*
कितनी आवाज़ करते बजते हैं
खोखले शब्द .
जैसे रिक्त पात्र ज़रा टकराहट में
अपनी ही झनझनाहट से डोल जाए ,
दूसरे को लक्ष्य बनाते
स्वयं को तोल जाए .
*
भनकती -टनकती आवाजें ,
अपने ही कंपनों से आकुल,
उद्विग्न,चोट करती हुई
आवेश सघन.
*
अहं की बाधा तोड़ ,
अपने से आगे ,निकले होते
तो टोकरा भर शिकायते व्यंग्य ,कटूक्तियाँ
चुभन के दंश न होते .
हो आत्म ही असंयत डँवाडोल,
मन की उन्मुक्त
पुकार कैसे जागे !
*
काश होता स्वयं में आपूर्ण
अंतर-घट,
सार्थक, प्रेरक, ग्रहणीय ,
गहन-गंभीर स्वर उभरते,
स्नेह की छलक भरे .
वह रूप
कितना महनीय होता !
*