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मंगलवार, 12 जनवरी 2010

तेरे नाम हो गई

तू जैसा का तैसा कान्हा राधा तो बदनाम हो गई.
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मटकी सिर धर गाँव-गली में कान्हा-कान्हा टेरे ,
कोई गाहक कहाँ ?लगाले चाहे जित्ते फेरे ,
बड़े भोर की निकली घर से टेर-टेर कर शाम हो गई!
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लाद मटकिया रही भटकती ,दर-दर घर-घर अटकी
द्वारे पहरेदार सभी के बात न बस कोई की
माथे नाम चढ़ाया तेरा ,पर ग्वालिन गुमनाम हो गई !
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कोई पीर न जाने मनवा चुपके चुपके रोवे
साँझ कौन मुख ले घर जाये कहाँ चैन जो सोवे
किसका थामें हाथ निगोड़ी काया तेरे नाम हो गई .
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पहले किसे सँभाले मन को या कि सिरधरी मटकी ,
दोनों एक साथ ले ग्वालन फिरती भटकी भटकी ,
तेरा पता तो न पाया अपने से अनजान हो गई !
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पहले किसे सँभाले मन को या कि सिरधरी मटकी ,
दोनों एक साथ ले ग्वालन फिरती भटकी भटकी ,
तेरा पता तो न पाया अपने से अनजान हो गई !
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सुमिरनी हो गई रे

तेरा रट-रट के नाम घनश्याम ,सुमिरनी हो गई रे !
जहाँ जाऊं न पाऊँ कोई आपुना ,
मोरे नयनो में तेरी ही थापना
कहीं पाऊँ न चैन ,जिया दुखे दिन-रैन
मन लेवे कहीं ना विसराम, सुमिरनी हो गई रे !
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चिर दिन भटका किया जियरा ,
बस तुझे पहचाने मेरा हियरा
कोई नाता न माने ,कैसे किसे पहचाने
मेरा कोई न धाम कोई काम,सुमिरनी हो गई रे
*
अब इतनी तो तू कर सँवरिया ,
रह जाऊँ नहिं बीच डगरिया ,
होवे सीतल तपन मन होवे मगन
जा पहुँचूँ वृंदावन धाम, सुमिरनी हो गई रे !

बुधवार, 6 जनवरी 2010

बाकड़िया बड़

*
बाकड़िया बड़
यहाँ पर एक बरगद था पुरातन पूर्वजों जैसा
जटायें भूमि तक आतीं तना सुदृढ़ असीसों सा
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मुझे तो दूर से पल्लव- हथेली हिल बुला लेतीं
ज़रा ले छाँह बाबा की थकन तो दूर कर लेतीं .
वही उज्जैन का वट-वृक्ष बाकड़िया जिये कहते
कि जिसका नाम लेकर लोग फिर अपना पता देते .
न भूलूँगी अरे ओ वट प्रियम् संवाद कुछ दिन का !
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मुझे लगता कि यह छाया ,पिता की गोद जैसी है ,
थकन के बाद, थपकी से मिले आमोद जैसी है
पितर सम हर सुहागिन पूजती, आँचल पकड़ झुकती
लपेटे सूत के दे , व्रत अमावस का सफल करती
उसी की छाँह में भीगा हुआ विश्वास कुछ दिन का
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कि जैसे दीर्घवय मुनि जटिल, अपने बाहु फैलाये
धरे आशीष की मुद्रा ,स्वस्ति औ' शान्ति से छाये
पखेरू कोटरों में बसा कर परिवार रहते थे
घने पत्ते दुपहरी में सुशीतल छाँह देते थे
बहुत कुछ जो घटा सदियों वही तो एक साक्षी था ,
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मुझे तो याद है बरगद तले अपना खड़ा होना ,,
नगर को छोड़ते पर उन असीसों से नहा लेना ,
उसे छूना, वहाँ की याद आँखों में समा लेना
बहुत-कुछ धर निगाहों में , विकल मन से बिदा लेना ।
वहीं के भवन ,वह अभ्यास औ आवास कुछ दिन का ,
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उसे क्यों काट फेंका यों किसी का क्या बिगाड़ा था ,
पुरानी उस धरोहर को ,सभी से प्यार गाढ़ा था ।
बताओ काटने वालों ,तुम्हारे हाथ थे कैसे !
कभी क्या महत् तरुवर फिर उगा लोगे उसी जैसे ?
यही लगता, कि अब चुक जायगा यह राग कुछ दिन का !
यहाँ पर ज़िन्दगी भी क्या, बड़ा खटराग कुछ दिन का!
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