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गुरुवार, 27 जनवरी 2011

सद्य स्नाता -

*


झकोर-झकोर धोती रही ,

सँवराई संध्या,

पश्चिमी घाट के लहरते जल में ,

अपने गैरिक वसन .

फैला दिये क्षितिज की अरगनी पर

और उतर गई गहरे

ताल के जल में .

*

डूब-डूब , मल-मल नहायेगी रात भर .

बड़े भोर निकलेगी जल से .

उजले-निखरे स्निग्ध तन से झरते

जल-सीकर घासों पर बिखेरती ,

ताने लगाते पंछियों की छेड़ से लजाती,

दोनों बाहें तन पर लपेट

सद्य-स्नात सौंदर्य समेट ,

पूरव की अरगनी से उतार उजले वस्त्र

हो जाएगी झट

क्षितिज की ओट  !
*

गुरुवार, 13 जनवरी 2011

एक नचारी - नोंक-झोंक.

'पति खा के धतूरा ,पी के भंगा ,भीख माँगो रहो अधनंगा ,

ऊपर से मचाये हुडदंगा , ये सिरचढ़ी गंगा !'

फुलाये मुँह पारवती !
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'मेरे ससुरे से सँभली न गंगा ,मनमानी है विकट तरंगा ,

मेरी साली है, तेरी ही बहिना ,देख कहनी -अकहनी मत कहना !

समुन्दर को दे आऊँगा !'
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'रहे भूत पिशाचन संगा ,तन चढा भसम का रंगा ,

और ऊपर लपेटे भुजंगा ,फिरे है ज्यों मलंगा !'

सोच में है पारवती !
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'तू माँस-सुरा* पे राजी ,मेरे भोजन पे कोप करे देवी .

मैंने भसम किया था अनंगा ,पर धार लिया तुझे अंगा !

शंका न कर पारवती !'
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'जग पलता पा मेरी भिक्षा ,मैं तो योगी हूँ ,कोई ना इच्छा ,

ये भूत औट परेत कहाँ जायें ,सारी धरती को इनसे बचाये ,

भसम गति देही की !'
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बस तू ही है मेरी भवानी ,तू ही तन में में औ' मन में समानी ,

फिर काहे को भुलानी भरम में ,सारी सृष्टि है तेरी शरण में !

कुढ़े काहे को पारवती !'
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'मैं तो जनम-जनम शिव तेरी ,और कोई भी साध नहीं मेरी !

जो है जगती का तारनहारा , पार कैसे मैं पाऊँ तुम्हारा !'

मगन हुई पारवती !
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(* शाक्तमत में सुरा&;मांस विहित है)