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सोमवार, 8 अगस्त 2011

शप्त कस्तूरी

*
 कहाँ तू स्वच्छंद ,तेरे छंद कस्तूरी ,

गंध योजन भर बिखेरे ,

दूर से ही जो दिपे रे ,

तंत्र में जब से बसी अभिशप्त कस्तूरी.

*

बन गया संदेश दुर्धर,

फूटता यह गंध निर्झर

नाभि-मंडल में समाये,

मर न पाये, जी न पाये

भटकती आकुल, किये मद-अंध कस्तूरी !

*

सूर्य कर से दमकता तन ,

दे रहा हो स्वर्ण का भ्रम

री मृगी ,वन-पर्वतों में,

खोजती फिरती तृणों में

प्रबल आकर्षण विकल, हर रंध्र कस्तूरी !

*

देह के अस्तित्व में धर ,

दिया कैसा गंध निर्झर !

किस तरह निज में  समेटे

बोध अपने ही ठगे से,

स्वयं से अनभिज्ञ रची अनंग कस्तूरी!

 *

प्राण तेरे खींचने को

बाण साधा व्याध ने जो

 कर रहा संधान पीछे ,

एक भी अवसर न चूके.

व्याध से दूरी निभे किस ढंग कस्तूरी  ,

*

और फिर देता   निमंत्रण ,

साँस से महका समीरण

शत शरों के दंशवाली 

चुभन भरती नोक ढाली     ,

मार्ग क्षण-क्षण हो रहा  दुर्लंघ्य कस्तूरी .

*

दहकते  क्रीड़ा-वनों में

छिटकते जलते तृणों में

प्रज्ज्वलन हर ओर दारुण,

बने अग्नि-स्तंभ तरुगण

नाभि कुंडल रची वही अदम्य कस्तूरी !

*

रूप-गुण  ने बैर साधा,

श्वास भी बन जाय बाधा

दौड़ अंधाधुंध तब तक,

रक्त  आलक्तक  रचें  पग.

 करुण मरण-मृदंग  कर दे मौन  कस्तूरी ,   !

*

मत्त बन, कर लिया धारण  ,

किस तरह हो फिर निवारण,

शाप बन कर ग्रस रहा वर

टीसता अंतर विषम-शर.

एक दिन तुझको करे निस्पंद कस्तूरी ,

*

प्राण ले कर भागती डर,

काल से कैसे बचे पर,

वही कर्षण खींच लाता

दिशा देता  पथ बताता.

इन्द्रियों के बोध भी अवसन्न कस्तूरी.

*

आ गई क्यों इस धरा पर ,

वेदना- संस्कार लेकर?

कुछ न पायेगी यहाँ तू

दुसह व्रत-आचार लेकर,

सिर्फ़ सहना ही,  भटक निस्संग कस्तूरी !

*

अब कहाँ का शान्ति औ-सुख ,

कुछ नहीं री.  मनोवांछित.,

भाग कर जाये कहाँ

हिरनी शरण पाये कहाँ  ?

कुरंगिनि री,  मरण का अनुबंध कस्तूरी !

तू कहाँ स्वच्छंद तेरे छंद कस्तूरी !

*

22 टिप्‍पणियां:

  1. प्रणाम करती हूँ प्रतिभाजी! कहा था न कि आपको मिलने आया करूँगी...आपके लेखन से दूर कैसे रह पाउंगी...

    कितना सशक्त, कितना विचलित कर देने वाला लेखन!

    बहुत बहुत सुन्दर रचना! फ़िर-फ़िर पढूंगी, गुनुंगी, हर कोण से देखूंगी ये कविता...और कोशिश करुँगी कि किसी दिन इसे विषयाश्रित हो के पढ़ सकूँ! ...सादर शार्दुला

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  2. बद्ध हो पढ़ते गये बस,
    अनवरत ही बह रहा रस।

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  3. भाग कर जाये कहाँ
    हिरनी शरण पाये कहाँ
    सुंदर रचना अच्छी लगी.......

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  4. व्याध से दूरी निभे किस ढंग कस्तूरी
    विकट परिस्थित में खुद को किस तरह से राह दिखाए मानव। अंतर्द्वन्द्व को समेटे आपकी कविता की शिल्पगत सौन्दर्य मन को प्रसन्न कर गया।

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  5. आपकी रचनाओं पर कुछ भी लिखना मेरी सामर्थ्य के बाहर की बात है .. बस पढ़ कर नि:शब्द होती हूँ ..मनन करती हूँ , इस काव्यरस में डूब जाती हूँ ..आभार सुन्दर प्रस्तुति के लिए

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  6. देह के अस्तित्व में धर ,
    दिया कैसा गंध निर्झर
    किस तरह निज में समेटे
    बोध अपने ही ठगे से,
    स्वयं से अनभिज्ञ रची अनंग कस्तूरी!

    Beautiful creation !

    .

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  7. कविता में यह सुन्दरता दुर्लभ है ! शुभकामनायें आपको !

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  8. डूब जाने के बाद कहने को कुछ रह नहीं जाता।
    इतनी सुन्दर रचना, ऐसा विषय.. कैसे आभार व्यक्त करूँ?

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  9. kya likhun...
    kho gai teri gandh kasturi...
    tera ajab hai dhang kasturi...
    aaj pahali baar aapke blog mei aayi hu, shayad...
    is kavita ko padhne ke baad {3 times} soch rahi thi ki is kavita mei gahrae sach ko yadi kasturi kaha jae to galat nahi hoga... usi ke jaise naachti-koodti-khelti-baithti...
    shabd hi kho gae hain shayad...

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  10. बहुत बहुत सुन्दर रचना है प्रतिभा जी। शब्दों के संग मन भागता रहा हिरनी के जैसे...और मन के साथ रचना को पढ़ने वाली दृष्टि मोहित होकर कभी प्रसन्न हुई..कभी भीगती रही......विशेषकर अंतिम छंद में।पूरी रचना में पृष्ठभूमि में अपनी माँ को ही देखती रही..उनके जीवन के अत्यंत निकट लगी ये कविता...।वैसे तो बहु आयामी ही है आपकी रचना.....जो जिस नज़र से इसे और इसके मूल को पा ले......वैसे ही ढल जाएगी पाठक की दृष्टि में।

    बहुत आभार ऐसी रचना लिखने के लिए प्रतिभा जी......मन तृप्त हुआ पढ़कर । फिर कई बार पढूँगी..!

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  11. देह के अस्तित्व में धर ,
    दिया कैसा गंध निर्झर
    किस तरह निज में समेटे
    बोध अपने ही ठगे से,
    स्वयं से अनभिज्ञ रची अनंग कस्तूरी!

    बहुत अच्छी लगी आपकी यह कविता।

    सादर

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  12. मत्त बन कर लिया धारण ,
    किस तरह हो फिर निवारण
    शाप बन कर ग्रस रहा वर
    टीसता अंतर विषम शर
    एक दिन तुझको करे निस्पंद कस्तूरी ,

    एकदम हृदयस्पर्शी....
    आपकी रचनाएं मेरे प्रिय कवि जयशंकर प्रसाद की कविताओं भांति लालात्यपूर्ण रहती है. पढ़ कर आनन्द आ जाता है.

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  13. आ गई क्यों इस धरा पर ,
    वेदना- संस्कार लेकर
    कुछ न पायेगी यहाँ तू
    दुसह व्रत-आचार लेकर,
    सिर्फ़ सहने के लिये ही भटकती निस्संग !

    सब कुछ कह दिया यहाँ …………अति उत्तम रचना

    जवाब देंहटाएं
  14. अब कहाँ का शान्ति औ-सुख ,
    कुछ नहीं री. मनोवांछित
    भाग कर जाये कहाँ
    हिरनी शरण पाये कहाँ ,
    कुरंगिनि री, मरण का अनुबंध कस्तूरी .
    *
    तू कहाँ स्वच्छंद तेरे छंद कस्तूरी...:) जबरदस्त। बहुत कम मिलती है ऎसी रचनायें पढ़ने के लिये। आभार।

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  15. आदरणीया बड़ी अम्मा प्रतिभा जी
    सादर प्रणाम !

    कहाँ तू स्वच्छंद ,तेरे छंद कस्तूरी ,
    गंध योजन भर बिखेरे ,
    दूर से ही जो दिपे रे ,
    तंत्र में जब से बसी अभिशप्त कस्तूरी


    आहाऽऽहाऽऽऽह… ! इतना सुंदर काव्य ! अलौकिक !!
    मानो साक्षात् सरस्वती ने स्वयं लेखनी चलाई हो … … …
    आपकी इस विराट रचना के लिए कुछ भी कहना मेरी सामर्थ्य से परे है …
    बस, आनन्द वारिधि में डूबने-उतराने को जी कर रहा है … सच कहूं तो इसके लिए विवश विमुग्ध हूं ………

    हार्दिक बधाइयां और मंगलकामनाएं !


    रक्षाबंधन एवं स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओ के साथ

    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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  16. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  17. आपकी पोस्ट "ब्लोगर्स मीट वीकली "{४) के मंच पर शामिल की गई है /आप आइये और अपने विचारों से हमें अवगत कराइये/आप हिंदी की सेवा इसी तरह करते रहें ,यही कामना है /सोमवार १५/०८/११ को आपब्लोगर्स मीट वीकली में आप सादर आमंत्रित हैं /

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  18. जी, आपके प्रोफाइल फोटो दर्शन हो, कुछ यांदे, कुछ फरिश्तो के से चेहरे उभर आये...पहली बार ब्लॉग पर आया हूँ, सोचा प्रणाम करता चलू.

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  19. शकुन्तला जी ने ई-मेल द्वारा कहा(इसे संलग्न करने का आदेश भी)-
    प्रतिभा जी,
    नहीं जानती कि इस कविता के पीछे आपके मन की कौन सी अनुभूति है? किन्तु कुरंगिनी
    की पीड़ा ने मेरे मन को तो झकझोर सा दिया। कस्तूरी के रूपक के माध्यम से आपने रूप-गुण संपन्न विकासोन्मुख बालिकाओं अथवा प्रताड़ित नव-वधुओं की व्यथा को कुरेद दिया है।मैंने इसे कई कई बार पढ़ा।
    "एक दिन तुझको करे निस्पंद".... और "प्राण लेकर भागती डर.......इन्द्रियों के बोध होते जा रहे अवसन्न।" अन्त में " अब कहाँ का शान्ति औ सुख,.....मनोवांछित....मरण का अनुबन्ध।"
    एक एक शब्द इतना मार्मिक है कि मैं पढ़कर स्वयं भी अवसन्न सी बैठी रह गई। यों तो पूरी कविता ही करुण-रस से ओतप्रोत है और बहुत कुछ गम्भीरता से सोचने के लिये विवश करती है।
    व्यथित-मन की अनुभूति की ये अभिव्यक्ति अत्यन्त सशक्त और सार्थक है।आपकी उर्वर सोच और
    लेखनी के सामर्थ्य ने सदा की भाँति विस्मित कर दिया।आपके काव्य-कौशल को नमन!!
    -शकुन्तला बहादुर

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