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बुधवार, 5 अक्टूबर 2011

भू- स्तवन. ( उत्तरार्द्ध ).


*
देह को परिमापते अक्षाँश-देशान्तर सुकल्पित ,
रुचिर रेशम-डोरियाँ  ज्यों कसें तन-संभार सुललित
शिखर हिम के धर धरणि, हेमल किरीटी हो रहीं तुम
दिवस के स्वर्णावरण , हर रात्रि का अभिसार नूतन ,
*
स्वर्ण -रत्नों भरा अंतर सजल करुणा से भरा उर
.खग-मृगों से क्रीड़िता ,कल्लोल कलरव से रहीं भर
नित नया धन-धान्य पूरित धारतीं भंडार अक्षय
सहन शक्ति अपार सबका ही बनी आधार निर्भय ..
*
स्नेह उर से हो निसृत  अमृतमयी पय धार सरसा
पर्णपाती कहीं सदाबहार वन ,के रोम हरषा,.
घाटियाँ फूलोंभरी ,तरुराजियों से पूर गिरि वन ,
ले अमित वरदान जगती के लिये वात्सल्यमयि तुम
*
आदि- अंत विहीन अव्यय-नाद की अनुगूँज धारे  
धरणि-गंधा रज बनाती औ'समाती रूप सारे
शरण्ये,,श्री-सहचरी, तुम रेणुमयि परमा परम् हे
महा करुणा रूपिणी जननी तुम्हें शत-कोटि वंदन .
*
किन्तु जब अतिचार पर उद्धत मनुज स्वार्थांध होकर
लालसाओं के लिये औचित्य को दे मार ठोकर  ,
 निराकृत हो रूप धर  प्रतिकार हित बन सर्वनाशी
सृष्टि के उस पाप को जड़-मूल से उच्छिन्न करतीं ..
*
थरथरातीं दिशायें  ,अँगड़ाइयाँ जब क्रुद्ध भरतीं  ,
तुम्हीं ले भूकंप ,सागर जल उलटतीं औ'पलटतीं ,
फूँक ज्वालायें   गगन में धूम की जलती फुहारें
 तरल अग्रि -प्रवाह सा  लावा उगलतीं क्रुद्ध धारें.
*
रौद्र रूप धरे ,कि अंतर में उठे जब क्षुब्ध ज्वाला,
प्रलय सी उद्धत ,तुम्हीं बन चंडिका काली कराला,
कर रहीं प्रतिकार लिप्सा -लोभ अति दुर्नीतियों का ,
द्रोह का ,निस्सीम बढ़ती लालसा के  संवरण का .
*
माँ धरणि के पुत्र तुम मानव समर्थ सुबुद्ध दृढ़मति
मिली क्षमतायें सभी, मत स्वा,र्थ वश करना न तुम अति
बने एक कुटुंब वसुधा  ,जीव-जग सब ही सहोदर
सभी को अधिकार देना और उनका भाग सादर..
*
पूर्ण विकसित रूप दे मानव तुझे  माँ  ने  सहेजा,
शुभाशंसा सृष्टि की ले सर्वभूतों की कुशलता ,
मान कर दायित्व अपना ,आत्म निष्ठ विचारणा से
भावना से भर  विवेकी बुद्धि से, शुभ-कामना से .
*
फिर धरा के मंच पर नव-सृष्टि का शुभ अवतरण हो,
कुटुंबिनि का रूप धऱ सब प्राणियों में भाव सम हो !
.हो सभी चैतन्य पाकर दिव्यता के अमृत स्पंदन,
इसी रज से रचित हो कर सुवासित तन ,धन्य जीवन .
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7 टिप्‍पणियां:

  1. फिर धरा के मंच पर नव-सृष्टि का शुभ अवतरण हो,
    बहुत सुंदर भाव और लय-छंद बद्ध रचना।
    आभार। विजयदशमी की शुभकामनाए।
    आपको पढ़ते वक़्त प्रसाद जी की याद आ जाती है।

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  2. अद्भुत भावाभिव्यक्ति, सुन्दर शब्द संयोजन।

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  3. पूर्ण विकसित रूप दे मानव तुझे माँ ने सहेजा,
    शुभाशंसा सृष्टि की ले सर्वभूतों की कुशलता ,
    मान कर दायित्व अपना ,आत्म निष्ठ विचारणा से
    भावना से भर विवेकी बुद्धि से, शुभ-कामना से .

    अद्भुत काव्य व भावाभिव्यक्ति।

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  4. सुन्दर शब्द संयोजन. अद्भुत प्रस्तुति में मनमोहिनी भावाभिव्यक्ति. आभार.

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  5. अहा!
    मन को तृप्त करता है यह काव्य।
    सचमुच, माता धरित्री के वंदन हेतु योग्य शब्द यही हैं।

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  6. ।''माँ धरणि के पुत्र.... उनका भाग सादर''

    इस छंद के पहले तक मन प्रसन्न होता रहा..काव्य सौन्दर्य से आनंदित होता रहा। प्राकृतिक आपदाओं को आपके शब्दों और दृष्टिकोण के साथ मेरे मन ने भी सही ठहराया।
    परन्तु उपरोक्त चुनी हुईं पंक्तियों को पढ़ते पढ़ते लगा जैसे शब्द साधना भंग हो रही हो।करारा प्रहार हुआ अंतरात्मा पर । जाने अनजाने स्वयं के द्वारा किये गए प्रकृति विरोधी कृत्य चलचित्र की भाँति आँखों के आगे घूमने लगे। और विचलित हुई तो ध्यान भटक कर दुनिया भर की ख़बरों और अनुभवों पर मंडराने लगा। अत्यंत लज्जा का अनुभव हुआ आपकी इस कविता के आगे। मन अपराध बोध से ग्रसित था इस क्षण।

    आगे पढ़ा ...

    ''पूर्ण विकसित रूप ..... शुभ-कामना से ''

    ...और स्वयं को संभाला...खुद को वचन दिया आगे से सतर्क और सजग रहने का। अब से अपने साथ साथ आस पास के लोगों को भी सावधान करती रहूँगी।

    जब पूर्वार्द्ध पढ़ी थी तब उसके कुछ दिनों पहले सिक्किम और नेपाल भूकंप से दहले हुए थे...आज ये रचना पढ़ रही हूँ तो तुर्की में ध्वस्त मकानों और बदहवास भागते रहवासियों की छवि बार बार उभर रही है। मन भीगा है एकदम..कारण और निवारण दोनों ही हम हैं..किन्तु कहाँ अपने स्वार्थ से ऊपर उठ पाता है मनुष्य...या यूँ कहूँ कि उठना ही नहीं चाहता है।और इसमें मैं भी शामिल ही हूँ :(

    ख़ैर,
    अच्छा हुआ प्रतिभा जी...बहुत आभार आपका..आपने ये दोनों रचनायें लिखीं...माँ धरती की आराधना के साथ साथ शायद बहुत से पाठक धरती के प्रति अपने कर्तव्यों को जानने,समझने और उन्हें आत्मसात करने का प्रयत्न करेंगे ,मैं भी।

    नमन आपकी लेखनी को !

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