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शुक्रवार, 12 मार्च 2010

धन्य हो उठें साँझ-सवेरे

धन्य हो उठें साँझ-सवेरे
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तप-तप कर हो गई अपर्णा, जिसके हित नगराज कुमारी ,
कहाँ तुम्हारे पुण्य-चरण मैं कहाँ जनम की भटकी-हारी!
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कहीं शान्त तरु की छाया में बैठे होगे आसन मारे,
मूँदे नयन शान्त औ'निश्छल , गरल कंठ शशि माथे धारे ,
और जटाओं से हर-हर कर झरती हो गंगा की धारा ,
मलय-पवन-कण इन्द्रधनुष बन करते हों अभिषेक तुम्हारा!
ऐसा रूप तुम्हारा पावन , ओ मेरे चिर अंतर्यामी
सार्थकता जीवन की पा लूं मिले अंततः छाँह तुम्हारी !
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हिमगिरि के अभिषिक्त अरण्यों की हरीतिमा के उपभोगी,
हिमकन्या को वामअंग में धरे परम भोगी औ'योगी,
जीत मनोभव ,मनो-भावनाओं के आशुतोष तुम दाता,
परम-प्रिया दाक्षायनि के सुध -बुध खोये तुम प्रेम वियोगी !
तुम नटराज समाकर निज में अमिय-कोश भी, कालकूट भी
चरम ध्रुवों के धारक, परम निरामय, निस्पृह, निरहंकारी !
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तापों में तप-तप कर कब से अंतर का आकुल स्वर टेरे
शीतल -शिखरों की छाया में धन्य हो उठें साँझ-सवेरे
रति-रोदन से विगलित पूर्णकाम करने की कथा पुरानी,
आशुतोष बन कितनों को वरदान दे चुके औघड़दानी,
सभी यहाँ का छोड़ यहीं पर आसक्तियाँ तुम्हें अर्पित कर
मुक्ति विभ्रमों से पा ले मति मेरी ऐहिकता की मारी
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तपःपूत वनखंड कि जिस पर जगदंबा के सँग विचरे हो ,
गहन- नील नभ तले पावनी गंगा के आंचल लहरे हों ,
उन्हीं तटों पर कर दूँ अपना सारा आगत तुम्हें समर्पित ,
भूत भस्म हो , विद्यमान पर तव शुभ-ऐक्षण के पहरे हों,
अब मत वंचित करो प्रवाहित होने दो करुणा कल्याणी ,
अवश कामना मेरी पर ,पर अतुलित शुभकर सामर्थ्य तुम्हारी !
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