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बुधवार, 29 दिसंबर 2010

अंतर - घट

*
कितनी आवाज़ करते बजते हैं

खोखले शब्द .

जैसे रिक्त पात्र ज़रा टकराहट में

अपनी ही झनझनाहट से डोल जाए ,

दूसरे को लक्ष्य बनाते

स्वयं को तोल जाए .
*

भनकती -टनकती आवाजें ,

अपने ही कंपनों से आकुल,

उद्विग्न,चोट करती हुई

आवेश सघन.

*

अहं की बाधा तोड़ ,

अपने से आगे ,निकले होते

तो टोकरा भर शिकायते व्यंग्य ,कटूक्तियाँ

चुभन के दंश न होते .

हो आत्म ही असंयत डँवाडोल,

मन की उन्मुक्त

पुकार कैसे जागे !

*

काश होता स्वयं में आपूर्ण

अंतर-घट,

सार्थक, प्रेरक, ग्रहणीय ,

गहन-गंभीर स्वर उभरते,

स्नेह की छलक भरे .

वह रूप

कितना महनीय होता !

*



रविवार, 12 दिसंबर 2010

कवि से -

*

तिमिर स्तर कर पार ,मनमय कोष भास्वर

दीप्तिमय हर शब्द,ज्योतित पंक्तियाँ धर ,

कवि, तुम्हारे छंद, आरण्यक-स्वरों में

उदित ऊषाकाल के ऊर्जिल किरण- शर !

*

अक्षरित हो भू- पटल पर उभर आएँ

गमक भर-भऱ शिखर ,गुंजन द्रोणियों में

कवि ,तुम्हारे स्वरों से आश्वस्ति पा,

दुष्काल को भी अब लगेगें स्वप्न आने ,

हो गए हैं शब्द जो दिक्-काल व्यापी,

अजित अपरामेय अनुप्रेरित अनश्वर !

*

पहुँच पाये जब जहाँ तक यह सँदेशा

अनसुने कब तक रहेंगे ये प्रबोधन !

और कब तक नयन मीलित ही रहेंगे,

स्वच्छ निर्मल कर धरा जो सत्य-दर्पण

चेत को झकझोरते वे मंत्र फूँको ,

आज वैतालिक, कि जग जाए चराचर .

*