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सोमवार, 8 जून 2020

मैं कविता हूँ -

मैं कविता हूँ --

कविता हूँ,  मुक्त विचरती हूँ,मैं मानव होने का प्रमाण ,  
 पहचान बताऊं कैसे मैं ,हर भाव ,रंग में विद्यमान .
अवरुद्ध पटों को खोल,वर्जनाहीन अकुण्ठित बह चलती,
जो सिर्फ़ उमड़ता बोझिल सा, मैं सजल प्रवाहित कर  कहती.  

प्रकटी अरण्य ऋषि-चिन्तन में पाने जीवन का दिव्य मूल,
ऋक्सामयजुर् में प्रकटी बन मानव-प्रज्ञा का अमल फूल .
विश्वानुभूति के स्वर भरती समभाव लिए विचरण करती ,
भावना-लोक की वासी हूँ संवेदन में साँसें भरती.

विधना ही प्रथम सिरफिरा कवि, लिख शून्य पटलपर लिपि विचित्र,
मनमौजी,रचता  दृष्य-काव्य चलते-फिरते अनगिन चरित्र.
सागर के सीने मे उफान ,फूलों में वर्ण-वर्ण बिखरी,
सरिताओं में लहराई भी  ,निर्झर सी औचक  फूट पड़ी. 

तापस की करुणा छंद बनी, सात्विक आवेगों  की पुकार, 
कविता का स्रोत बह चला लौकिक जीवन का रस ले अपार .
मैं लोकगीत बन ,धऱती  पर आकाश नया ही रच देती, 
लालित्य राग बिखराता तो,मैं बनी विश्व मोहन बंसी.

दुख में जन्मी अभाव में पल, आँसू से सिंच पल्लवित हुई  
अंतर्सत्यों की व्याप्ति,गिरा की भेंट,सुकृति-साधनामयी,
मैं  युद्ध क्षेत्र में गीता हूँ  उलझे प्रश्नों का समाधान ,
हो जन्म-मरण के आर-पार मैं रही निरंतर विद्यमान . 

होकर विषाद आच्छन्न मनुज उद्विग्न मनस् होता विषण्ण,
 मैं ही  विराग का लेप लगा फूंकती कान में कर्म-मर्म.
 मैं रुकती नहीं दिवारों से,मैं हथकड़ियों में और प्रबल ,
शत-शत आयुध कर निष्प्रभाव, रहजाती सरल-तरल निश्छल.

जीवन-वेदी पर जो अर्पित ,यश बन पीछे-पीछे चलती ,
भू- नभ की माप करे यौवन तो रीझ बलाएं मैं लेती. 
पर्वत से फूट निकलती, ऐसी व्याकुलता सिरधरे कौन ,
पागल हो जिये और अपनी पीड़ा न कह सके, रहे मौन.

कहते-कहते रह जाती किसी महिम की गाथा के कुछ पल 
आगत प्रेमीजन को कोई अनुचित संदेश न करे विकल.
कल्पना सखी का योग माँग कुछ का कुछ करती बात बदल
दुष्यंत शापवश भूल गया था, न  था प्रेम में कोई छल.

सर्पिल राहें चलते-चलते, पा किसी बिरछ की छाँह सघन
जाने क्या-क्या  घिर आता मुझ पर मुँद जाते ये थके नयन 
हाँ ,कभी अकेली हो करुणाकुल तान विरह की भरती हूँ , 
 अंतर के भीगे स्वर,हस्ताक्षर बांच सुरक्षित करती हूँ.
 
अवरुद्ध द्वार खोलूँ उर के, हर वातायन से झाँक सकूँ ,
यह मेरे लिए विहित कि कहाँ कितनी गहराई, आँक सकूँ .
रो लेती बिलखाते शिशु सँग, वेदना देख कर बह आती  
अन्याय देख जल उठती मैं, दुर्धर्ष विपथगा बन जाती.

मीरा सँग गाती विरह-गीत, प्रमदा हित मैं  उर्वशी बनी,
सूरा के माखनचोर सजा,जय में अर्जुन की रथी बनी .  
कल्पना जगा, रच नई सृष्टि, जीवन को रस से प्लावित कर ,
संताप-दग्ध मानस को करती स्निग्ध, तरलता भावित कर.

चन्दन में भरती आग ,अस्थियाँ वज्रों में करती परिणत  ,
जल-थल-अंबर में रणित ज्योतिकण अपने स्वर में अंतर्हित  
वाणी की निर्मल धारा हूँ मैं सरस्वती का व्यक्त रूप,
युग-युग की अंतर्धारा बन मैं प्रवहमान ,अविरल,अविरत.

रोना न, प्रेम का दिखा स्वाँग ,स्वाहा होना सिखलाती हूँ , 
जीवन-यज्ञों की समिधाएँ अभिमंत्रित करती जाती हूँ .
निमिषों में गिन देती युग को,पर कुछ पल ,सदियों तक गाती,  
कविता हूँ,रच जीवन्त चित्र, जीवन के रँग बिखराती हूँ !