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सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

रुकी हूँ अभी

*
घुट कर रह जाते शब्द, ,
व्यक्त नहीं होते मनोभाव - 
मैं तुम्हें श्रद्धाञ्जलि कैसे दूँ ?
*
पल-पल मनाया था -
 जीत जाओ काल से ,
तुम - जिसने हाड़ गलाते हिम झंझाओँ में
झोंक दिया था जीवन -
तन, यौवन सारे सपन ,
परिणीता का सुहाग , पुत्री का वत्सल-प्रेम ,
जननी-जनक का आसरा .
 *
सिर पर कफ़न बाँध
कैसे जिये होगे उन मरणान्तक दुर्गमों में,
 कि दुश्मन के पाँव छू न सके हमारी मातृ-भू .
*
स्तब्ध रह जाती हूँ सोच कर -
आज को तुम होते.....
 कैसे झेल पाते ,
यहाँ चल रही घातें
धूर्तों की करतूतें,
देश-द्रोहियों की जमातें ?
*
जूझे तुम जिन दुश्मनों से
उन्ही के पिट्ठू और उन के आका,
 यहीं बैठे हैं ठाठ से नमक हरामी,
तुम्हारे किये धरे पर पानी फेरते
 षड्यंत्र रचते ,इस धऱती की  बर्बादी के.
दूध पी-पी कर ये जहरीले साँप
 विष-वमन करते अबाध  घूम रहे चारों ओर !,
और यहाँ बसे  कायर ?
हाथ पर हाथ धरे देखे जा रहे जैसे कोई तमाशा !
 क्या-क्या बताऊँ  तुम्हें ,और कैसे ?
*
 नहीं अभी नहीं ,
तुम्हारी निष्ठा को नमन करते शब्द जागे नहीं अभी.
 लोक में  भावों का बड़ा अभाव  है .
चेत जाये मन  ,
एक झटके से आँख खुल गई हो  ज्यों ,
तन्द्रा से जाग 
 अँगड़ाई  ले  अलस पड़ा तन
ऊर्जस्वित हो उठे देश का यौवन. 
कुछ कर डालने को तत्पर .
*
रुकी हूँ कि ये विष- बेलें कट जायें ,
इस धरती के कलंक मिट जायें
वातावरण स्वच्छ , दृष्टियाँ स्वस्थ  ,
और मन निस्वार्थ निश्छल.
तब हे परमवीर ,(शायद किसी दूसरे जनम मे),
अर्पण करने आऊँगी

तुम्हारी प्रतिष्ठा में
अंतःस्रजित भावाञ्जलियाँ सजल !
*
- प्रतिभा सक्सेना.