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गुरुवार, 14 अगस्त 2014

सर्वग्रासी -

*
यह सर्वग्रासी राग  !
संपूर्ण वृत्तियों को निज में समाहित कर  ,
सारी बोधों आच्छादित कर,

 वर्तमान से परे खींच ले जाता 
 अजाने काल-खंडों में .      ,
धरी रह जाती है चाक-चौबन्द सजगता,
विदग्धता विवश ,अवधान भ्रमित ,
सारी सन्नद्धता हवा,
और दिशा-बोध खोई मैं !
  *
अचानक रुकी रह जाती हूँ
जहाँ की तहाँ -
सब अनपहचाना ,
बेगाना ,निरर्थक .
लुप्त दिशा बोध .
वहीं के वहीं ,
कौन से आयामों में उतर कर   

संपूर्ण चेतना अनायास ,
अस्तित्व विलीन  !
 *
निर्णय नहीं कर पाती -
कहाँ हूँ !
घेर लेता चतुर्दिक् जो सर्वग्रासी राग
जीने नहीं देता .
कैसी- तो अतीन्द्रियता
डुबा लेती अपने आप में .
जैसे मैं, मैं नहीं,
रह जाए अटकी-सी  ,
हवाओं में भटकती,
कोई तन्मय तान !
*

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर प्रस्तुति.
    इस पोस्ट की चर्चा, रविवार, दिनांक :- 17/08/2014 को "एक लड़की की शिनाख्त" :चर्चा मंच :चर्चा अंक:1708 पर.

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  2. वाह.... कमाल है. शब्दों को जब पंख लग जाए तो ..........

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  3. जब मैं नहीं तब वही वही है...अति सुंदर भाव..

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  4. जीवन के पड़ाव की अनुभूति का चित्रण इस से बेहतर हो ही नहीं सकता । आपके दीर्घायु की कामना करता हूँ । आखिरी सांस तक लेखनी यू ही चलती रहे।

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  5. भावनाओं का सुन्‍दर स्‍वरूप शब्‍दों में मुखर हो रहा है
    सादर

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  6. सर्वग्रासी राग?
    मानव-मन की विधाएं अनेक,गुजरना ही होता है.

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