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शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014

कुँआरी नदी (समापन).

*
गूँजी आकुल टेर शोण की , सुन  हियरा काँपे
चौंके सारे अपन-पराये,  भागे   घबरा के ,
माँ की ममता लहर-लहर कर परसे अँसुअन साथ
मैखल पितु का हिरदा दरके कइसन धी रुकि जाय!
2
जुहिला रोवे ,सोनवा पुकारे तोरे पड़ें हम पाँय !
रेवा तो  सन्यास लिये, प्रण है - ना करूँ विवाह
 पंडित-पुरोहित पहाड़न से जम ,रोकन चहैं बहाव
बिखर सहस धारा बन छूटी अब कह कौन उपाय!
3
 राहों में पड़ गय बीहड़ बन माली और कहार ,
 नाऊ बारी ,अड़ते टीले, देखे आर न पार .
 हठ कर समा गई  तुरतै ही  गहरा भेड़ा घाट,
ताप हिया में ,नयनों में जल धुआँ-धुआँ,आकाश !(धुआँधार)
4
दासी-दास बियाकुल रोवैं झुक-झुक देवें धोक
वा को कुछू ना भाय. नरमदा ,कहीं न माने रोक
और अचानक अगले डग पर आया तल  गहवार
घहराकर नरमदा हहरती जा कूदी अनिवार
5.
वेग धायड़ी कुंड मथे हो खंड-खंड चट्टान ,
रगड़  प्रचंड कठिन  पाहन घिस  हुइ गए शालिगराम
केऊ की बात न कान सुनावे ,केऊ क मुँह ना लगाय
भाई-बहिना  फिर-फिर  टेरें रेवा ना सनकाय.
6.
दिसा दिसा की लगी टक-टकी थर-थर कँपै अकास
चित्र-लिखे   तरु-बीरुध ठाड़े पवन न खींचे साँस.
मारग कठिन ,अगम चट्टानें वा को कछु न लखाय
धरती पर जलधार बहाती रेवा बढ़ती जाय !
7.
उधर शोण अनुताप झेलता चलता रहा विकल चित,
व्यक्त कभी हो जाता बरसातों की उमड़न के मिस
 पार हुए  पच्चीस कोस , यों लगा बहुत चल आया ,
 गंगा को अर्पित कर दी तब गुण-दोषों मय काया
8.
 सुना नर्मदा ने ,पर उर  की पीड़ा किसे सुनाए ,
कोई ठौर विराम न पाये  जो थोड़ा थम जाए .
 व्रत ले लिया, निभाना होता नहीं सदा आसान,
 अँधियारे आदिम वन , मारग बीहड़ औ'सुनसान .
9.
जीव जगत की साँसों की धुन छा जाती  इकसार,
झिल्ली की झन्-झन् का बजने लगता जब इकतार ,
 प्रकृति   नींद में डूबी  ,  औँघा जाती सभी दिशाएँ
 करुण रुदन के स्वर सुन थहरा जातीं स्तब्ध निशाएँ !

10.
कुछ अधनींदे राही ,सुन लेते हलकी सी सिसकी ,
लगता जैसे  रुकी पड़ी है कहीं कंठ में हिचकी.
किसे सौंप दे जल कि अपावन पड़े न कोई छाया.
रेवा रही खोजती ऐसी दिव्य पुनीतम काया !
11.
पिता गरल पायी, वह भी पी गई सभी कड़ुआहट ,
इस जग के जीवन के पथ में है  कौन, न हो जो आहत?
कितना लंबा मार्ग और जीवन की उलझी रेखा,
पार किया आ गई  नर्मदा, ले कर अपना लेखा !
12.
भृगु कच्छ तीर्थ सीमान्त ,

वहीं पितृ-चरणों में झुक गई क्लान्त .
पा सोमनाथ की नेह दृष्टि सोमोद्भव रेवा हुई  शान्त.
पग-पग कर कल्याण, जगत हित करती आई धन्या
उस निर्वाण-प्रहर में सिन्धु बन गई पर्वत-कन्या !
*
प्रणाम -

 विपुल पश्चाताप में आश्वस्ति तुम प्रयश्चितों सी ,
तुम्हीं शुभ आवृत्ति अंतर्भावना के धारकों सी!
तुम सतत सौन्दर्य के लिपि-अंकनों से पूर क्षिति को,
 शाप-ताप विनाशिनी मम वाक् पर आशीष बरसो1

*
 आदि मकरारूढ़ जीवन-जलधि की तुम दिव्य-कन्या,
शुभ्रता की राशि , कलुष निवारिणी तुम ही अनन्या ,

लो अशेष प्रणाम ,मन-वच-कर्म की सन्निधि तुम्हीं हो,
प्रलय में भी लय न, चिद्रूपे  ,सतत ऊर्जस्विनी हो !

*

15 टिप्‍पणियां:

  1. Bahut sunder kabira ke zamaane ki yaad dila di aapne :) ...badhaayi !!

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  2. aisa laga jaise koi film khatm hui ho..koi katha poorn hui ho..ya yun kahiye adhuri katha ka kavya poorn hua.hum insaan bhi na jaane kyun apne hi drishtikon se apoornta ya poornata ka bodh karna chahte hain. maa Rewa ke pravah ke maanvikaran kee ye kavita mann me maa ke liye ek tees jagati hui jaati hai...halanki aapne samaapan to sakaratmak hi kiya.
    ek achha sa sakaratmak arth bhi mann ne grahan kiya. 'apni peeda ko jaghit se jod kar..doosron kee peeda nivaran ka uddeshya banakar us agyaat param satta me ekaakaar ho jaane ka' :''-)

    ek aasakti fir virakti aur fir antim sopan 'nirvan' ka......adbhut si adhyatmik anubhooti ho rahi hai ye shabd likhte hue.
    bahut bahut aabhaar Pratibhaji.aur badhayi dher si..Maa Rewa ki is gaatha ke liye..param saubhagya mera k main is kaavya kee pathika bani..:')

    ek anurodh ::: :-| Swami Vivekanand per likhiye na aisa hi kuch pleeeeeeeeeeeeeeeeeeeeez :(..maine kabbi nai padha unpe likha kavyatmak sa kuch. bas gadhy hi padha hai. unhe padhna kitta maha sukhad aur alaukik hoga aur wo bhi aapki lekhni se...woww....main to imagine karke hi koodne lagi.kitta maza aayega :D

    :( vichar kijiyega okay.

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  3. शकुन्तला बहादुर7 अक्टूबर 2014 को 8:47 pm बजे

    नर्मदा की जीवनगाथा प्रेरक है । अपनी अस्मिता की रक्षा और और दृढ़-संकल्प की पूर्णता नर्मदा के चरित्र को बहुत ऊँचा उठाती है। प्रणाम के अन्तिम दो छंद तो अद्भुत और प्रशंसनीय हैं । कथा की समाप्ति प्रभावी है ।
    प्रतिभा जी को इस सुन्दर काव्य कृति हेतु हार्दिक- बधाई !!

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  4. अध्बुध ... प्रेरक ... बहुत ही प्रभावी नर्मदा की गाथा ... इसकी अविरल धारा लम्बे समय तक प्रवाहित होती रहेगी मानस पर ...

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  5. क्या कविता, क्या कथ्य, क्या प्रवाह, क्या तथ्य - सब अत्यंत प्रसन्नतादायी है।
    और अंतिम दो छंद!!!
    नहीं, मैं विस्मित नहीं हूँ - आप का लिखा पढता रहा हूँ। हाँ, गदगद हूँ, माँ नर्मदा और आपके आगे प्रणत भी
    सौभाग्यशाली हूँ प्रतिभा जी, जो आपका लेखन पढ़ पाता हूँ।

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