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सोमवार, 5 सितंबर 2011

वसुषेण


*
 यह  कविता लिखने को प्रेरित किया था  मेरी मित्र शार्दुला जी ने.
जिनने पूर्ति हेतु एक वाक्यांश दिया था -'कर्ण! क्या तुमने था सोचा'
मैंने जो  पंक्तियाँ लिखीं ,उनके आगे  उनके दो प्रश्न खड़े हो गये.
( उनकी पूरी कविता न दे कर दोनों प्रश्नों वाला अंश प्रस्तुत कर रही हूँ )
जिेनके समाधान हेतु 'वसुषेण ' की रचना हुई.--
*
. कर्ण!
मैं तुम्हारी हूँ प्रशंसक, ये प्रकाशित
मात्र दो ही उत्तरों की हूँ अपेक्षित
अपमान कर के द्रौपदी का, चैन आया हाथ?
अभिमन्युवध के बाद  क्या तुम सो सके एक रात?
क्यों  श्रृंगालों सा सिंह शावक दबोचा ?
कर्ण! तुमने क्या था सोचा!
-शार्दुला, 
**
मेरी बात -
दीर्घ अवधि से संचित क्रोध और प्रतिशोध की ज्वाला जब धधक उठती है तो इन्सान को कुछ नहीं सूझता .मनुष्य अंततः मनुष्य है- अपनी दुर्बलताओं और सामर्थ्य दोनों के साथ ..
-वसुषेण ( कर्ण )की उस मनस्थिति की कल्पना कर सकती हूँ .
.प्रस्तुत है -
*
वसुषेण -
मेरा बस कब रहा कहीं ,यों ही यह जीवन बीता
देख लिया कितने आडंबर कितने मिथ्यावंचन,
अंक लिखे विधि ने ,जाने कितनी काली स्याही से,
सारा कुछ कलंक बन बैठा ,जो कर पाया अर्जन.
*
अपना कभी न समझा जिनने मुझे हीन ही माना, .
यहाँ एक के ही कारण तो हुआ सदा अपमानित,
प्रतिद्वंद्वी सा पार्थ खड़ा हो जाता बाधा बन कर
पैने व्यंग्य-बाण लहराती कृष्णा भी चिर-परिचित !
*
नामी वंश ,काल के क्रम में छायायें डस लेतीं
कुछ होते  शृंगार किन्तु कुछ बन  अंगार दहाते ,
कुल ही क्या अनिवार्य योग्यता मान न कुछ पौरुष का
पौरुषहीन  नपुंसक रोगी भी कुलीन  कहलाते ,
*
मानव के संस्कार ,भंगिमा ,वाणी , दीपित अंतर,
तन-मन का विन्यास ,सहज औदात्य तत्व पूरित उर
सारी क्षमताएं फिर भी मैं  हीन रहा परपेक्षी ,
कौन शमित कर पाया विषम व्यथा देते वे कटु स्वर !
*
जिसने  बहा दिया पानी में बड़ी कुलीना होगी
हतभागा वसुषेण  ,भाग्यशाली  कितना द्वैपायन
 कुमारिका धीवर -माता  की ममता की  स्वीकृति पा
जो उदाहरण  सम्मुख उसको मेरा शत-शत वंदन  !
*
एक दूसरी कुलवंती का हठ 'अभिमान प्रबल था ,
मेरा पौरुष प्रखर , शौर्य  हर बार रह गया ओझल,
सारे पूर्वाग्रह लेकर अपने ऊहापोहों में,
आत्मकेन्द्रित हो मेरा व्यक्तित्व कर दिया निष्फल !
*
वहाँ सभा के बीच सभी को टेर-टेर कर हारी ,
एक बार ,बस एक बार  चाहती कर्ण का संबल ,
टकरा जाता स्वयं काल से लाज बचाने के हित ,
किन्तु उपेक्षित रहा वहाँ भी , दहक उठा अंतस्तल
*
टूट गया मैं , सारे पिछले घाव हरे हो आये
.क्रोध और प्रतिशोध अंध कर गया विभ्रमित मति को ,
कौन विचार करे उस पल तुल गया कि कुछ कर बैठूँ ,
कौन लगाता अंकुश तब विक्षुब्ध हृदय की गति को
*
कौन बचायेगा अब देखूँ ,बहुत परीक्षा ले ली ,
देखूं यह कुलीन तन औरों से कितना न्यारा है
हार नहीं मानी पर मेरा यह अस्तित्व अभागा
अपनी मान-प्रतिष्ठा खो कर लगता बेचारा है..
*
इस अकुलीन कर्ण से, कृष्णा कैसे कुछ चाहेगी ,
इतना द्वेष प्रतारण का कुछ तो चुक जाये बदला
और उसी आवेशित क्षण में क्षुब्ध हृदय पगलाया
आज अभी चुकता कर लूँ  सारा अगला-पिछला.
*
और दूसरी बार युद्ध में किसने नीति निभाई ,
धर्म राज ने मिथ्या को सच का पर्याय बनाया
वासुदेव ने बड़ा कुशल नीतिज्ञ रूप धारण कर ,
कितने नाटक रचे उन्हीं के हित में खेल रचाया.
*
पार्थ- पुत्र मेरे पुत्रों को हीन सदा समझेगा ,
स्वाभिमान गौरव-गरिमा से वंचित सदा करेगा,
सारे गुण -गरिमा इनके ही लिये सदा आरक्षित ,
मेरी संन्ततियों को भी यह मनस्ताप ही देगा .
*
हर दम नीचा दिखलाना ही जिनका मन रंजन है ,
किसमें कितना संवेदन है कहाँ न्याय, नैतिक बल
 तभी कृष्ण के भागिनेय को घेर लिया था उस दिन
 भीषण ज्वालाओं से फिर धधका मेरा अंतस्तल.
*
यहाँ नहीं आदर्श किसी का,सब अवसर तकते हैं ,
कैसे किसे नीति से छल से अपना दाँव चलाते.
उस दिन जब अभिमन्यु अड़ गया विपुल सैन्य के आगे,
तोड़ दिये मैंने  चटका कर रीति-नीति के धागे .
*
मैं तो त्यक्त रहा जीवन भर मुझसे क्या आशायें ,
किन्तु अंततः मैं मनुष्य हूँ ,गुण-दोषों का पुतला,
अपनी बार भूल जाते है जहाँ युधिष्ठिर जैसे,
दुर्वलता से कौन बच सका ,ज्यों कि दूध से निकला
.*
 फिर मैं तो अकुलीन ,क्षम्य हूँ ,मेरी  हस्ती ही  क्या
कृष्ण सरीखे मायावी से मैने भी गुर सीखे ,
कुछ प्रतिमान बदल जाते हैं यही विवशता मन की ,
दुस्सह लगने लगते सारे स्वाद अचानक तीखे
*
विषम काल में जिसने साधा ,सिर ऊँचा करवाया ,
सारा कौशल रीति-नीति भी  उसके दाँव धरूँगा
आज मित्र के प्रति ही मेरी निष्ठा का दर्शन हो ,
जिससे मान मिला उसके हित मैं अपमान सहूँगा ,
*
उसका हित सर्वोपरि अपना तुच्छ  स्वार्थ क्यों साधूँ ,
सुयश दिया कब किसने उसका कैसा सोच अभागे ,
जिसने मान दिया उसका हित अपने से आगे कर, ,
सारे यश-अपयश के  अपने मानक मैंने त्यागे ,
*
कुछ क्षण जिनमें सोच-समझ की क्षमता ही चुक जाये,
भान और औसान ,कहाँ टिक सके  क्रोध के आगे ,
आवेगों आवेशों के बादल  ऐसा छा लेते
टूट बिखर जाते उस पल सारे संयम के धागे ,
*
मैं एकाकी रहा ,कौन था मीत और गुरु ऐसा
हारे क्षण में साहस देता ,विभ्रमता  में संबल ,
कृष्ण ,कभी तुम आये थे अति निकट सांत्वना लेकर
अब भी छा लेते हैं जब-तब छाया बन कर वे पल .
*
जो कुछ भला-बुरा संचा,अब झोली पलट दिखा दूँ ,
यह विश्रान्त मनस्थिति आगे क्या हो तुम ही जानो,
चाहे कोई और न समझे ,नहीं किसी की चिन्ता,
मेरे अंतर के  सच को विश्वेश, तुम्ही पहचानो !
*
मेरे पाप-पुण्य,अनुराग-विराग , तृप्ति-तृष्णायें ,
लीन करो निज में चिर-व्याकुल मन, अशेष संवेदन !
अब ,स्वीकार करो कि अवांछित समझ झ़टक दो तुम भी ,
 विषम यात्रा की परिणतियाँ ,ठाकुर, तुमको अर्पण !
**
- प्रतिभा.

14 टिप्‍पणियां:

  1. कर्ण के पास कितना कुछ कहने को उस समय भी, आपने बड़े सुन्दर ढंग से व्यक्त कर दिया।

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  2. बहुत गहन चिन्तन के बाद ही ये सब लिखा गया होगा।

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  3. कर्ण का यह संवाद अधीरता और शांति एक साथ संचरित करता है।
    और "विषम काल में जिसने ......... मानक मैंने त्यागे ," - साधु!

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  4. kitni sunderta se karn ke man ka vishleshan kiya hai aur utni hi yogyta aur karmathta se aapne shakt shabdo ki mala ko buna hai. prashansneey.

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  5. आदरणीया प्रतिभाजी,
    कितनी अद्भुत है कविता! कितनी अर्थपूर्ण! बार-बार पढ़ने लायक.
    आपके उत्तर के पारस परस से मेरा प्रश्न सार्थक हुआ. कर्ण की प्रसंशक हूँ, ऐसा क्यों किया उसने ये प्रश्न सदैव मन को विचलित करता रहा! सच कहूँ तो ये वाक्यांश भी आपके कारण ही दिला गया...आप कहा करतीं थीं शार मृत्युन्जय पढ़ो और मैं अब तक पढ़ नहीं पाई... सो ये कहीं मन में अटका हुआ प्रश्न बाहर आ गया. उत्तर के लिए आभार क्या दूँ आपको, आप तो अपनी हैं.

    यूँ तो पूरी रचना आँखें नम कर देने वाली है, पर ये मन के भीतर पैठ गए:

    "मानव के संस्कार ,भंगिमा ,वाणी , दीपित अंतर,
    तन-मन का विन्यास ,सहज औदात्य तत्व पूरित उर
    सारी क्षमताएं फिर भी मैं हीन रहा परपेक्षी ,
    कौन शमित कर पाया विषम व्यथा देते वे कटु स्वर !
    *
    जिसने बहा दिया पानी में बड़ी कुलीना होगी
    हतभागा वसुषेण ,भाग्यशाली कितना द्वैपायन"

    ....
    एक बार ,बस एक बार चाहती कर्ण का संबल ,
    टकरा जाता स्वयं काल से लाज बचाने के हित ,
    ....
    इस अकुलीन कर्ण से, कृष्णा कैसे कुछ चाहेगी ,
    .....
    वासुदेव ने बड़ा कुशल नीतिज्ञ रूप धारण कर ,
    कितने नाटक रचे उन्हीं के हित में खेल रचाया.
    *
    पार्थ- पुत्र मेरे पुत्रों को हीन सदा समझेगा ,
    सारे गुण -गरिमा इनके ही लिये सदा आरक्षित ,

    मैं तो त्यक्त रहा जीवन भर मुझसे क्या आशायें ,
    *
    फिर मैं तो अकुलीन ,क्षम्य हूँ ,मेरी हस्ती ही क्या
    कृष्ण सरीखे मायावी से मैने भी गुर सीखे ,
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    आज मित्र के प्रति ही मेरी निष्ठा का दर्शन हो ,
    जिससे मान मिला उसके हित मैं अपमान सहूँगा ,
    *
    सुयश दिया कब किसने उसका कैसा सोच अभागे ,
    *
    कुछ क्षण जिनमें सोच-समझ की क्षमता ही चुक जाये,
    भान और औसान ,कहाँ टिक सके क्रोध के आगे ,
    *
    मैं एकाकी रहा ,कौन था मीत और गुरु ऐसा
    हारे क्षण में साहस देता ,विभ्रमता में संबल ,
    *
    जो कुछ भला-बुरा संचा,अब झोली पलट दिखा दूँ ,
    यह विश्रान्त मनस्थिति आगे क्या हो तुम ही जानो,
    चाहे कोई और न समझे ,नहीं किसी की चिन्ता,
    मेरे अंतर के सच को विश्वेश, तुम्ही पहचानो !
    *
    अब स्वीकार करो कि अवांछित समझ झटक दो तुम भी ,
    विषम यात्रा की परिणतियाँ ,ठाकुर, तुमको अर्पण !
    **

    मेरी निधि है ये संपर्क, ये लेखन और जीवन संवाद जो हमारे बीच है.
    सादर शार्दुला

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  6. हर इन्सान की अपनी व्यथा और कारण ..बार बार अपमान के दंश को पीते कर्ण की मनःस्थिति को आपके शब्दो ने व्यक्त किया ...
    आभार !

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  7. बहुत ही सुंदर गहनाभिब्यक्ति कर्ण की अंतर्वेदना को उसके दुःख को बहुत अच्छे ढंग से आपने अपनी रचना में बताया है /और कर्ण के बारे में जो कुछ सवाल उठते थे /उसका भी उत्तर आपकी रचना द्वारा प्राप्त हुआ इसके लिए आपका बहुत बहुत आभार /बधाई आपको इतनी शानदार रचना के लिए /


    please visit my blog
    www.prernaargal.blogspot.com

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  8. मुझे याद आ रहा है कि आपने कहा था.. 'मृत्युंजय बहुत दिनों तक मन पर छाई रहेगी।'सच कहूँ तो, तब ऐसा अनुभव नहीं हुआ था,परंतु आज इस कविता को पढ़ते हुए एक एक दृश्य उस पुस्तक से निकल कर सजीव होते रहे। कविता से जितनी भी तरंगे उठीं भावनाओं की..कह सकती हूँ..सब की सब हृदय तक पहुँची।अंत बहुत बहुत शांति देने वाला है।
    अभिभूत हूँ एक बार फिर।
    .
    यदि मृत्युंजय न पढ़ी होती तो इस कविता को मात्र पढ़ कर ही रह जाती।
    सच ही कहा था प्रतिभा जी आपने।हृदय से आभारी रहूँगी सदा ।
    .
    और शार्दुला जी को आभार...उनके कारण एक उत्कृष्ट रचना उनकी कुछ पंक्तियों के साथ पढ़ने को मिली।

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  9. कर्ण का मन क्या खूब पहचाना। शार्दूला जी के प्रश्न और आपके उत्तर ने कविता को वृहत आयाम दिया है ।

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  10. बहुत सुन्दर सार्थक रचना
    आपकी सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार

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  11. शार्दुला जी के प्रश्नों पर आपका यह चिंतन मनन ..अनुपम है ..

    कर्ण के बारे में जितना पढ़ा जाये या जाना जाये कम है .. दिनकर की लिखी रश्मिरथी मेरी प्रिय पुस्तक है ...
    आपकी लेखनी ने कर्ण की मनोदशा को बहुत सुंदरता से उकेरा है ..मन अभिभूत हुआ ..साधुवाद

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  12. शकुन्तला बहादुर9 सितंबर 2011 को 8:03 pm बजे

    प्रतिभा जी,
    ये कविता मन पर इस तरह छा गई कि बहुत देर तक उसी में डूबी रही।आपको व्यक्तिगत मेल में विस्तार से बहुत कुछ लिख चुकी हूँ।
    कर्ण की मनोव्यथा,,उसका आक्रोश और प्रतिशोध आपने जिस सूक्ष्मता
    और सजगता से अभिव्यक्त किया है,वह अन्यत्र दुर्लभ है।कर्ण का व्यक्तित्व कुछ इस तरह उभरा है कि जैसे कर्ण साक्षात् मेरे सामने आ खड़ा हुआ,उसी के मुख से मैंने उसकी जीवन-गाथा सुनी। किस किसको उद्धृत करूँ ?आपका काव्य-कौशल अप्रतिम है।

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  13. कुछ लिखने के लिए बाकी नहीं रहा....शब्द मेरे मौन हैं ....बस इतना ही कह सकता हूं कि ये रचना मैथलीशरण गुप्ता और दिनकर की श्रैणी में आती है....अविरल, प्रवाहमान, स्वर्ग से निकली गंगा की तरह आपके मन से निकली हुई...

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