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मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

एक खोज.


बहुत छोटी थी. काल-खंड कुछ घटनाओँ के समीप का इसलिये ध्यान रह गया. मुझसे छोटा भाई मीठे का इतना प्रेमी (अब भी है) कि 'मीठे का चींटा' कहलाता.और कुछ नहीं तो शक्कर ही मुट्ठी भर-भर फाँकता था. और उन दिनों शक्कर की बड़ी किल्लत थी. उस दिन सुबह-सुबह चीख-चीख कर आसमान सिर पर उठाये था, 'लाओ शक्कर ,लाओ गुड़ नहीं तो लाओ पेड़ा-पेठा' . घऱ में शक्कर नहीं और वह न दूध पीने के तैयार न कुछ खाने को आँखें बंद कर रोना-चीखना मचाए! पड़ोस के चाचाजी तक  हिल गए. अपने घर से मीठा लेकर आये तब शान्ति हुई. 
तो बात 1942और 44 के बीच की रही होगी, ग्वालियर स्टेट की. द्वितीय विश्व-युद्ध की विभीषिका .गेहूँ भी तब दुर्लभ हो गये थे, एक सिमटा-सिमटा लाल-सा नाज (नाम हिलो-मिलो)चला था. नेताजी सुभाष को भी तभी से जाना था.
 विज्ञ-जनों की सहायता चाहिये सो इतना बताना ज़रूरी लगा.
लेकिन हिन्दी अख़बारों का वह स्वर्ण-काल रहा होगा! अखबार और ख़बरें घर में भरी रहती थीं .बच्चों के बड़े मन-भावन सेक्शन(बाल पत्रिकाएँ अलग से भी ) जिनमें बेहद प्यारी कविताएँ -कहानियाँ .अक्षर-ज्ञान के बाद पढ़ने की शुरुआत थी मेरी,कविताओं और कहानियों में माँ की बहुत रुचि थी .सुनतीं और सुनातीं थीं . 
कुछ तो मुझे इतना भाईं कि अपने बच्चों की बार सुनाती रही, बीच-बीच का जो भूली उसे अपने शब्दों से पूरा कर लिया.बच्चों के बच्चे भी सुनते-आनन्दित होते रहे. पर पूरी असली रचना पढ़ने की इच्छा बनी रह गई .ऐसी कोई सुविधा नहीं मिली थी कि जानकारों से संपर्क कर सकूँ. अब नेट पर अवसर मिला है.
 उनमें से एक प्रस्तुत है ,,पूरी असली कविता नहीं ,बीच-बीच में मेरा जोड़-तोड़,खिचड़ी बन गई है.क्षेपक हटा कर असली रचना पढ़ने का आनन्द ही कुछ और होगा.
विज्ञ-जनों से निवेदन है, कवि का नाम और असली रचना यदि कोई दे सके तो परम कृतज्ञ होऊंगी.किसी दैनिक के बच्चों के स्तंभ मे प्रकाशित हुई थी -
 चिड़ियों का बाज़ार -
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 चिड़ियों ने बाज़ार लगाया,एक कुंज को ख़ूब सजाया
तितली लाई सुंदर पत्ते ,मकड़ी लाई कपड़े-लत्ते,
बुलबुल लाई फूल रँगीले,रंग-बिरंगे पीले-नीले .
तोता तूत और झरबेरी ,भर कर लाया कई चँगेरी.
*
पंख सजीले लाया मोर,अंडे लाया अंडे चोर 
गौरैया ले आई दाने ,बत्तख सजाए ताल-मखाने ,
कोयल और कबूतर कौआ,ले कर अपना झोला झउआ,
करने को निकले बाज़ार,ठेले पर बिक रहे अनार
*
कोयल ने कुछ आम खरीदे,कौए ने बादाम खरीदे ,
गौरैया से ले कर दाने ,गुटर कबूतर बैठा खाने .
करे सभी जन अपना काम,करते सौदा ,देते दाम
कौए को कुछ और न धंधा ,उसने देखा दिन का अंधा,
*
बैठा है अंडे रख आगे ,तब उसके औगुन झट जागे,
उसने सबकी नज़र बचा कर ,उसके अंडे चुरा-चुरा कर 
कोयल की जाली में जा कर ,डाल दिये चुपचाप छिपा कर,
फिर वह उल्लू से यों बोला ,'क्या बैठ रख खाली झोला' ,
*
उल्लू ने जब यह सुन पाया 'चोर-चोर' कह के चिल्लाया .
हल्ला गुल्ला मचा वहाँ तो, किससे पूछें बता सके जो ,
कौन ले गया मेरे अंडे, पीटो उसको ले कर डंडे,
बोला ले लो नंगा-झोरी ,अभी निकल आयेगी चोरी .
*
सब लाइन से चलते आए ,लेकिन कुछ भी हाथ न आये
जब कोयल की जाली आई ,उसमें अंडे पड़े दिखाई . 
सब के आगे वह बेचारी , क्या बोले आफ़त की मारी 
'हाय, करूँ क्या?'कोयल रोई ,किन्तु वहाँ क्या करता कोई 
*
 आँखों मे आँसू लटकाए, बड़े हितू बन फिर बढ़ आए,
बोले,' बहिन तुम्हारी निंदा ,सुन मैं हुआ बहुत शर्मिंदा.'
राज-हंस की लगी कचहरी, छान-बीन होती थी गहरी .
सोच विचार कर रहे सारे,न्यायधीश ने बचन उचारे -
*
'जो अपना ही सेती नहीं दुसरे का वह लेगी कहीं!
आओ कोई आगे आओ ,देखा हो तो सच बतलाओ ,
रहे दूध, पानी हो पानी ,बने न्याय की एक कहानी. '
गौरैया तब आगे आई ,उसने सच्ची बात बताई .
*
कौए की सब कारस्तानी आँखों देखी कही ज़ुबानी.
मन का भी यह कौआ काला,उसे सभा से गया निकाला.
गिद्ध- सिपाही बढ़ कर आया ,कौए का सिर गया मुँड़ाया .
राजहंस की बुद्धि सयानी,तब से सब ने जानी मानी !  
*

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

राजा है बसंत..


*

राजा है बसंत, ऋतुराज नाम कहै देत, सारी ऋतुअन सों नज़राना धरावत है.
सरद में सारदा को करन प्रनाम, एक माह पहिले ही आय आगमन जनावत है ,
*
जाड़े की ठिठुरन को ठाकुर ठिराय कहत ,चौरहे सजाये सारे होरिका जरावन को,
संयम को ढील दै जो भावै बकि लेहु, चाहे गारी में, चाहे कबीर अरु फागन सों,
*
होरी को हुरंग, जड़-जीव फगुनाय रहे ,  बिसरी मरजाद नर-नारी सुभावन में
बाबा भी देउर समान बनि जात इहाँ,  बिरछ हू जात बौराये ई फागुन में.
*
बुरा को माने, ई तो मदन खिलावत, बुहार देत मनोजाल मुक्त द्वार खोलि के
राजा को अदेस को विरोध करे कौन, अंतर को कबाड़ हू जरावत है होलिके.
*
रागरंग देखि भूलि साखी औ रमैनी, अंड-बंड बकै लाग, ढंग देखो कबीर को,
मधु और माधव मचाय रहे धूम, जड़-जंगम में मनसिज सों पायो है जीत को?
*

शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

जैसे तुम!

*
चाहती हूँ स्वीकृति -
कि मैं हूँ एक व्यक्ति
अभिव्यक्ति सहित .
उन्हीं क्षमताओं दुर्बलताओं सँग आई हूँ ,
बुद्धि-संवेगों की वही भेंट पाई हूँ ,
 जैसे तुम !
*
कितनी मुश्किलें,
पर फिर भी यहीं खड़ी हूँ .
 जीवन की डोर थाम ,
आर-पार लगातार गिरी और चढ़ी हूँ .
एक दीर्घ स्वर और धार कर आई
वही गाँठ बाँध धारे हूँ !
 हल्की हूँ तन से
मन से बहुत भारी हूँ .
नारी हूँ !
*
कभी भुक्ति ,कभी मुक्ति,
शांति-भ्रांति या कि अहं ,
भागते हो घबरा कर
अपने लिये तुम.
अपने नहीं ,
अपनों के लिये हारी हूँ.
नारी हूँ !
 *
थोड़ा- सा अधिक और -
 कुंठित मत होना !
ममता के सूत कात घनताएँ वहने को ,
सृजन की उठा-पटक,
 दारुण-पल सहने को ,
सहज  नहीं मरती ,
कठोर जान लाई हूँ !
व्यक्ति-अभिव्यक्ति सभी ,
नहीं परछाईँ हूँ !
जैसे तुम !
*