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गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009

.बोलते पत्थर.

*
बोल उछते हैं ये पत्थर !
हटा कर यह सदियों की धुन्ध ,और जो पडी युगों की भूल ,
अनगिनत अविरल काल-प्रवाह इन्हीं मे खोते जाते भूल !
अभी भी अंकित रेखा - जाल ,बीतते इतिवृत्तों की याद ,
सो रहा यहाँ युगों से शान्त ,पूर्व की घडियों का उन्माद !
सँजोये कितने हर्ष -विषाद ,अटल हैं ये बिखरे पत्थर !
*
गगन के बनते-घुलते रंग ,क्षितिज के धूप-छाँह के खेल .
शिशिर का हिम, आतप का ताप और वर्षा की झडियाँ झेल ,
किसी स्वर्णिम अतीत के चिह्न, खो गये वैभव के अवशेष ,
समय के झंझावातों बीच ,ले रहे अब भी स्मृति का वेश !
किसी की भावमयी अभिव्यक्ति सँजोये ये चिकने पत्थर !
*
कला की अथक साधना पूर्ण ,कुशलतम कलाकार के हाथ ,
यहाँ इंगित करते हैं मौन, अमर है कला, अमिट है भाव !
मिट चुका मानव चेतनशील ,नहीं पर नष्ट हुये निर्माण
शून्यता के सूने साम्राज्य,बीच भी हैं प्रत्यक्ष प्रमाण !
विश्व की छल- माया के बीच ,आज भी ये निश्चल पत्थर !
*
भव्य मंदिर के भग्नावशेष आँकते काल कथा का मोल ,
बिगत की धूमिल छाया बीच दे रहे स्मृतियों के पट खोल !
भावना में कितना सौंदर्य ,स्वप्न का कितना मूर्त स्वरूप
कठिनता का निरुपम शृंगार ,चेतना का निस्स्वर प्रतिरूप !
बोल ही देते हैं चुपचाप ,सजे-सँवरे बिखरे पत्थर !

पडे हैं बिखरे खँडहर किन्तु ,एक दृढता है सीमाहीन ,
किसी मीठे अतीत की करुण कहानी सोती संज्ञाहीन !
गूँज जाते हैं नीरव गीत ,किसी पाषाण खण्ड में भ्रान्त ,
विगत की भूली-बिसरी याद ,कसक उठता निर्जन एकान्त
देखते रहते हैं चुपचाप युगों से निष्चेतन पत्थर !

विवशता की गहरी निश्वास ,छोड आगे बढ जाती वायु ,
नहीं संभव अब कायाकल्प ,रूप की शेषरूप ,यह आयु !
फूँक जाती हैं किंचित जान .विश्व की परिवर्तन मय श्वास,
नहीं ये बिखरे प्रस्तर खंड ,मनुज के लुटते से विश्वास !
उडाते जीवन का उपहास अचेतन ये निर्मम पत्थर !
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1 टिप्पणी:

  1. प्रतिभा जी...
    कई कई बार पढ़ चुकी हूँ ये पत्थरों की बातें..आज कुछ लिखने का सौभाग्य मिला....बार बार कुछ पंक्तियों को चुनने की चेष्टा की...हर बार असफल ही रही...हर पड़..हर पंक्ति ह्रदय को छू कर गुज़री.....
    पुराने समय का वैभव..भोग विलास...आस्था..त्याग...समर्पण..निष्ठा..धर्म...आदि को छोड़ कर आपने इस कविता में मूक जड़ पाषाणों को दी है......यही बात इस कविता से स्वयं को जोड़ने को काफी थी....
    सच में निर्माण कहाँ नष्ट हुए..कितनी सभ्यताएं आयीं और गयीं.......
    बहुत.....बहुत ही सुन्दरता से पिरोया है प्रतिभा जी..परिवर्तन के सतत नियम को और पाषाणों की स्थिरता को भी......
    *

    एक बात अजीब लगी..विचित्र सा अनुभव हुआ कविता पढ़ते हुए...:o:o ..जैसे दृष्टि के समानांतर अंतर्मन कविता को एक दुसरे रूप में ग्रहण करने में प्रयत्नशील था....आत्मा को खण्डहर समझते हुए...देह को बदलते युगों की संज्ञा दे डाली.......:(
    इस विचार को पोषित नहीं किया....अभी करने का जतन करुँगी.....

    *
    इस कविता को पढ़ते हुए बार बार 'रानी रूपमती का किला' और 'भेड़ाघाट के संगमरमर' ही उभरते रहे मन में.....शायद बड़ा मन लगा कर देखा होगा मैंने बचपन में दोनों को ....

    बहुत अच्छी लगी कविता..''भग्नावेश''.....कुछ समय तक चेतना पर छायी रहेगी..

    बधाई इस सुंदर और गहन रचना के लिए

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