सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

अन्तर -

(यह कविता आप सबसे शेयर करना चाहती हूँ -
 रचनाकर्त्री को आभार सहित - प्रतिभा.)

*
    हम भिंचे हैं दो पीढ़ियों के बीच
    बुरी तरह ।


    पुरानी पीढ़ी की आशाओं को फलीभूत करने में
    बिता दी उम्र सारी ।
    उनके आदेशों को शिरोधार्य करते रहे ,
    जीते रहे ,लगभग जैसा चाहा उन्होंने ।
      भागीदार बनाया उन्हें जीतों में , हारों में ।

*
      पर आज का ये धर्म-संकट !
      दिखाता है कुछ नया रंग,  नया ख़ून ।
      नई माँगें , नये मानदण्ड,
      कुछ उचित , कुछ अनुचित ।

      एक बड़ा सा प्रश्नचिह्न , प्रतिक्षण , प्रतिपल
      मुँह फाड़े खड़ा है ।

*
    
      नीवें  हिलने सी लगी हैं ।
      क्या घर को बनाए रखने के लिये
      हम समझौते ही करते जाएँगे ?
      हाय ! कैसी विडम्बना है यह भाग्य की ?
                    *******
                              पुष्पा सिंह राव
                                      मुम्बई

   

6 टिप्‍पणियां:

  1. यही सच होता है । हर पीढ़ी को लगता है ऐसा ही महसूस होता है ।

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  2. शायद ये सच है ... पर क्या हर पीढ़ी को ऐसा नहीं लगता होगा अपने समय में ... हाँ प्रश्न तो फिर भी बाकी है ...

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