रविवार, 17 मई 2020

प्रायश्चित -

*
मानव रचना का महत् कार्य कर, सृष्टि निरख हो कर प्रसन्न ,
अति तुष्टमना  सृष्टा ने मायामयि सहचरि के साथ मग्न. 
देखा कि मनुज हो सहज तृप्त ,हो महाप्रकृति के प्रति कृतज्ञ,
आनन्द सहित सब जीवों से सहभाव बना रहता सयत्न  ,

वन,पर्वत सरिता,गगन पवन से सामंजस्य बना संतत .
ऋतुओँ से कालविभागों के अनुकूल सदा  नियमित संयत   ,
जड़-चेतनमय जग जीवन को करता चलता सादर स्वीकृत.
तब विधना धरती के मानव से बोल उठे यों स्नेह  सहित -

मानव, तुम मुक्त विहार करो ये सब अधीन हैं संरक्षित ,
इन सबके साथ चले जीवन सबका हित ही हो अपना हित. 
 ये गिरि मालाएँ ,वन शाद्वल ,ये हरित द्रोणियाँ , उच्च शिखऱ ,
तुम इन सबके संरक्षक हो जग जीवन हो सुखमय सुन्दर ,

 वसुधा कुटुम्ब है  जड़-चेतन संसार यही है सर्वभूत 
तू जी, औऱों को जीने दे सुविधायें सबके हित प्रभूत
नत-शीश मनुज बोला - उपकृत हूँ ,पा इतनी सामर्थ्य देव
इस महा प्रकृति की संताने ,लघुतम या दीर्घाकार जीव,

हो गई धरा वरदानमयी फिर चलने लगा सृष्टि का क्रम,
सीखता रहा धीरे-धीरे , सुखमय जीवन का कर उपक्रम
सदियाँ बीतीं,होता जाता था वह प्रबुद्ध और कर्म-कुशल,
लेकिन अति सुख-सुविधाओं का रोगी बन कर हो गया विकल.

तब शेष जगत के लिए मनुज होता ही गया  संवेदहीन, 
 औरों का हिस्सा, अधिकाधिक अधिकारों के हित रहा छीन.
अति के कारण हिल उठी धरा ,आकाश थरथरा गया सहम,
सागर उफनाए ,रुद्ध दिशाएँ,आर्तनाद से भरा  पवन .

निज अहंकार में लगा रहा  कैसे अनिष्ट के महादाँव,
हो चकित विधाता देख रहा क्या बदल गया मानव स्वभाव!
 हो रम्य प्रकृति से दूर, सृष्टि का अनुशासन कर रहा भंग, 
स्वच्छंद और अतिचारी होता जाता है दिन-दिन प्रचंड.

चर-अचर सभी पर मनमाना अपना अबाध अधिकार मान, 
व्यवहार क्रूरता और अनीति से कर देता कंपायमान,
भूधर की रीढ़ें तोड़-फोड़,जल के स्रोतों में ज़हर घोल.  
आकाश-दिशाएँ धुआँ-धुआँ, भूगर्भों तक गहरे खखोल.

बेचारे पशुपक्षी निरीह,वंचित,अशऱण हो गए दीन,  
आतंक मनुज का छाया जड़-चेतन मलीन औ'शान्तिहीन.  
अब तो इतना चढ़ गया, आदमी हुआ आदमी का बैरी 
अपने विनाश का कारक ही बन बैठा चालें चल गहरी.

भृकुटी टेढ़ी हो गई क्रोध से भरी नियति ने कहा कि ले,
अब तक तू ही तू था, अब पापों का प्रायश्चित भी कर ले.
बेबस ,निरीह, अपनी दुविधाओं में डूबा रह भीत-त्रस्त, 
तू नेपथ्यों में रह जा कर,यह विश्व हो सके पुनः स्वस्थ.

रे घोर पातकी, तेरे पापों ने जो दूषण फैलाया है
उसके निस्तारण हेतु नियति ने निर्णय यह बतलाया है.
अपने जीवन का समाधान अब तो तुझ पर ही है निर्भर  , 
संयत-संयम धर और सुधर या घिसट एड़ियाँ  घिस-घिस कर.

सब कुछ पाकर भी चूक गया  सब किया धरा हो गया वृथा
मानव की यह विकास गाथा ,या कहें पतन की महाकथा .
इस काल-चक्र के घूर्णन में, नव-उदय विकास समापन दे,
अविराम कथाएँ रचती रहती नियति नटी अपने क्रम से .
*
- प्रतिभा सक्सेना.

10 टिप्‍पणियां:

  1. एक न एक दिन मानव की विकास गाथा ही उसकी पतन गाथा बन जाती है, सतयुग सदा कलयुग में बदलता है, सृष्टि चक्र का यही नियम है, आपने अति सुंदर ढंग से इस यात्रा का वर्णन किया है.

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  2. बहुत सुन्दर ... मानव और प्राकृति का सामजस्य जरूरी था ... प्रकृति का विश्वास मान कभी रख नहीं पाया और आज उसका नतीजा भोग रहा है ...
    गहरी ... अप्रतिम रचना ...

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार १९ मई २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  4. भृकुटी टेढ़ी हो गई क्रोध से भरी नियति ने कहा कि ले,
    अब तक तू ही तू था, अब पापों का प्रायश्चित भी कर ले.
    बेबस ,निरीह, अपनी दुविधाओं में डूबा रह भीत-त्रस्त,
    तू नेपथ्यों में रह जा कर,यह विश्व हो सके पुनः स्वस्थ.
    बहुत ही उत्कृष्ट...ये मनुष्य के अतिचारी होने का नतीजा है नियति को चुनौती देता आया मानव ...अब नियति भी अपनी पर उतर आयी है...
    बहुत ही लाजवाब...
    वाह!!!

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  5. नियति का चक्र है. बहुत सुन्दर रचना.

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  6. कालजयी राह पर आँसु के तुहिन घुले
    नियति नटी के जब भेदभरे राज खुले ।

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  7. हो गई धरा वरदानमयी फिर चलने लगा सृष्टि का क्रम,
    सीखता रहा धीरे-धीरे , सुखमय जीवन का कर उपक्रम
    सदियाँ बीतीं,होता जाता था वह प्रबुद्ध और कर्म-कुशल,
    लेकिन अति सुख-सुविधाओं का रोगी बन कर हो गया विकल.

    तब शेष जगत के लिए मनुज होता ही गया संवेदहीन
    बहुत ही सुन्दर रचना आदरणीय प्रतिभा जी

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