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सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

देवि,चिर-चैतन्यमयि !

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आँज नव-नव दृष्टियाँ गोचर-नयन में

मंत्र से स्वर फूँकती अंतःकरण में :
देवि,चिर-चैतन्यमयि ,तुम कौन ?,
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मैं स्वरा हूँ ,ज्ञान हूँ ,विज्ञान हूँ मैं,
मैं सकलविद्या कला की केन्द्र भूता !
व्यक्ति में अभिव्यक्ति में ,
अनुभूति -चिन्तन में सतत हूँ,
नाद हूँ शब्दात्मिका मैं,
सभी तत्वों की प्रसूता !
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वैखरी से परा-पश्यंती तलक,-
मैं ही बसी संज्ञा,क्रिया के धारकों में
भोगकर्त्री हूँ स्वयं,प्रतिरूप धारे,
भूमिका नव धार आठों कारकों में !
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मैं प्रकृष्ट विचार जो प्रत्येक रचना मे सँवरता ,
मूल हूँ, शाखा- प्रशाखा में सतत विस्तार पाती ,
धारणा बन शुद्ध, अंतर्जगत में अभिव्यक्त होती ,
बाह्य प्रतिकृति सृष्टि है,प्रकृत्यानुरूप स्वरूप धरती !
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पञ्चभौतिक जीव मेरा शंख है ,
मैं फूँक भर- भर कर बजाती ,
नाद की झंकार हर आवर्त में भर ,
उर- विवर आवृत्तियाँ रच- रच गुँजाती !
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सतत श्री -सौंदर्य का अभिधान करती ,
मुक्ति का रस भोग मैं निष्काम करती
स्फुरित हो अंतःकरण की शुद्ध चिति में ,
कल्पना मे सत्य का अवधान धरती !
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सप्त रंग विलीन ऐसी शुभ्रता हूँ ,
सप्त-स्वर लयलीन अपरा वाक् हूँ मैं !
अवतरित आनन्द बन अंत-करण में,
पार्थिव तन में विहरती दिव्यता हूँ !
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साक्षी मैं और दृष्टा हूँ निरंतर ,
ऊर्जस्विता ,अनिरुद्ध मैं अव्याकृता हूँ !
काल बेबस निमिष-निमिष निहारता,
मै स्वयं मे संपूर्ण अजरा अक्षरा हूँ !
अप्रतिहत मै, सहित, द्वंद्वातीत हूँ मै,
मै सतत चिन्मयी अपरूपा गिरा हूँ !
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- प्रतिभा.