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शनिवार, 19 अगस्त 2017

तुम्हारा दृष्टि भ्रम होगा.


( अपनी मित्र कल्पना की एक कविता यहाँ प्रस्तुत करने का लोभ नहीं संवरण कर पा रही हूँ. - प्रतिभा. )

मैं नहीं रोई , तुम्हारा दृष्टि भ्रम होगा.

अचानक यों उमड़ कर क्यों  हृदय  आवेग धारेगा,
किसी भी भावना के बस, उचित-अनुचित विचारेगा
मनस् की चल तरंगों का सरल उपक्रम रहा होगा.
 तुम्हारा दृष्टि भ्रम होगा

करो विश्वास ,ले कर शान्त-मन जाओ,
न इस बाज़ार में कोई कहेगा और रुक जाओ ,
किसी उद्दाम झोंके ने बहक धोखा किया होगा.
 तुम्हारा दृष्टि भ्रम होगा

यहाँ सुकुमार भावों पर किसी का बस नहीं चलता ,
कभी अनयास हीअनुताप मन का यों नहीं छलता,
अचेतन कामना का  देहधर्मी अतिक्रमण होगा
 तुम्हारा दृष्टि भ्रम होगा

क्षणिक आवेग में बहकी लहर योंही उछल जाये .
अकारण वाष्प के कण आ नयन के पटल पर छायें ,
बड़ी सी ज़िन्दगी के लिये तो वह बहुत कम होगा.
तुम्हारा दृष्टि भ्रम होगा.

अभी जो देय बाकी हैं उन्हे चुपचाप भरना हैं ,
विगत अनुबंध के सब रिक्त खाँचे पूर्ण करना हैं
इसी में रीत जाने को मिला ये ही  जनम होगा
तुम्हारा दृष्टि भ्रम होगा.

 न रोई मैं यही सच  है  इसी को मान लेना तुम
 जरा सी देर में ही  बदल जाती काल की सरगम 
इसी में डूब कर खोया अजाना क्षण रहा होगा.
तुम्हारा दृष्टि भ्रम होगा.
*
- कल्पना.

रविवार, 13 अगस्त 2017

चल रे हर सिंगार ,तुझे मैं साथ ले चलूँ.

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चल रे हर सिंगार तुझे मैं साथ ले चलूँ.
 चंदन कुंकुंम धारे तरु डालों पर जगतीं दीप शिखाएँ  ,
संध्या के रेशमी पटों में शीतल सुरभित श्वास समाये
इस जीवन से माँग-जाँच कर थोड़ा-सा मधुमास ले चलूँ

यह उल्लास भरा उत्सव-क्रम मधुवर्षी लघुतम जीवन का 

किसी  प्रहर को रँग से भऱ  दे , उज्ज्वल ,निर्मल हास सुमन का 
अपने सँग अपनी माटी का नेह भरा आभास ले चलूँ.

सौरभमय सुकुमार रँगों में संध्याओं से भोर काल तक

आंगन की श्री-शोभा संग रातों के झिलमिल-से उजास तक  
  थोड़ा़ यह आकाश ले चलूँ ,अति प्रिय यह वातास ले चलूँ  .
चल रे हर सिंगार ....
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