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मंगलवार, 25 मार्च 2014

जुड़ीं क्षिति की टूटती जीवन-लकीरें..

{क्षीण होती शिप्रा और सतत प्रवाहिनी नर्मदा के,मनुज 
के भागीरथी प्रयत्नों द्वारा प्रायोजित, संगम से उत्प्रेरित -}
*
आज शीतल हो गए मन-प्राण ,
सुख का ज्वार उमड़ा ,
मेखला कटि की विखंडित अब न होगी .
मालवा की भूमि यों दंडित न होगी ,
और उत्तरगामिनी शिप्रा पुनीता ,
अब किसी उत्ताप से कुंठित न होगी .
*
अब न सूखेगा कभी
कितनी  तपन हो ,
तुष्टि से परिपूर्ण  
रुक्ष- विदीर्ण अंतर.
तटों का वैभव न अब श्री-हीन होगा 
आस्थाएँ जी गईँ  विश्वास से भर .
जुड़ीं क्षिति की टूटती जीवन-लकीरें,
राग शिप्रा और रेवा के मिले 
जल ने तरल रँग से 
लिखे  नूतन स्वराक्षर.
*
हो गई थी मनुज के अतिचार की अति,
असीमित तृष्णा,विषम व्यवहार की गति,
प्रकृति पर निस्सीम अत्याचार , दुर्मति,
 पाप, बन कर  शाप सिर पर आ पड़ा,
तब बौखलाया मनुज,
विपदा-ग्रस्त बेबस .
उमड़ता परिताप- पश्चाताप से भर,
दिग्भ्रमित साधन न कोई ,आश कोई,
विपद् में  अनयास माँ ही याद आई .
*
विषम अंतर्दाह भर कातर हुआ स्वर -
'शमित कर दो पाप ,
यह क्षिति-तल सँवारो ,
नर्मदे, इस तट पधारो, 
शाप के प्रतिकार हित माँ  ,
चेत-हत शिप्रा गँभीरा को उबारो,
आदिकल्पों से धरा को पोसती
हे मकर वाहिनि  ,
मुमूर्षित यह भू उबारो
अमृत-पय धारिणि, पधारो !'
  *
चल पड़ा क्रम साधना का
एक ही रट ले कि माँ अनुकूल होओ .
जन-मनोरथ जुट गया अविराम 
करता अगम तप , मन-कर्म-वच रत ,
'माँ ढलो  ,इस दिशि चरण धर
त्रस्त जीवन को सँवारो ,
शाप से उद्धार हित, 
सोमोद्भवे रेवा पधारो ,
माँ ,उबारो !'
*
आशुतोषी नर्मदा  की धन्य धारा
 झलझलाया नीर ,
करुण पुकार  सुन विगलित मना ,
उन्मुख हुईँ,
माँ नर्मदा ले उमड़ता उर
वेग भर बाहें पसारे ,
चल पड़ीं दुर्गम पथों को पार करती,
आ गई संजीवनी बन .
*
क्षीण शिप्रा,उमग आई  चेत भर
 भुज भर मिलीं आकंठ
 आलिंगन सुदृढ़ अविछिन्न !
नेह ! जल में जल सजलतर हो समाया,
कण ,कणों में घुले,
अणु में अणु  गये  ढल  ,
मिलन के कुछ सुनहरे पल ,
लिख गये स्वर्णाक्षरों में
मनुज की भागीरथी
श्रम-साधना के पृष्ठ उज्ज्वल !
*
पुण्य संगम , 
तीर्थ की महिमा महत्तम,
निरखते अनिमेष
युग-युग से पिपासित नयन ,
 दुर्लभ तृप्ति ,परमाश्वस्ति
 मैं साक्षी
 यही सौभाग्य क्या कम !
सिक्त प्राणों में अनोखी स्वस्ति.
 हो कृतकृत्य अंतर
 शान्त, स्निग्ध, प्रसन्न !
*
अमल -शीतल परस ,
यह नेहार्द्र धरती,
सरस्वति के हास से धवलित दिशाएँ ,
रजत के शत-शत चँदोबे
तानती निर्मल निशाएँ ,
सतत दिव्यानुभूति भरती
ओर-छोर अपार सुख-सुषमा प्रवाहित.
*
हरित वन में उठ रही हो 
टेसुओं की दहक ,
नयन-काजल पुँछे
माँ के श्याम आँचल की महक .
इस  प्राण-वीणा में बजे अविराम
जन्मान्तर-जनम तक
जल-तरंगित, रम्य शिप्रा के क्वणन.
अहर्निश, अनयास,अव्यय            
अनाहत ,अविछिन्न
अनहद-नाद की सरगम !
*

गुरुवार, 20 मार्च 2014

सत-बहिनी

{  कत्थई-भूरे रंग की पीली चोंचवाली चिड़ियाँ होती हैं जिनका का पूरा झुंड पेड़ों पर या,क्यारियों में आँगन में उतर कर चहक-चहक कर खूब शोर मचाता है .
उनके विषय में एक  कथा प्रचलित है - सात बहनें थी,और सबसे छोटा एक भाई। सातों बहनें एक ही गाँव में ब्याही थीं। आगे कथा इस प्रकार चलती है -}

अँगना में रौरा मचाइल चिरैयाँ सत-बहिनी !
बिरछन पे चिक-चिक ,किरैयन में किच-किच
चोंचें नचाइ पियरी पियरी !चिरैयाँ सत-बहिनी ..

एकहि गाँव बियाहिल सातों बहिनी,मइके अकेल छोट भइया ,
'बिटियन की सुध लै आवहु रे बिटवा ' कहि के पठाय दिहिल मइया !

'माई पठाइल रे भइया ', मगन भइ गइलीं चिरैंयाँ सत-बहिनी !'

सात बहिन घर आइत-जाइत ,मुख सुखला ,थक भइला ,
साँझ परिल तो माँगि बिदा ,भइया आपुन घर गइला !
अगिल भोर पनघट पर हँसि-हँसि बतियइली सतबहिनी !

'हमका दिहिन भैया सतरँग लँहगा' ,'हम पाये पियरी चुनरिया' ,
'सेंदुर-बिछिया हमका मिलिगा' ,'हम बाहँन भर चुरियाँ' !
'भोजन पानी कौने कीन्हेल',अब बूझैं सतबहिनी !
'का पकवान खिलावा री जिजिया' , 'मीठ दही तू दिहली' ,
'री छोटी तू चिवरा बतासा चलती बार न किहली !'
तू-तू करि-करि सबै रिसावैं गरियावैं सतबहिनी !

'भूखा -पियासा गयेल मोर भइया , कोउ न रसोई जिमउली ,
दधि-रोचन का सगुन न कीन्हेल कहि -कहि सातों रोइली ',
उदबेगिल सब दोष लगावैं रोइ-रोइ सतबहिनी !
' तुम ना खबाएल जेठी ?', 'तू का किहिल कनइठी?' इक दूसर सों कहलीं
एकल हमार भइया, कोऊ तओ न पुछली सब पछताइतत रहिलीं !

साँझ सकारे नित चिचिहाव मचावें गुरगुचियाँ सतबहिनी !
*

रविवार, 9 मार्च 2014

सागर के नाम ,

*

लिख रही अविराम सरिता  ,
नेह के संदेश .
पंक्तियों पर पंक्ति लहराती बही जाती
 सिहरती तनु अंगुलियों से आँकती
बहती नदी जो सिक्त आखर .
 अर्घ्य की अंजलि समर्पित,
 तुम्हें सागर !
*
क्या पता कितनी नमी
चलती हवा सोखे
उड़ा ले जाय ,
वर्तुलों में घूमते इस भँवर-जल के
जाल में रह जाय.
उमड़ती अभिव्यक्तियाँ तट की बरज पा
 रेत-घासों में बिखर खो जायँ !
*
 आड़  बन कर जो खड़े ,
इन तटों से पूछो कि जो
 हर दिन-दुहपरी सुन रहे निश्वास गहरे.
लिख रही अविराम ,अनथक
 भीगते लिपि-अंकनों में,
तुम्हीं को संबोध!
सागर !
*
जन्म से अवसान तक
ये राह ,
अनगढ़ पत्थरों से
सतत टकराती बिछलती,
विवश सी ढलती-सँभलती .
तुम्हीं से उन्मुख,
तुम्हारी ओर
 सागर !
*
नियति ,कितना कहाँ  भटकाये.
नीर की इस सतह पर 
लिखती चली जो
नाम से मेरे कभी पहुँचे ,
न पहुँचे,
और ही जल -राशि में रल जाय !
या कि बाढ़ों में बहक
सब अर्थमयता ,
व्यर्थ फटक उड़ाय !
*
कर बढ़ा कर ,
तुम्ही कर लेना ग्रहण
 जो भी बचा रह जाय .
सागर!
 समा लेना
 हृदय के गहरे  अतल में,
बने जो निर्वाण मेरा ,
 लेश ही वह ,हो रहे
निहितार्थ का पर्याय !
*