंछियों का नीड़ रख देना,
इशारा दे हिलाते शाख ,तरु का और झुक आना ,
ग्रहण कर नेह कर धर ,वल्लरी का बढ़ लिपट जाना ,
अनेकों रूप रंगों से सजी जो चल रही गाथा ,
प्रकृति की रम्य रचना के पलटते पृष्ठ हैं सारे ,
*
बृहद् यह ग्रंथ लिक्खा जा रहा अविराम छंदों में ,
इसे तड़ो-मरोड़ो मत मनुज रे, विषम बंधों में .
उदधि-तल से उठी उद्दाम लहरें जब बिखर जायें 
तटों की बालुओं पर  शंख-सीपें भेंट धर जायें ,
समय के पृष्ठ पर हम लिख चलें कुछ अर्थमय अक्षर 
छिड़क संकल्प- जल नैवेद्य ,जो विश्वात्म स्वीकारे !
*

मंगलवार, 19 जून 2012

अमरनाथ के हिम कपोत.

*
जब नीलकंठ बोलें  ,मुंडमाल हिले-डोले, गिरिबाला  देख   चौंक चौंक जाये,
लगे एक-एक मुंड,किसी कथा का प्रसंग लिये  भेद कुछ समाये है, छिपाये .
बार-बार कोई बात, भूले सपन की सी याद मन- दुआरे की कुंडी बजाये  ,
कभी लागे मुस्काय, नैनन जतलाय़े, पहचानr लगे, याद नहीं आये .
*
 पूछ बैठी माँ भवानी ,गिरि-शृंगोंकी रानी , मुंड काहे को पिरोय कंठ धारे ,
भूत प्रेत की जमात चले  पसुपति साथ ,यह कौन सा  सिंगार तुम सँवारे !
क्या बताऊं गिरि-कन्या ,मैं हूँ अमर अजन्मा किन्तु तेरी तो मरणशील काया ,
जन्म-जन्म रही मेरी ,अर्धअंग मे विराजी ,तेरा अमर प्रेम मैंने ही पाया .
*
हर बार नया जन्म, हर बार नया रूप ,नई देह धार ,मेरी प्रिया आये ,
तेरे सारे ही शीष ,मैंने जतन से सँजोय राखे,  क्रम-क्रम  माल में सजाये .
माल  हिये से लगाय मैं  राखत हूँ गौरा, तोरी जनम-जनम प्रीत की निसानी,
ये  तेरी ही धरोहर लगाये हूँ हिये से ,बिन तेरे  जोग साधूँ,  शिवानी .
*
 मेरी म़त्युमयी काया  , किन्तु प्रीत अविनाशी ,मुक्त करो जन्म-मृत्यु चक्र मेरा ,
करो देव, वह उपाय जासों तुम्हें छोड़ बार-बार जनम मरण न दे फेरा .
अमर-कथा चलो प्रिया ,तुम्हें आज मैं सुना दूँ चिर रहे जो  मन-भावनी ये काया ,
चलो कहीं एकान्त, जहाँ जीव  अनधिकारी बोल कानों से ना सुन पाया . 
*
जहाँ हिमगिरि की शीत, बियाबान -सूनसान ,कोई पंखी भी पंख नहीं मारे ,
अति रम्य गुहा हिमगिरि  की पावन सुशीतल ,तहाँ गौरा संग शंकर सिधारे .
सावधान सब देखा कोई  जीवधारी न हो , कहीं सुन ले जो दुर्लभ कहानी .
और  अजर-अमर मनभावन अमल देह पा ले  न कोई भी  प्राणी .
*
 मैं मगन सुनाऊँ , बस एक  इहै  चिन्ता तुम सबद -सबद ध्यान लगा, पाओ
  हुइ के  सचेत मन धारि सुने जा रहीं,  जताने को हुंकारा  दिये जाओ .
 पान करने लगीं गौरा वह  अमृतमयी वाणी ,शीश काँधे से पिय के टिकाये,
धरा- गगन को पावन बनाय बही जा रही  स्वर- धारा संभु गंग-सी बहाये .
*
मंद थपकी लगाय निज नेह को जतावैं संभु , मगन भवानी नैन मूँदे ,
पाय अइस बिसराम तन अलस ,विलस मन , भीगि रहीं पाय रस बूँदें .
अमर कथा को प्रभाऊ,दुई कपोत अंड रहे तहाँ तामें जीव विकसि गये पूरे ,
 दुइ नान्ह-नान्ह बारे ,कान पड़े भेद सारे अइस जिये जइस अमरित सँचारे,
*
अंड फोरि निकरि आये,  खुले नैन, चैन पाये ,  हुँहुँक हुँहूँक धुन गुहा में समाई 
जइस कोई हुँकारा भरे रुचि सों कथा को सुनि सोई धुनि कानन में आई .
आपै आप हुँकारा सुनि   गिरिजा हरषानी, बिन श्रम सुनै लाग उहै बानी .
 विसमय में ऊब-डूब कोऊ चमत्कार जानि मौन धारि बैठीं सुने  शिवानी .
*
अनायास लगीं पलकें ,अइस  छाय गई  निंदिया ,सुनिबे  को भान डूबि गया सारा ,
हूँ-हुँहुँक् का हुँकारा ,गूंज रहा हर बारा ,बहे पावनी कहानी   की धारा .
पूरन कथा तहूँ   ,हुँकार धुनि छाई  गौरा   सोय रहीं  संभु चकियाने,
 सावक निहारि भेद जानि गये पसुपति ,पै सोचि परिनाम अकुलाने .
*
 अनगिन बहाने होनहार हेतु होवत हैं, जौन रचि राखत विधाता ,
 पारावत दोउ अमरौती पाय जागे , कौन पुण्य को प्रभाव अज्ञाता .
 नित्य वे निवासी  सिवधाम के कपोत दुइ ,अमल-धवल वेष धारे ,
तीरथ के यात्री हरषि तिन्हें हेरत, प्रदक्षिणा-सी देत  नित सकारे  .
*
गिरिजा की प्रीत बार-बार नवरूप लेइ हिये धरि संभु अविनासी .
हिमधवल कपोत अमर हुइगे  प्रसाद पाइ अमरनाथ धाम के निवासी .
ते ही  कपोत दोऊ ,आज लौं लगावत हैं अमरनाथ  की नित परिक्रमा ,
सरल सुभाव महादेव सह गौरी  को मनसा ध्यान लाये न किं जनः!
*
- प्रतिभा.

बुधवार, 30 मई 2012

कृतज्ञ


*
प्रिय धरित्री,
इस तुम्हारी गोद का आभार  ,
पग धर , सिर उठा कर जी सके ,
तुमको कृतज्ञ प्रणाम !
*
ओ, चारो दिशाओँ ,
द्वार सारे खोल कर रक्खे तुम्हीं ने ,
यात्रा में क्या पता
किस ठौर जा पाएँ  ठिकाना.
शीष पर छाये खुले आकाश ,
उजियाला लुटाते ,
धन्यता लो !
*
पंचभूतों ,
समतुलित रह,
साध कर धारण किया ,
तुमको नमस्ते !
रात-दिन निशिकर-दिवाकर
विहर-विहर निहारते ,
तेजस्विता ,ऊर्जा मनस् संचारते ,
नत-शीश वंदन !
*
हे दिवंगत पूवर्जों ,
हम चिर ऋणी ,
मनु-वंश के क्रम में
तुम्हीं से  क्रमित-
 विकसित एक परिणति .
 पा सके  हर बीज में
अमरत्व की संभावना ,
अंतर्निहित  निर्-अंत चिन्मय भावना .
श्रद्धा समर्पित !
*
- प्रतिभा.

शनिवार, 12 मई 2012

रूप कैसा माँ तुम्हारा ?


व्यक्त कैसे हो अवर्ण्य स्वरूप ,
हो किस भाँति चिन्तन,
करूँ मैं किस भाँति भावन, रूप-गुणमयि माँ तुम्हारा !
रूप कैसा माँ तुम्हारा ?
*
 मैं अव्यक्त, अरूप, ऊर्जा- रूपिणी ,
 मैं नित-नवीना , काल की सहचरि निरुक्ता .
मैं प्रकृति , लीला विलासिनि ,
मैं समुच्चय ज्ञान का, इच्छा-क्रिया का !
 त्रिगुण  मुझमें विलय ,मुझसे ही विभाजित
समाहित धन-ऋण स्वयं में , शून्य को आपूर्ण करती .
धारणा निष्क्रिय ,अरूप विचारणायैं
मैं  सुकल्पित रूप दे , अभिव्यक्त करती .
*
 देह की  जीवन्तता में मोद भर-भर ,
नेह-पूरित चेत भर जड़-जंगमों में
मृदु ,कठोर ,यथोचिता बहुरूपिणी मैं ,
युग्म -क्रीड़ा ,नित नये आकार,अनुक्रम,
दीप्ति भर  , माटी कणों में .
प्रकृति हूँ  आद्या , उदर में अंड  धारे ,
सृजन का दायित्व धारे अवतरी हूँ .
जन्मदात्री हूँ, सतत चिद्भाव-वासिनि ,
 आदि रहित, निरंतरा बढ़ती  लड़ी हूँ.
अखिल विद्या-रूप , मेरी ही कलायें ,
  सकल नारी रूप जग के ,अंश मेरे !
*
 धन्य हूँ मैं ,परस ऊर्जा-कण तुम्हारे ,
नारि-तन धारे सृजन की अंशिका हूँ ,
महालय-मय गीत की कड़ियाँ सँजोती
रंध्रमयि हूँ, पर तुम्हारी वंशिका हूँ !
*
- प्रतिभा .

सोमवार, 7 मई 2012

नेह भर सींचो


 नेह भर सींचो कि मैं अविराम जीवन-राग दूँगा .
*
हरित-वसना धरा को कर ,पुष्प फल मधुपर्क धर कर
बदलते इन मौसमों का शीत-ताप स्वयं वहन कर 
पंछियों  की शरण बन कर ,जीव-धारी की तपन हर ,
 वृक्ष हूँ मैं व्रती ,पर-हित देह भी अर्पण करूँगा . 
 *
गीत-गुंजन से मुखर कर वीथियों को और गिरि वन 
प्राण के पन से   भरूँगा जो कि  माटी से लिया ऋण 
मैं प्रदूषण का का गरल पी ,स्वच्छ कर  वातावरण को
कलुष पी पल्लवकरों  से  प्राण वायु बिखेर दूँगा .
*
लताओं को बाहुओँ में साध कर गलहार डाले ,
पुष्पिता रोमांचिता तनु देह जतनों से सँभाले ,
रंग  दीर्घाएँ करूँ जीवंत  अंकित कूँचियाँ  भर,
स्वर्ग सम वसुधा बने, सुख-शान्ति-श्री से पूर दूँगा !
*
तंतु के शत कर  पसारे , उर्वरा के कण सँवारे ,
 नेह भीगे  बाहुओं से थाम कर तृणमूल सारे 
मूल के दृढ़ बाँधनों में खंडनों को कर विफल 
इन  टूट गिरते पर्वतों को रोक कर फिर जोड़ लूँगा .
*
जलद-मालायें खिंचें, आ मंद्र मेघ-मल्हार गायें ,
अमिय कण पा बीज, शत-शत अंकुरण के दल सजायें,
धरा की उर्वर सतह को सींच कर मृदु आर्द्रता से ,
पास आते मरुथलों को और दूर सकेल दूँगा .
*
 रूप नटवर धार करते कुंज-वन में वेणु-वादन   
 जल प्रलय वट- पत्र पर विश्राम रत हो सृष्टि-शिशु बन
तरु खड़ा जो छाँह बन वात्सल्यमय अग्रज तुम्हारा 
मैं कृती हूँ ,नेह से भर,  सदा आशिर्वाद दूँगा !  
.
 नेह भर सींचो कि मैं अविराम  जीवन राग दूँगा .

*****

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

पूरा सच कबूलो


( कभी की लिखी  एक कविता आज  हाथ लग गई . प्रस्तुत है -)
*
सच कहो  ,
या फिर  कहीं जा मुँह छिपाओ,
अब न मिथ्या वचन ,
पूरा सच कबूलो ,
अन्यथा  जा कृष्ण -विवरों में समाओ !
*
 झूठ ठाने ,पग धरे
 अक्षांश वह जड़ से मिटा दूँ ,
उस धरा की सभी सत्ता सिंधु के जल  में डुबा दूँ  ,
एक कंदुक सा उछालूँ अंतरिक्षों के विवर में
लुढ़क टकरा जायँ ग्रह-नक्षत्र वह ठोकर लगाऊं .
रेख विषुवत् मोड़, दोनों मकर-कर्क समेट धर दूँ    
खोल डालूँ ऊष्ण-हिम कटिबंध दोनों ,
इन खड़ी देशान्तरों  को पकड़ कर दे दूँ  झिंझोड़े
 चीर दूँ  छाती गगन की सिंधु के जल को उँडेलूँ
सूर्य की पलकें झपें ,शशि की बिखर जाएं  कलाएँ .
वह कहो जो सत्य है ,
अब कुछ न देखो वाम-दायें !
*
यह दिशाओँ का विभाजन  भूल जाओ!
इस  क्षितिज के पार
सिर नीचे झुकाये ,
सच कबूलो ,
अन्यथा , मुख को छिपा
 तम -कूप   में जा  डूब जाओ !
*

शनिवार, 24 मार्च 2012

न जाने क्यों..

(एक बहुत पुरानी मित्र (यह भी पता नहीं कि  अब कहाँ है)की कविता ,जिसे अब तक सँजोये रखे रही , यहाँ देने से अब अपने को रोक नहीं पा रही हूँ .)
*
न जाने क्यों मुझे वह दृष्य रह-रह याद आता है ,

तुम्हारा झिझकते  जाते बताना याद आता है ,
न आ पाये कभी ,संकोच इतना क्यों मुझी से था ,
सभी तो साथ थे पर एक बचना क्यों मुझी से था !
*
मुझी से दूर क्यों थे ,जब कि सबके पास में तुम थे
मुझी से दूरियां थीं और सबकी आँख में तुम थे ,
नहीं मैं जानती थी यह कि खुद आ कर बताओगे
बिदा की बेर आकर कुछ कहोगे ,लौट जाओगे !
*
हमेशा के लिये तुम कुछ खटकता छोड़ जाओगे ,
सरल सी राह को आकर अचानक मोड़ जाओगे !
कहाँ हो तुम ,पता मैं खोजती चुपचाप रह कर ही ,
कि शायद सामने आ जाओ अनजाने अचानक ही .
*
एकाएक चौंक जाऊँ सामने पा कर तुम्हें अपने,
अचानक पूर्ण हो जाएं असंभव जो रहे सपने
यही बस एक रह-रह कर खटक मन में उठाता है ,
कभी जो सुन न पाया आखिरी पल क्यों सुनाता है .
*
बहुत स्तब्ध ,उमड़े आँसुओं को रोकती सी मैं
नयन धुँधला गये से किस तरह से देख पाती मैं
न कुछ भी बोल पाऊँ ,देख भी पाऊँ न वह चेहरा
हमेशा के लिये मन पर रहे अपराध सा गहरा .
*
न कोई रास्ता ,कोई न कुछ धीरज बँधाने को ,
न आगे बढ़ सकूँ अब, औ' न पीछे लौट जाने को
अभी भी लग रहा उस ठौर ,वैसे ही खड़ी हूँ मैं ,
बराबर बदलती हरएक शै से चुप लड़ी हूँ मैं .
*
मगर अब लग रहा मुश्किल ,कहाँ तक झेल पाऊँगी
यही होगा कि आँखें मूँद लूँगी बैठ जाऊँगी
तुम्हें तो पता भी शायद न हो कि कैसे ज़िन्दगी बीती
ख़बर भी हो न तुमको ,किस तरह हरदम रही रीती .
*
कि कितने आँसुओं ने धो दिये सब आँख के सपने .
कि कितने शून्यता के बीज मन में ही लगे रुपने
इसी की छाँह में जो शब्द कानों ने सुने थे तब
उन्हीं की गूँज रह-रह लौटती है सिर्फ़ क्यों मुझ तक
*
अगर तुम चाहते तो क्या कभी कुछ तो पता लेते
अगर कुछ जोड़ था मन का, उसे थोड़ा निभा देते .
वहीं पर खड़ी हूँ अब भी ,कभी यह बात कह जाओ -
'न देखो राह मेरी अब कहीं तुम और बढ़ जाओ !'
*
- कल्पना.
(कविता उसी रूप में है ,मैंने कोई फेर-बदल नहीं किया )

*

शनिवार, 10 मार्च 2012

रत्ना की चाह .


(कुछ समय पूर्व  किसी प्रसंग में रत्नावली की मनस्थिति  को वाणी देने का प्रयत्न किया था.सुधी- जनों के विचार हेतु यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ ) -
*
केवल तुम्हारी थी !
पति- सुख पा इठलाती बाला बन,
पीहर में मानभरी पाहुनी हो,
आत्म-तोष थोड़ा-सा,
 चाहता रहा था मन !
*
चाव से भरा था मन ,
 फिर से  उछाह भर,
 ताज़ा हो जाने का ,
बार-बार आने का ,
अवसर,
सुहाग-सुख पाने का .
*
थोड़ा सा संयम ही
चाहा था रत्ना ने .
भिंच न जाय मनःकाय,
थोड़ा अवकाश रहे,
खुला-धुला ,घुटन रहित .
नूतन बन जाए
पास आने की चाह .
*
कैसे थाह पाता
विवश नारी का खीझा स्वर,
तुलसी ,तुम्हारा नर!
स्वामी हो रहूँ सदा
अधिकारों से समर्थ
पति की यही तो शर्त !
*
सह न सके .
त्याग गए कुंठा भऱ .
सारा अनर्थ-दोष
एकाकी नारी पर !
*

मंगलवार, 6 मार्च 2012

होली पर - कुछ लोक-रंग


ससुरारै में निंदिया सताये रे ,
जी भर के कबहुँ ना सोय पाय रे
मोरी अक्कल चरै का चलि जात हौ,
ससुरारै में बावरी सी हुइ गई !
*
सैंया बोले गैया को चारा डालना ,
मैं भइया सुन्यो निंदिया की झोंक में ,
छोटे देउर को नाँद में बिठा दियो ,
और आय के बिछावन पे सोय गई !
*
बहू बछिया गुवाले को सौंप दे ,
मैं बिटिया सुन्यो निंदिया की झोंक में ,
सो ननदिया को पहिरा-उढ़ाय के ,
आपने कंठ से लगाय मिल-भेंट ली ,
और जाय के गुवाले को दे दिहिन !
फिर आय के बिछावन पे सोय गई !
*
मेरी दवा की पुड़िया बहू लाय दे,
हवा-गुड़िया सुन्यो नींद के खुमार में !
लाई रबड़ की बबुइया ढूँढ खोज के ,
आगे बढ़ के ससुर जी पे उछाल दी,
और आय के बिछावन पे सोय गई !
*
पहने कपड़े बरैठिन के दै दियो ,
कह दीजो हिसाब पूरो हुइ गयो!
गहने कपड़े सुन्यो मैं आधी नींद में ,
उनके बक्से से जेवर निकाल लै,
और जोड़े धराऊ में लपेट के
धुबिनिया को पुटलिया पकड़ाय दी
और लेट के बिछावन पे सोय गई !
*
हँडिया दूध की अँगीठी पे चढ़ाय दे ,
थोड़ो ईंधन दै के आँच भी बढ़ाय दे ,
चार मुट्ठी भर झोंक दियो कोयला ,
हाँडी गोरस की धरी वापे ढाँक के
और आ के बिछावन पे सोय गई !
*
जाने कैसे मैं लेटी, औंघाय गई ,
दूध उबल-उबल सारा जराय गा ,
मार  हाँडी का रंग करियाय गा !
मैंने टंकी में चुपके डुबाय दी ,
और जाके बिछावन पे सोय गई !
*
मारे नींद के कुछू न समझ आय रे ,
ससुरारै में बावली सी होय रई !
*
- प्रतिभा सक्सेना.
*



बुधवार, 15 फ़रवरी 2012


एक नचारी .
*
(शंभु के विवाह को चार दिन शेष रह गये .हिमाचल के घर तैयारियाँ चल रही होंगी .शंभु कैसे क्या करेंगे यही सोच रही हूँ - )
गन सारे जुटि रहे आस-पासे ,कइस औघड़ को दुलहा बनावे,
पूरो संभु को समाज आय ठाड़ो कोऊ जाने न लोक-वेवहारो !
घरनी बिन ,रहे भूतन को डेरा रीत-भाँत कोऊ जाने ना अबेरा ,
दौर-भागि करें चीज-वस्त पूरा, सो समेटि रहे भाँग और धतूरा ,
*
बाट देखि रह्यो नांदिया  दुआरे  लै के डमरू भये संभु असवारे
चली भूत-प्रेत की जमात संगे,रूप सब को विरूप, विकल अंगे
सारे जग के अनाथ दई-मारे , आय जुटे तबै संभु के दुआरे ,
होहिं पूरन मनोरथ सुभ-काजे , देइ-देइ के असीस संग लागे .
*
लहर लहर करे गंग की तरंगा ,संभु खुदै झूमि रहे भंग-रंगा ,
जटा -जूट जड़ी बाल-इन्दु लेखा,धार गजपट विचित्र वेष-भूषा.
ताल देई-देई डमरू बजावैं, मुंडमाल देखि जिया थरथरावे ,
लै बरात संभु आय गे दुआरे ,लहराय रहे नाग फन निकारे.
*
पुर लोग देखि दुलहा बिचित्तर ,दौरि-दौरि के सुनावैं सब चलित्तर,
नाचें मगन मन भूत- प्रेत सारे , डरि भागे लोग चकित नैन फारे.
परिछन के काज कनिया के वर की , सासु आरती लै संग नार घर की  ,
फुंकार नाग, गिरत-परत भागीं , झनझनात गिर्यो  थाल अक्षतादि .
*,
रोय नारद को कोसि रही मैना,दाढ़ी-जार विधि ,तोहि नाहिं चैना .
संग बिटिया लै कूदि परौं गिरि ते, कइस रही साथ उमा अइस वर के
एक जोड़ा न जापै  एक लुटिया ,केहि भाँति रहि पाई मोर बिटिया ,!
विधि, रूप धारि आये इहि लागे ,भाग जागि गा  तुम्हार  समुझावैं !
*
जोग धारे संभु अब लौं इकाकी ,संजोग बन्यो  जइस दीप-बाती  
जेहि लागि उमा जन्म धरि तपानी, हाथ मांगे आयो महा-वरदानी,
आज विश्वनाथ  आय द्वार ठाड़ो ,जस लेहु आपुनो  जनम सँवारो
गिरि, कन्या समर्पि देहु बर को ,देवि पूरना,संपूरन करो हर को !
*




बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

नारीत्व - एक गाली .


नारी-जन्म एक गुनाह  ,
आजीवन-दंड का प्रावधान !
कितना कुछ है दुनिया में
 सुख-सुविधा के लिये आदमी के ,
जिसमें यह  भी एक वस्तु ,
 शुरू से छँटती-ढलती
उसी के निमित्त ,
स्वयं पर लादे निषेधों का विधान !
*
नारीत्व -
एक गाली,
 आदमी के मुँह चढ़ी ,
 अपनी सामर्थ्य
प्रमाणित करने को !
मन की नालियों का बहाव ,
 उमड़-उमड़ फूट  निकलता है ,
अपनी कुत्सा औरों पर छींटते !
*
औरत, एक खिलौना
मन बहलाने को ,
कमज़ोर  माटी का भाँडा -
सारी छूत समेटे .
बस में न रहे , तोड़ फेंको .
अधिकारी हो न ,
शक्ति-सामर्थ्य संपन्न तुम !
*

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

मनोकामना पूरो भारति !


सुकृति -सुमंगल  मनोकामना ,पूरो भारति!  
नवोन्मेषमयि ऊर्जा ,ऊर्ध्वगामिनी मति-गति  !
*
तमसाकार दैत्य दिशि-दिव में  , भ्रष्ट  दिशायें ,
अनुत्तरित हर प्रश्न , मौन   जगतिक  पृच्छायें ,
राग छेड़ वीणा- तारों में स्फुलिंग  भर-भऱ ,
विकल धूममय दृष्टि - मंदता करो निवारित !
मनोकामना पूरो भारति !
*
निर्मल मानस हो कि मोह के पाश खुल चलें ,
शक्ति रहे मंगलमय,मनःविकार धुल चलें .
अ्मृत सरिस स्वर  अंतर भर-भर  
विषम- रुग्णता  करो विदारित !
मनोकामना पूरो भारति !
*
हो अवतरण तुम्हारा  जड़ता-पाप क्षरित हो ,
 पुण्य चरण  परसे कि वायु -जल-नभ प्रमुदित हो.
स्वरे-अक्षरे ,लोक - वंदिते ,
जन-जन पाये अमल-अचल मति !
मनोकामना पूरो भारति !
*

बुधवार, 25 जनवरी 2012

नटराज !


*
हे अखिल सृष्टि-मंचों के पट के सूत्रधार ,
 जीवन-लय के चिर नृत्य-निरत  नट कलाधार !
जागृत कर  जड़ीभूत संसृति,  दे मंत्र स्वरित,
चित्-भावों में हो सकल कलायें अन्तर्हित !
*
वह विगत-राग तेजोद्दीप्त तन धवल कान्त,
भस्मालेपित हे पिंगलाक्ष, शोभित नितान्त .
उच्छलित सुरसरी जटा-जूट नव-चंद्र खचित
अवतरण शक्ति का अनघ दीप्ति सहचारिणिवत्
*
दिपता त्रिपुण्ड, आभामय मस्तक पर प्रशस्त
आवरण दे रहा सृष्टि-उत्स  को  अधोवस्त्र.
यह महा प्रभामंडल,ज्वालामय अग्नि-चक्र ,
कर रहा निरंतर भस्म अहंता , मोह-तमस् .
*
दक्षिणोर्ध्व हस्त  में डमरु नाद का शब्द- यंत्र,
जिसकी स्वर लहरी से  झंकृत दिक्काल तंत्र ,
वामोर्ध सृष्टि-संवाहक जीवन-अग्नि  धार
सच-शुभ-सुन्दर करता कलुषित  मनसिज विकार .
*
मंगल विधान दाहिना अधो-कर  अभय दान,
हे महाकाल ,धर  भूत -भविष्यत् का विधान !
कर नष्ट  अशिव  उत्थित कर  में  साधे त्रिशूल,
 थिरकन में क्षिति की उर्वरता फल-अन्न-मूल.
*
 कुण्डलिन- सर्प दीपित तन पर लिपटे अथर्व
  ऊर्जा विस्फोट अपरिमित ब्रह्मांडों के दिव,
 इस  महा- सृष्टि के संचालक   नर्तक -नट विभु
नियतात्म,मुंडमाली ,विरूप ,चंडेश्वर, शुभ !
*
श्लथ पड़ा चरण-तल अपस्मार निष्कल मृतवत् ,
दूजा पग कर उत्तिष्ठ , ऊर्ध्व- आरोहण  हित   ,
 अगणित आभा-मंडल बन-मिट ,पल परिवर्तित
 हो दिव्यरूप उज्ज्वल आनन्द-कला  में रत
*
नटराज ,ताल -लय-मुद्रा-मय जग जीवन-क्रम ,
परब्रह्म आदि तुम ,तुम अनादि हे विधेयात्म,
भोगी-योगी निर्ग्रंथ निरंजन ,चिदानन्द.
तुम शिव ,तुम भव , हे कालकंठ ,तुम वह्नि नयन !
*
नटराज ,अनवरत-नर्तन ,महा-सृष्टि का क्रम ,
हो महातांडव या कि लास्य-लय-मय जीवन .
तुम परम ज्योतिमय,शुभ्र ,निरंजन ,विगत-काम
धर अनघ,  निरामय चरण ,कोटिशः लो प्रणाम !
*

शनिवार, 14 जनवरी 2012

चंद लाइनें - आड़ी-तिरछी .

*
बस से उतरकर जेब में हाथ डाला।
 मैं चौंक पड़ा।
 जेब कट चुकी थी। जेब में था भी क्या? कुल नौ रुपए और एक खत, जो मैंने माँ को लिखा था कि—मेरी नौकरी छूट गई है;अभी पैसे नहीं भेज पाऊँगा…। तीन दिनों से वह पोस्टकार्ड जेब में पड़ा था। पोस्ट करने को मन ही नहीं कर रहा था। नौ रुपए जा चुके थे। यूँ नौ रुपए कोई बड़ी रकम नहीं थी, लेकिन जिसकी नौकरी छूट चुकी हो, उसके लिए नौ रुपए नौ सौ से कम नहीं होते।
  कुछ दिन गुजरे। माँ का खत मिला। पढ़ने से पूर्व मैं सहम गया। जरूर पैसे भेजने को लिखा होगा।…लेकिन, खत पढ़कर मैं हैरान रह गया।
 माँ ने लिखा था—“बेटा,तेरा पचास रुपए का भेजा हुआ मनीआर्डर मिल गया है। तू कितना अच्छा है रे!…पैसे भेजने में कभी लापरवाही नहीं बरतता।”
 मैं इसी उधेड़-बुन में लग गया कि आखिर माँ को मनीआर्डर किसने भेजा होगा? 
कुछ दिन बाद, एक और पत्र मिला।
 चंद लाइनें थीं—आड़ी-तिरछी।
 बड़ी मुश्किल से खत पढ़ पाया। लिखा था—“भाई, नौ रुपए तुम्हारे और इकतालीस रुपए अपनी ओर से मिलाकर मैंने तुम्हारी माँ को मनीआर्डर भेज दियाहै। फिकर न करना।… माँ तो सबकी एक-जैसी होती है न। वह क्यों भूखी रहे?…
तुम्हारा— जेबकतरा भाई

शुभम् भवतु कल्याणं.
* .....
( नोट- यह लघु-कथा मेरी मित्र डॉ. शकुन्तला बहादुर ने मुझे भेजी है, .मैं इसे आप सबसे बाँटने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ .'आभार' इस कथा के अज्ञात लेखक के लिये  और' धन्यवाद' शकुन्तला जी के हिस्से में !)