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रविवार, 13 मार्च 2011

ओ अरुणा !

*

बहुत अस्थिर हो उठती हूँ ,

पल-पल अनुभव करती हूँ तुम्हें अपने में ,

कि नींद में चलती चली आती हो मुझ तक !

अरुणा,

सैंतीस साल बीत गए

लोग जगाना चाहते हैं !

जगोगी?

बड़ी मुश्किल होगी ,

झटके पर झटके .

आँखें फाड़ देखोगी चतुर्दिक

सब अजनवी ,

माँ-पिता भाई-बहिन मित्र संबंधी,

कहींकुछ नहीं .

ख़ुद का वजू़द एक सवाल-सा .

दर्पण से ताकेगी

टूटी-हारी ढली एक पस्त औरत.

अपने को कहां ढूँढोगी ,

कैसे पार पाओगी ?

*

तुम जो थीं -

अंतर में रह-रह फूटता

आनन्द का उत्स,स्वप्निल नयन,

मधु- गंध व्याकुल पुष्पित पुलकित

यौवन भार नत,

प्रतीक्षाकुल तरुणा-अरुणा

 समर्पित होने अपने  प्रिय पुरुष को !

एक पिशाच लीला रौंद गई ,

ऊर्जा के अमृत-कण खींच ,

रोम-रोम में तेज़ाब उँडेल गई .

*

पच्चीस साल की युवती

जो सो गई थी उस दिन,

कभी नहीं जगेगी .

सामने है हत विद्रूप ,

ढहता जा रहा भग्नावशेष !

*

15 टिप्‍पणियां:

  1. Recent Visitors और You might also like यानी linkwithin ये दो विजेट अपने ब्लाग पर लगाने के लिये इसी टिप्पणी के प्रोफ़ायल द्वारा "blogger problem " ब्लाग पर जाकर " आपके ब्लाग के लिये दो बेहद महत्वपूर्ण विजेट " लेख Monday, 7 March 2011 को प्रकाशित देखें । आने ब्लाग को सजाने के लिये अन्य कोई जानकारी । या कोई अन्य समस्या आपको है । तो "blogger problem " पर टिप्पणी द्वारा बतायें । धन्यवाद । happy bloging and happy blogger

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  2. अरुणा के बारे में पढ़कर ह्रदय अत्यंत व्यथित हो जाता है ।

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  3. अरुणा की करुणा, मन शान्त हो जाता है।

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  4. अरुणा की ज़िन्दगी उतार कर रख दी है और उस दर्द को भी जो अगर वो जागी तो कैसे सहेगी……………बेहद मार्मिक चित्रण्।

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  5. आज कहने को कुछ भी नहीं है मेरे पास।
    सचमुच,
    ढहता जा रहा भग्नावशेष !

    जवाब देंहटाएं
  6. कविता के पीछे झांकता....झांकता नहीं...कविता में उभरती अरुणा जी की ताज़ा तस्वीर देख रहीं हूँ.....साथ ही नज़र पड़ती है....उनके भविष्य पर भी......डोर नाज़ुक होकर और टूट जायेगी या मज़बूती पाएगी........
    पिछली कविता के वर्तमान का इस कविता में आगे के पूर्वानुमान से सामना हुआ....देख कर एक बार लगा...कि नहीं अरुणा जी को mercy killing का rights मिलना ही चाहिए मगर -

    'अपने को कहां ढूँढोगी ,
    कैसे पार पाओगी ?'

    ये दो पंक्तियाँ बहुत चुनौतीपूर्ण लगीं......दुनिया में हर चीज़ के परे एक अज्ञात शक्ति काम करती है (ऐसा मैं मानती हूँ...क्यूंकि ये मेरा स्पष्ट अनुभव है और अब विश्वास )..उसे भगवान् कह लें या कुछ और..............उसी का चिंतन karte हुए ''मैं'' भी इस क्षण ये सोच रही हूँ.......कि ''क्यूँ नहीं ढूंढ पाएंगी वे...कैसे नहीं पार पा लेंगी....जीजिविषा है...संवेदनाएं हैं...तो वे अभी तक वजूद में हैं....उन्हें अस्तित्व में यथावत रखने वाले संवेदनशील 'इंसान' मौजूद हैं... तो मुझे बिलकुल अचंभा नहीं होगा....किसी दिन टीवी और अखबारों की हेडलाईन ''..और अरुणा जाग गयीं''....से पटी पड़ीं हों....

    सोच रही हूँ ..kya ये महज आपकी कविता का प्रभाव था कि परसों और आज के मेरे कथनों में 'एक जीवन'' का अंतर आ गया......:(

    क्यूंकि....मैंने हमेशा दया या इच्छा मृत्यु का समर्थन किया है....केवल तब जब वे ''जायज़'' हों....और आज की कविता पढ़ते हुए..नए ही विचार पनपे....कि चमत्कार तो अंग है जीवन का...कह नहीं सकते मृत घोषित कर देने के बाद भी कोई जी उठे फिर से......तो ऐसे में सिर्फ इसी आशा की किरण के उजाले में हमें मृतप्राय: मरीजों/व्यक्तियों के प्राण सुरक्षित रखने चाहिए kya :(...???
    उफ़! बड़ी दुविधा में डाल दिया आपकी कविता ने तो...:(:(

    बहरहाल.....आपसे पूछने का मन हो रहा है....अगर आप चाहें तो बताईयेगा कि यदि आप अरुणा जी के परिजनों या उनके मित्रों में से एक होतीं प्रतिभा जी.......तो आप क्या चाहतीं उनके लिए..??? आपसे पहले मैं बता दूं हालाँकि आपने पूछा नहीं...फिर भी....परसों का दिन और समय होता तो ठोस लहज़े में कहती ..कि ''हाँ मैं चाहूंगी वे अपनी यातनाओं और पीड़ा से मुक्ति पा लें....सिर्फ अपनी संतुष्टि के लिए , उनकी 'उपस्थिति' बस के लिए मैं उन्हें ऐसी जिंदगी जीने के लिए मजबूर नहीं करती.....''
    और अगर अभी की बात करू तो..आज कुछ नहीं कह सकती......आपकी कविता ने सोचने के लिए इतने सारे बिंदु दे दिए...कि किस किस दिशा में ज़ेहन आज उलझने वाला है...बता नहीं सकती...मैं भी नहीं जानती...shayad mujhe ab samay chahiye apni soch ko spasht disha dene ke liye:(

    :(:(....अरुणा जी के साथ उनकी सेवा में रहने वाले लोगों के साक्षात्कार पढ़े हैं मैंने.....उनके अनुसार उनकी संवेदनाएं जीवित हैं...वे कभी कभी रोती भी हैं....साथ ही उनसे ऐसा ही व्यवहार किया जाता है जैसे वो उन सबकी tarah एक सामन्य इंसान हों..... अगर ऐसा है...तो अरुणा जी के मन की दशा कैसी होती होगी ना...कि इस दुनिया में जहाँ रक्त संबंधी झूठे मुंह रिश्ता निभाने तैयार नहीं....वहां अपरिचित लोग bina swarth ke, जतन से और मन से उनके लिए सेवारत हैं....क्या पता प्रतिभा जी...अरुणा जी के ह्रदय में दूसरों की भावनाएं हीं कंपित हो रहीं हों.....दिन रात उनकी सेवा करने वाले इंसानों का दिल अपने लिए धड़कता देख मारे ख़ुशी के उनकी सांसें भी प्रयत्न कर चलने की ..और चलते रहने की कोशिश कर रहीं हों.........?

    ...क्षमा कीजियेगा...सोचती हूँ हमेशा कि संयत होकर ही कोई प्रतिक्रिया दूँगी....मगर जब संयत हो जाती हूँ...तो मुझे शब्द नहीं मिलते.....दिमाग शून्य रहता है.........

    कविता को नमन....मुझे सोचने के लिए दशों दिशायें दीं...उसका आभार आपके लेखन को...

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  7. अरुणा ... मैं रोकर भी क्या करूँ
    रोऊँ तो कैसे रोऊँ
    तुम्हारे अन्दर तिल तिल कर निःशब्द गलती मेरी रूह भी है

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  8. अरूणा ...के बारे में जब भी पढ़ा मन व्‍यथित हो जाता है ...

    कितनी मार्मिक प्रस्‍तु‍ति है आपकी ...।

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  9. pehli baar parh raha hu apko. sach main bahut kamaal likhti hai aap.

    andar se kush khali-2 sa mehsoos hone laga hai.

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  10. *

    बहुत अस्थिर हो उठती हूँ ,

    पल-पल अनुभव करती हूँ तुम्हें अपने
    bahut bhavpoorn abhivyakti.

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  11. शकुन्तला बहादुर21 मार्च 2011 को 7:35 pm बजे

    अत्यन्त मार्मिक!! मन पर छा गई।

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