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गुरुवार, 3 मई 2018

बोला था चलता हुआ वर्ष -

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 यों बोला , कुछ उदास हो कर दुनिया से चलता हुआ वर्ष 
मैं भी था अतिथि ,एक दिन तुम सा ही आदृत,स्वीकृत, समर्थ.
मैने कुछ सपने पाले थे अपने अनुकूल लगा जब रुख ,
तीन सौ पचास से अधिक शेष दिन कर लेंगे कमाल हम कुछ .

जीवन के मान  मूल्यों का होगा कुछ ऊँचे तक चढना
चाहे थे मानव की जययात्रा के पड़ाव अंकित करना
संचित कर लेगा मुदित हृदय मंगल श्रेयस्कर  भावों को 
सौंपूँगा तुमको जन मन के सद्भाव भरे विश्वासों को

जड़ से सत्-चित् तक का विधान  जिसके हित सारी घूमघाम , 
 इस कर्म-योनि में हो समर्थ ,  मानव पायेगा ऊर्ध्वमान .
  पर फलें  कि जो सिंचित हो कर वे मन के शुभ-संकल्प कहाँ?
नव आगत को  अर्पित कर दें ऐसे सत्कर्म विकल्प कहाँ? 

बारहों मास यों बीत गये ढूँढे न जुड़े उजले आखर,
अब महाकाल की महाबही में क्या लिक्खूँगा मैं जाकर !
जाता हूँ ,जाना  होगा ही,अब रुकने का अवकाश कहाँ 
मुझसे ऊबे लोगों  में बाकी बचा ,धैर्य- सहभाव कहाँ .

मानव मानवता खो ,अपनी ही मृगतृष्णाओं में भूला,
सदियों की लब्धि लुटा कर अपनी क्षणिक ऐषणा में झूला,
 अब कथा-सूत्रता आगे की ओ मित्र, तुम्हारे हाथ रही,
 ऊर्ध्वारोहण की शुभ-यात्रा यों कुहर-जाल में भटक गई

कह दिया बहुत कुछ थोड़े में,अब कर लेना पूरा विमर्ष .'
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