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सोमवार, 2 जुलाई 2012

शंख-सीपें

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कहाँ जाये बिचारे जीव ये इंसान के मारे ,
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न दाना है न पानी है ,न छोड़ीं डालियाँ तरु की ,
बना कर नीड़ नन्हा-सा , शरण पा लें निशा भर की .
कहाँ है चाँदनी अब तो समझ में ही नहीं आता ,
कि नकली रोशनी ने रात-दिन का बोध ले डाला ,
गगन हो या कि जल-थल हर जगह तांडव मचाये है 
भरा है त्रास-आशंका सभी  आतंक के मारे !
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धरा की माटियों में अब न उगती वे हरी घासे ,
जहाँ  किलकारियाँ भर मगन मन हो लोट हम जाते 
सिमटते जा रहे हर ओर क्षितिजों के खुले आँगन
भ्रमित सा हो गया  ऋतु-क्रम व्यवस्था हीन आवर्तन,
दिशा में धुंध अंधा सा हवाओं में कसैलापन ,
 वहम पाले कि मैं सब-कुछ, अहम ज्यों तोड़ ले तारे 
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लहरता नदी का जल कर दिया तेज़ाब के जैसा .
न बुझती प्यास ,पीते ही हलक तक कंठ कड़ुआता 
सुखे जल-स्रोत ,झरने ताप से भर रुक गये थक कर ,
शिखऱ पर हिम न ,सूखे भूधरों के चिर-द्रवित अंतर 
धरा की कोख को ऐसे उलीचा बेरहम हो कर 
न जाने किस लिये ये विश्व-द्रोही  बन गया है रे !
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यही सच है कि तुमने कर दिया  अभिशप्त यह भूतल 
उड़ाकर धूल सब पर  छा रहे हैं नाश के कुछ पल 
मिली थी  श्रेष्ठता बन जाय सबका बंधु-संरक्षक
हुआ पर भ्रष्ट ,छल-बल से बना बैठा वही भक्षक
जियें कैसे ,कहाँ जायें विकल, कैसे भरें जीवन ,
उसी विधि के  खिलौने जीव सारे   प्राण-तन धारे !
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मरेगा ख़ुद , लिये  जाता अभी  हर तत्व से पंगा ,
लिये भस्मासुरी दुर्बुद्धि अपनी झोंक  में अंधा  .
धरा का फाड़ फेंका  नेह से भीना हरा आँचल ,
उड़ाये रंग सारे   दृष्य-जग सारा किया धूमिल 
मनुज की जात पहुँची जहाँ भी ,दूषण वहीं पहुँचा 
भविष्यों तक बिखेरा विष  ,तना है दर्प के मारे !
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सचल ये चित्र  हरियल मिट्ठुओं का पाठ रट लेना 
बिरछ  की डालियों पर पंछियों का नीड़ रख देना,
इशारा दे हिलाते शाख ,तरु का और झुक आना ,
ग्रहण कर नेह कर धर ,वल्लरी का बढ़ लिपट जाना ,
अनेकों रूप रंगों से सजी जो चल रही गाथा ,
प्रकृति की रम्य रचना के पलटते पृष्ठ हैं सारे ,
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बृहद् यह ग्रंथ लिक्खा जा रहा अविराम छंदों में ,
इसे तड़ो-मरोड़ो मत मनुज रे, विषम बंधों में .
उदधि-तल से उठी उद्दाम लहरें जब बिखर जायें 
तटों की बालुओं पर  शंख-सीपें भेंट धर जायें ,
समय के पृष्ठ पर हम लिख चलें कुछ अर्थमय अक्षर 
छिड़क संकल्प- जल नैवेद्य ,जो विश्वात्म स्वीकारे !
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