पेज

शनिवार, 26 दिसंबर 2009

वहाँ हरगिज़ नहीं जाना

जहां के लिये उमड़े मन वहाँ हरगिज़ नहीं जाना
न आओ दिख रहा लिक्खा जहाँ के बंद द्वारों पर
फकत बहुमंजिलों की भीड़ में सहमा हुआ सा घर
खड़े होगे वहां जाकर लगेगा कुयें सा गहरा
ढका जिस पर कि बस दो हाथ भर आकाश का टुकड़ा ,
हवायें चली आतीं मन मुताबिक जा न पाती हो
सुबह की ओस भी तो भाप बन फिर लौट जाती हो
नये लोगों ,नई राहों ,नये शहरों भटक आना ,
पुराने चाव ले पर उस शहर हरगिज़ नहीं जाना
*
घरों में गुज़र मत पूठो कि पहले ही जगह कम है ,
ज़रा सी बात है यह तो, हुई फिर आंख क्यों नम है
किसी पहचान का पल्ला पकड़ना गैरवाजिब है ,
किसी के हाल पूछो मत, यहाँ हर एक आजिज़ है
वहां पर जो कि था पहले नहीं पहचान पाओगे
निगाहें अजनबी जो है उन्हें क्या क्या बताओगे !
बचपना भूल जाना सदा को मत लौट कर जाना,
कि मन को अन्न-पानी चुक गया उस ठौर समझाना
*
बदलती करवटों जैसी सभी पहचान मिटजाती
यहाँ तो आज कल दुनिया बड़ी जल्दी बदल जाती
रहोगे हकबकाये से कि उलटे पाँव फिर जाये
कि चारो ओर से जैसे यही आवाज़ सी आये ,
अजाना कौन है यह क्यों खड़ा है जगह को घेरे
पराया है सभी ,अपना नहीं कुछ भी बचा है रे !
वहाँ कुछ भी नहीं रक्खा लगेगा अजनबी पन बस
यही बस गाँठ बाँधो फिर वहाँ फिर कर नहीं जाना
*
पुरानेी डगर पर धरने कदम हरगिज़ नही जाना !
बज़ारों में निकल जाना ,दुकाने घूम-फिर आना
कहीं रुक पूछ कर कीमत उसे फिर छोड़ बढ़ जाना ,
बज़ारों का यहां फैलाव कितना बढ़ गया देखो ,
दुकानों में नहीं पहचान .स्वागत है सभी का तो
दुबारा नाम मत लेना कि चाहे मन करे कितना
वहां कुछ ढूँढने अपना न भूले से निकल जाना !
बचा कर आँख अपनी उन किनारों से निकल जाना
*
नयों के साथ धुँधला - सा,न जाने क्या सिमट आता !
वहाँ अब कुछ नहीं है ,सभी कुछ बीता सभी रीता ,
हवा में रह गया बाकी कहीं अहसास कुछ तीखा ।
गले तक उमड़ता रुँधता , नयन में मिर्च सा लगता
बड़ा मुश्किल पड़ेगा सम्हलना तब बीच रस्ते में
लिफ़ाफ़ा मोड़ वह सब बंद कर दो एक बस्ते में
समझ में कुछ नहीं आता मगर आवेग सा उठता ।
घहरती ,गूँजती सारी पुकारों को दबा जाना ! वहाँ हर्गिज़...
*
अगर फिर खींचेने को चिपक जाये पाँव से माटी
छुटा दो आँसुओं से धो नदी तो जल बिना सूखी
महक कोई भटकती ,साँस में आ कर समा जाये
किसी आवाज़ की अनुगूँज कानो तक चली आये
हवा की छुअन अनजानी पुलक भर जाय तन मन में
हमें क्या सोच कर यह टाल देना एक ही क्षण में
समझना ही नहीं चाहे अगर मन ,मान मत जाना !
तुम्हारा वह शहर उजड़ा वहाँ हर्गिज़ नहीं जाना
नई जगहें तलाशो ,सहज ग़ैरों में समा जाना !
*
वहां बिल्कुल नहीं जाना ,वहां हरगिज़ नहीं जाना ,
*

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

यहाँ बस हूँ

यहाँ दिन है वहाँ तो रात होगी !
नयन भर स्वप्न की माया तुम्हारे साथ होगी !
*
यहाँ तो धूप इतनी सिर उठाने ही नहीं देती ,
नयन को किसाकिसाती उड़ रही है किरकिरी रेती
वहाँ तो चाँदनी की स्निग्ध-सी बरसात होगी
*
इधर की हवा कुछ बदली हुई बेचैन लगती ,
किरण इन मरुथलों में भटकती सी भरम रचती ,
वहाँ विश्राम होगा , चैन की हर सांस होगी .
*
बने हर बात का तूफ़ान, मन बस चुप अकेला ,
दिखाई दे रहा बस ,दूर तक सुनसान फैला ,
यहाँ बस हूँ ,वहाँ तो साथ होगा दोस्ती आबाद होगी .

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

विश्वशान्ति -

थम गई हैं विश्व की आँखें ,
यहीं इन्सानियत की क्षीण साँसें चल रही हैं !
प्रति निमिष के सात युग पलकें उठाता
डोलता विश्वास आँखें जल रही हैं !
आज मानवता सिहरती ,
आज जीवन ले रहा निश्वास गहरी,
आज अंबर पूछता मैं किस प्रलय का मंच हूँ ,
यह शून्य की आँखें बनी हैं आज प्रहरी !
आज सिसकी भर रही संस्कृति
सृष्टि का उल्लास बेसुध सा पडा है ऍ
स्वयं मानव के करों में प्रलय है ,
सृष्टा स्वयं विस्मित खडा है !
*
दीप धरा के बुझ जायेंगे ,
जलने की अंतिम सीमा के पार क्षार ही शेष बचेगी ,
विश्व-शान्ति का व्यंग्य रूप ,
मानवता की सीमाओं का उपहास उडाती ,!
और प्रकृति के हाथ उठायेंगे मानवता का शव !
नीर ढालता दैन्यभरा सृष्टा का वैभव !
कफन बनेगी क्षार और श्मशानभूमि होगी यह धरती !
उस अथाह नीलाभ गगन से बरसेंगे दो बूँद
कि ले कर कौन चले जीवन की अर्थी !
मौन,शान्,निष्प्राण धरा पर तब ,सुरमय ये गान न होंगे !
धरती का वह रूप कि जिसमें
पतन और उत्थान न होंगे १
तारों का वह लोक धरा को विस्मित सा होकर ताकेगा !
मानवता के चिर प्रयाम के बाद ,
निर्जन ,निर्जीवन ,भू-तल का वृत्त शून्य चक्कर काटेगा !
*

ऐसा क्या दे दिया

ऐसा क्या दे दिया सभी हो गया अकिंचन
दुनिया के वैभव सुख के मुस्काते सपने ,
मदमाता मधुमास टेरती हुई हवायें
सबसे क्या तुमने नाते जोडे थे अपने !
हास भरा उल्लास और उत्सव कोलाहल ,
जो आँखों के आगे वह भी नजर न आता ,
यों तो बहुत विचार उठा करते हैं मन में
उस रीतेपन मैं भी कोई ठहर न पाता !
रँगरलियाँ रंगीन रोशनी की तस्वीरें ,
दिखती हैं लेकिन अनजानी रह जाती हैं !
और कूकती हुई बहारें जाते-जाते
इन कानों में कसक कहानी कह जाती हैं !
जाने क्या दे दिया कि सपना विश्व हो गया ,
जो आँखों के आगे वह भी नजर न आता ,
यों तो बहुत विचार उठा करते हैं मन में ,
पर इस रीते पन में कोई ठहर न पाता !

तुमने कुछ दे दिया नहीं जो छूट सकेगा ,
और करेगा सभी तरफ से मुझको न्यारा !
रह-रह कर जो इन प्राणो को जगा रहा है
बन करके मुझमें अजस्र करुणा की धारा !
सारी रात जागती आँखों के पहरे में ,
ऐसी क्या अमोल निधि धर दी मेरे मन में ,
छू जिसको हर निमिष स्वयं में अमर हो गया ,
और बँध गया जीवन ही जिसके बंधन में !

तुमने क्यों दे दिया अरे मेरे विश्वासी ,
जब लौटाने मुझमें सामर्थ्य नहीं थी!
जान रहा मन आज कि सौदागर की शर्तें ,
लगती थीं कितनी लेकिन बेअर्थ नहीं थीं !
उलझा सा है जिसको ले मेरा हरेक स्वर ,
जाने कितनी पिघलानेवाली करुणाई
तुमने वह दे दिया कि मन ही जान रहा है ,
मेरे मानस को इतनी अगाध गहराई !
अपने में ही खोकर जो तुमसे पाया है ,
अस्पृश्य है कालेपन से औ'कलंक से ,
बहुत-बहुत उज्ज्वल है ,पावन है ,ऊँचा है ,
रीति -नीति की मर्यादा से पाप पंक से !
ऐसा कितना बडा लोक तुमने दे डाला ,
जहाँ नहीं चल पाता मेरा एक बहाना .
जिसके कारण मैं सबसे ही दूर पड गई ,
बुनते हरदम एक निराला ताना-बाना !
ऐसा क्या दे दिया कि सम्हल नहीं पाती हूँ ,
कह जाती सब ले गीतों का एक बहाना !
फिर भी मन का मन्थन ,कभी नहीं थम पाता ,
नींद और जागृति का भी प्रतिबन्ध न माना !
सचमुच इतना अधिक तुम्हारा ऋण है मुझ पर,
जनम-जनम भर भर भी उऋण नहीं हो पाई ,
इसीलिये चल रही अजब सी खींचा तानी ,
जब तक शेष न होगी पूरी पाई-पाई !
इतना क्या दे दिया कि जिससे बाहर आकर,
लगता सबकुछ सूना औ' सबकुछ वीराना ,
मेरा सारा ही निजत्व जिसने पी डाला ,
शेष सभी को कर बैठा बिल्कुल वीराना !
आँचल स्वयं पसार ले लिया सिर आँखों धर ,
अब लगता है बहुत अधिक व्याकुलता पाली ,
चैन न पाये भी बिन पाये और नहीं था ,
एक धरोहर तुमने मुझे सौंप यों डाली !