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बुधवार, 14 नवंबर 2018

ढलती धूप के अंतिम प्रहर में -

*
बीतते जाते प्रहर निःशब्द ,नीरव
नाम लेकर कौन अब आवाज़ देगा!

खड़ी हूँ अब रास्ते पर मैं थकी सी 
पार कितनी दूरियाँ बाकी अभी हैं.
बैठ जाऊँ बीच में थक कर अचानक
अनिश्चय से भरी यह  मुश्किल घड़ी है.

जब कि ढलती धूप का अंतिम प्रहर हो
कौन आकर साथ चलने को कहेगा.

कंटकों के जाल- ओझल डगर ढूँढूँ,
नयन धुँधलाते,विकल मन,फिर शिथिल पग,
चाव खो कर, भाव सबके देखना है,
चलेंगे कब तक विवश पग,यह विषम पथ.

क्या कहूँ किससे रहूँ किसको पुकारू ,
हारते  को यहाँ हिम्मत कौन देगा .

जब कुशल  व्यापार के गुर ही न जाने ,
लाभ के व्यवहार को अपना न पाया ,
कौन से गिनती-पहाड़े सीख लूँ अब
ब्याज कैसा, गाँठ का ही जब गँवाया.

दाँव अपना ही सुनिश्चित कर न पाऊँ ,
नियति का झटका कहाँ फिर ठौर देगा.

भीड़ में भटकी हुई पड़कर अकेली
हर तरफ टकरा रही किस ओर जाऊँ .
नींव जब विश्वास की ही हिल गई हो.
कौन से अधिकार की आशा लगाऊँ.

जब सरे बाज़ार निकला हो दिवाला
साँझ की बेला उधारी कौन देगा!
*



7 टिप्‍पणियां:

  1. आकुल मन की व्याकुल व्यथा कथा..मानव मन की विवशता को व्यक्त करती प्रभावशाली रचना !वैसे जब दिवाला ही निकल जाये तब किसी बात की फ़िक्र नहीं रहती..

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  2. वाह । काफी लम्बे अन्तराल के बाद शिप्रा की लहरों से दीदार हुआ।

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  3. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 15/11/2018 की बुलेटिन, " इंक्रेडिबल इंडिया के इंक्रेडिबल इंडियंस - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  4. डा.शकुन्तला बहादुर से प्राप्त -
    प्रतिभा जी,बच्चन जी की कविता याद आ रही है -
    “ मुझसे मिलने को कौन विकल , मैं होऊँ किसके हित चंचल ।
    ये प्रश्न शिथिल करता पग को , भरता उर में विह्वलता है।।
    - शकुन्तला बहादुर
    कैलिफ़ोर्निया

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  5. व्याकुल मन की उदास कविता ...
    पथिक चलता है और न चाहते हुए भी रास्ते पर रहता है ... साथ छूटते हैं ... कई बार नए मिलते हैं कई बार नहीं ... पर चलना शायद नियति है ... कई बार सांझ के बाद पूर्णिमा की रात आती है चाहे वो भोर की किरण न हो पर संबल जरूर होती है ...
    मन के गहरे भाव रचना बन के बह निकले हों जैसे ...

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